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महावीर भी पार्थ्य-परम्परा के प्रतिनिधि थे | यो देखा जाय तो काल की अविच्छिन्न धारा में न तो ऋषभदेव प्रथम है और न महावीर जतिस। यह परम्परा तो अनादि-अनन्त है--न जाने कितनी चौबीसियों हो गयी है और आगे होगी ।
सास्कृतिक विकास की दृष्टि से विचार करने पर ज्ञात होता है कि पारमार्थिक अथवा आध्यात्मिक भूमिका की अपेक्षा से वेदिक तथा श्रमण मस्कृतियो मे विशेष अन्तर नही हैं, फिर भी व्यावहारिक क्षेत्र में, दोनो के तत्त्वज्ञान, आचार और दर्शन में अन्तर स्पष्ट है । दोनो सस्कृतियाँ आपस मे काफी प्रभावित रही है, उनमे आदान-प्रदान होता रहा है और सामाजिक परिवेश तो दोनो का लगभग एक ही रहा है । जो अन्तर दिखाई पड़ता है, वह भी ऐसा नही है कि समझ में न आ सके । बल्कि, यह तो मनुष्य-सभ्यता के विकास के स्नरों को समझने में बहुत सहायक है । भारत के समृद्ध प्राचीन साहित्य में दोनों संस्कृतियों या परम्पराओ के पारस्परिक प्रभाव तथा आदान-प्रदान व विपुल दृश्य देखने को मिलते है । एक ही परिवार में विभिन्न विचारो के लोग अपने-अपने ढंग से धर्म-स् - माधना करते थे ।
आत्मवाद
आज जिसे हम जैनधर्म कहते है, प्राचीन काल मे उसका और कोई नाम रहा होगा। यह सत्य है कि 'जैन' शब्द 'जिन' से बना है, फिर भी 'जैन' शब्द अपेक्षाकृत अर्वाचीन है । भगवान् महावीर के समय में इसका बोधक शब्द 'निर्ग्रन्थ' या 'निर्ग्रन्थप्रवचन' था | इसे कही कही 'आर्यधर्म' भी कहा गया है। पार्श्वनाथ के समय मे इसे 'श्रमणधर्म' भी कहा जाता था । पार्श्वनाथ के पूर्ववर्ती २२वे तीर्थकर अरिष्टनेमि के समय मे इसे 'अर्हत्धर्म' भी कहा जाता था । अरिष्टनेमि कर्मयोगी शलाका-पुरुष श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे। श्रीकृष्ण के द्वारा गाय की सेवा तथा गोरम का प्रचार वस्तुत अहिसक समाज-रचना की दिशा में एक मंगल प्रयास था । बिहार प्रदेश मे भी जैनधर्म आर्हत्धर्म के नाम से प्रचलित रहा है । राजर्षि नमि मिथिला के थे, जो राजा जनक के वंशज थे । इनकी आध्यात्मिक वृत्ति का जैनआगम मे सुन्दर चित्रण उपलब्ध है । इतिहास के पर्दे पर समय-समय पर अनेक नामपट बदलते रहे होगे, लेकिन इतना कहा जा सकता है कि इस
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