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पारिभाषिक शब्दकोश
धर्म का ही रक्षकरूप में चिन्तवन (५२५) धर्म-द्रव्य-जीव तथा पुद्गलो की गति मे सहायक हेतु लोकाकाश प्रमाण निष्क्रिय अमूर्त्त द्रव्य ( ६२५ -६३३ )
धर्म- ध्यान - आत्मा के अथवा अर्हन्त सिद्ध आदि के स्वरूप का एकाग्र चिन्तवन तथा मंत्र जाप्य आदि (५०५ ) ध्यान - आत्म-चिन्तवन आदि में चित्त की
एकाग्रता (४८५, सूत्र २९ ) धौव्य-द्रव्य का नित्य अवस्थित सामान्य भाव, जैसे बाल युवा आदि अवस्थाओ मे मनुष्यत्व (६६२–६६७)
नय - वक्ता ज्ञानी का हृदयगत अभिप्राय (३३), सकलार्थग्राही प्रमाणस्वरूप श्रुतज्ञान का विकलार्थग्राही एक विकल्प, अथवा वस्तु के किसी एक अंश का ग्राहक ज्ञान (६९० )
नव - केवललब्धि तथा तत्त्वार्थ नौ-नौ है । नाम-कर्म - जीव के लिए चारो गतियो मे
विविध प्रकार के शरीरो की रचना करनेवाला कर्म (६६) नाम-निक्षेप - अपनी इच्छा से किसी वस्तु
का कुछ भी नाम रसना ( ७३९ ) निःकांक्षा-वस्तु की तथा ख्याति-लाभ - पूजा
की इच्छा से रहित निष्काम भाव; सम्यग्दर्शन का एक अग (२३३ - २३५) निःशंका- किसी भी प्रकार के भय या आशका से रहित भाव; सम्यग्दर्शन का एक अग (२३२)
निःसंग - सभी बाह्य पदार्थों से तथा उनकी आकांक्षा से रहित निर्ग्रन्थ साधु (३४६ )
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निक्षेप - नाम अथवा स्थापना, द्रव्य और भाव द्वारा किसी पदार्थ को युक्तिपूर्वक जानने तथा जतलाने का माध्यम (२३, ७१७)
निदान मरने के पश्चात् पर-भव में मुखादि
प्राप्त करने की अभिलापा. (३६६) निमित्तज्ञान- तिल, मसा आदि देखकर भविष्य बतानेवाली विद्या अथवा ज्योतिष ( २४४)
निर्ग्रन्थ- ग्रन्थ और ग्रन्थिरहित अपरिग्रही, देखो निसग । निर्जरा-सात तत्त्वो में से एक, जिसके दो
भेद है, दुख-सुख तथा जन्म-मरण आदि द्वन्द्व से अतीत, जीव की केवल ज्ञानानन्दरूप अवस्था (६१७–६१९) अर्थात् मोक्ष (१९२, २११ ) निर्वाण - देखे मोक्ष |
निर्विचिकित्सा - जुगुप्सा का अभाव; सम्यग्दर्शन का एक अग ( २३६ ) निर्वेद - ससार, देह व भोग तीनों से वैराग्य (२२)
निश्चयनय - अनन्त धर्मात्मक वस्तु के अखण्ड तथा वास्तविक स्वरूप को दर्शानेवाला वह ज्ञान जो न गुण-गुणी रूप भेदोपचार करके व्याख्या करता है और न ही बाह्य निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धरूप कोई अभेदोपचार स्वीकार करता है (३५) | जैसे कि मोक्षमार्ग को सम्यग्दर्शन आदि रूप से त्रयात्मक न कहकर सर्व पक्षो से अतीत निर्विकल्प कहना ( २१४), अथवा जीव-वध को हिसा न कहकर रागादि भाव को ही हिसा कहना (१५३)
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