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________________ स्याद्वाद २१७ ६७३. सूत्र और अर्थ के विषय मे शकासहित साधु भी गर्वरहित होकर स्थाद्वादमय वचन का व्यवहार करे। धर्माचरण में प्रवृत्त माधुओ के साथ विचरण करते हुए सत्यभापा तथा अनुभय (जो न सत्य हो और न असत्य) भापा का व्यवहार करे । धनी या निर्धन का भेद न करके समभावपूर्वक धर्म-कथा कहे । ३८. प्रमाणसूत्र (अ) पञ्चविध ज्ञान ६७४. सशय, विमोह (विपर्यय) और विभ्रम (अनध्यवसाय) इन तीन मिथ्याज्ञानों से रहित अपने और पर के स्वरूप का ग्रहण करना सम्यग्ज्ञान है। यह वस्तुस्वरूप का यथार्थ निश्चय कराता है, अतएव इसे साकार अर्थात् सविकल्पक (निश्चयात्मक) कहा गया है । इसके अनेक भेद है । ६७५. वह ज्ञान पाँच प्रकार का है--आभिनिबोधिक या मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन पर्ययज्ञान और केवलज्ञान । ६७६. इस प्रकार मति, श्रुत, अवधि, मन पर्यय और केवल के रूप में ज्ञान पाँच ही है। इनमें से प्रथम चार ज्ञान क्षायोपशमिक हैं, और केवलज्ञान क्षायिक है। (एकदेश क्षय व उपशम से उत्पन्न होने के कारण चार ज्ञान अपूर्ण है और समस्त कर्मो के क्षय से उत्पन्न होने के कारण पाँचवाँ केवलज्ञान परिपूर्ण है।) ६७७. ईहा, अपोह. मीमासा, मार्गणा, गवेषणा, सज्ञा, शक्ति, मति और प्रज्ञा--ये सव आभिनिबोधिक या मतिज्ञान है । ६७८. (अनुमान या लिगज्ञान की भाँति ) अर्थ (शब्द) को जानकर उस पर से अर्थान्तर (वाच्यार्थ) को ग्रहण करना श्रुतज्ञान कहलाता है। यह ज्ञान नियमतः आभिनिबोधिक ज्ञानपूर्वक होता है । इसके दो भेद है--लिगजन्य और शब्दजन्य । (धुआँ देखकर होनेवाला अग्नि का ज्ञान लिगज है और वाचकशब्द सुन या पढ़कर होनेवाला ज्ञान शब्दज है।) आगम मे शब्दज श्रुतज्ञान का प्राधान्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008027
Book TitleSaman suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri, Nathmalmuni
PublisherSarva Seva Sangh Prakashan
Publication Year1989
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size14 MB
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