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________________ ३४. तत्त्वसूत्र ५८८. समस्त अविद्यावान् (ज्ञानी पुरुप) दुखी है-दुख के उत्पादक है । वे विवेकमूढ अनन्त संसार में बार-बार लुप्त होते है । ५८९. इसलिए पण्डितपुरुष अनेकविध पाश या बन्धनरूप स्त्री-पुत्रादि के सम्बन्धों की, जो कि जन्म-मरण के कारण है, समीक्षा करके स्वय सत्य की खोज करे और सब प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव रखे । ५९०. तत्त्व, परमार्थ, द्रव्य-स्वभाव, पर-अपर ध्येय, शुद्ध, परम--- ये सब शब्द एकार्थवाची है । ५९१. जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष--ये नौ तत्त्व या पदार्थ है । ५९२. जीव का लक्षण उपयोग है। यह अनादि-निधन है, शरीर से भिन्न है, अरूपी है और अपने कर्म का कर्ता-भोक्ता है । ५९३. श्रमण-जन उसे अजीव कहते है जिसे सुख-दुःख का ज्ञान नही होता, हित के प्रति उद्यम और अहित का भय नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008027
Book TitleSaman suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri, Nathmalmuni
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year1989
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size14 MB
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