________________
स्याद्वाद
२२७ ७०४. संग्रहनय के दो भेद है--शुद्धसंग्रहनय और अशुद्धसंग्रहनय ।
शुद्धसंग्रहनय मे परस्पर में विरोध न करके सत्रूप से सबका ग्रहण होता है। उसमे से एक जातिविशेष को ग्रहण करने से
वही अशुद्धसंग्रहनय होता है । ७०५. जो संग्रहनय के द्वारा गृहीत शुद्ध अथवा अशुद्ध अर्थ का भेद
करता है, वह व्यवहारनय है। यह भी दो प्रकार का है--एक अशुद्धार्थ-भेदक और दूसरा शुद्धार्थ-भेदक ।।
७०६. जो द्रव्य में एकसमयवर्ती (वर्तमान) अध्रुव पर्याय को ग्रहण
करता है उसे सूक्ष्मऋजुसूत्रनय कहते है । जैसे सब शब्दक्षणिक
७०७. और जो अपनी स्थितिपर्यन्त रहनेवाली मनुष्यादि पर्याय को
उतने समय तक एक मनुष्यरूप से ग्रहण करता है, वह स्थूलऋजुसूत्रनय है।
७०८. शपन अर्थात् आह्वान शब्द है, अथवा जो 'गपति' अर्थात
आह्वान करता है यह शब्द है । अथवा 'शप्यते' जिसके द्वारा वस्तु को कहा जाता है वह शब्द है। उस शब्द का वाच्य जो
अर्थ है, उसको ग्रहण करने से नय को भी शब्द कहा गया है । ७०९. जो एकार्थवाची शब्दों में लिग आदि के भेद से अर्थभेद मानता है,
उसे शब्दनय कहा गया है । जैसे पुष्य शब्द पुल्लिग में नक्षत्र का वाचक है और पुष्या स्त्रीलिंग तारिका का बोध कराती है।
७१०. अथवा व्याकरण से सिद्ध शब्द में अर्थ का जो व्यवहार किया
जाता है, उसी अर्थ को उस शब्द के द्वारा ग्रहण करना शब्दनय है। जैसे देव शब्द के द्वारा उसका सुग्रहीत अर्थ देव अर्थात् सुर ही ग्रहण करना ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org