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तत्त्व-दर्शन
२०३ ६३४. धर्मद्रव्य की तरह ही अधर्मद्रव्य है। परन्तु अन्तर यह है कि
यह स्थितिरूप क्रिया से युक्त जीवों और पुद्गलों की स्थिति मे पृथ्वी की तरह निमित्त बनता है ।
६३५. जिनेन्द्रदेव ने आकाश-द्रव्य को अचेतन, अमूर्त, व्यापक और
अवगाह लक्षणवाला कहा है। लोक और अलोक के भेद से आकाश दो प्रकार का है ।
६३६. यह लोक जीव और अजीवमय कहा गया है। जहाँ अजीव
का एकदेश (भाग) केवल आकाश पाया जाता है, उसे अलोक कहते है।
६३७. स्पर्श, गन्ध, रस और रूप से रहित, अगुरु-लघु गुण से युक्त
तथा वर्तना लक्षणवाला कालद्रव्य है।
६३८. जीवों और पुद्गलों मे नित्य होनेवाले अनेक प्रकार के परिवर्तन
या पर्याय मुख्यतः कालद्रव्य के आधार से होती है-उनके परिणमन मे कालद्रव्य निमित्त होता है। (इसीको आगम
मे निश्चयकाल कहा गया है।) ६३९. वीतरागदेव ने बताया है कि व्यवहार-काल समय, आवलि,
उच्छ्वास, प्राण, स्तोक आदि रूपात्मक है ।
६४०. अणु और स्कन्ध के रूप मे पुद्गल-द्रव्य दो प्रकार का है।
स्कन्ध छह प्रकार का है और परमाणु दो प्रकार का--कारणपरमाणु और कार्य-परमाणु ।
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