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मोक्ष-मार्ग
४२५. जो सर्व-मावद्य (आरम्भ) से विरत है, विगलियुक्त है तथा जितेन्द्रिय है, उसके सामायिक स्थायी होती है. ऐसा केवल शासन मे कहा गया है ।
४२६ जो सर्वभूत स्थावर व श्रम जीवो) के प्रति समभाव रखना है, उसके सामायिक स्थायी होती है ऐना केव मासन में कहा गया है ।
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४२७. ऋम आदि चौवीस तीर्थकरों के नामों की निमत्ति तथा उनके गुणो का कीर्तन करना, गध-पुष्प-अक्षतादि से पूजा-अर्चा करके, मन वचन काय की शुद्धिपूर्वक प्रणाम करना चतुविशतिस्तव नामक दूसरा आवश्यक है ।
४२८. निन्दा तथा ग से युक्त साधु का मन वचन काय के द्वारा, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के व्रताचरणविषयक दोषों या अपराधों की आचार्य के समक्ष आलोचनापूर्वक शुद्धि करना प्रतिक्रमण कहलाता है ।
४२९ आलोचना, निन्दा तथा गी के द्वारा प्रतिक्रमण करने में तथा पुनः दोष न करने मे उद्यन साधु के भाव प्रतिक्रमण होता है । शेष सब तो ( प्रतिक्रमण-पाठ आदि करना द्रव्य-प्रतिक्रमण है ।
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४३०. वन्दना के छह स्थान होते है- वदन की इच्छा प्रकट करना, गुरु के मर्यादित स्थान मे जाने की अनुज्ञा लेना, निर्विघ्न धर्म-साधना की इच्छा करना, सयम-यात्रा ओर इद्रिय-जय का अनुमोदन करना तथा प्रमादवश हुए जाचरणों के लिए क्षमा-याचना करना ।
४३१. वंदना करना उपचार नाम का विनय है। उनमे अभिमान का विलय होता है, गुरुजनों की पूजा होती है. तीर्थकरो की आज्ञा और श्रुतधर्म की आराधना होती है तथा उसका पारम्परिक फल परम ध्यान (अक्रिया) होता है ।
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