________________
४३
ज्योतिर्मुख १३० पापकर्म के प्रवर्तक राग और द्वेष ये दो पाप है। जो भिक्षु
इनका सदा निरोध करता है वह मडल (ससार) मे नही रुकतामुक्त हो जाता है।
१३१. ज्ञान, ध्यान और तपोबल से इन्द्रिय-विषयो और कषायों को
बलपूर्वक रोकना चाहिए, जैसे कि लगाम के द्वारा घोड़ों को बलपूर्वक रोका जाता है।
१३२. महागुणी मुनि के द्वारा उपशान्त किये हुए कषाय जिनेश्वर
देव के समान चरित्रवाले उस (उपशमक वीतराग) मुनि को भी गिरा देते है, तब सराग मुनियों का तो कहना ही क्या ?
१३३. जब कि कषायों को उपशान्त करनेवाला पुरुष भी अनन्त
प्रतिपात (विशुद्ध अध्यवसाय की अनन्तहीनता) को प्राप्त हो जाता है, तब अवशिष्ट थोड़ी-सी कषाय पर कैसे विश्वास किया
जा । कता है ? उस पर विश्वास नही करना चाहिए। १३४. ऋण को थोड़ा, घाव को छोटा, आग को तनिक और कषाय को
अल्प मान, विश्वस्त होकर नहीं बैठ जाना चाहिए। क्योकि ये थोड़े भी वढकर बहुत हो जाते है ।
१३५. क्रोध प्रीति को नष्ट करता है, मान विनय को नष्ट करता है,
माया मंत्री को नष्ट करती है और लोभ सब कुछ नष्ट करता है।
१३६. क्षमा से क्रोध का हनन करें, मार्दव से मान को जीतें, आर्जव से
माया को और सन्तोष से लोभ को जीते ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org