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प्राचीनता
किसी धर्म की श्रेष्ठता अथवा उपादेयता उसकी प्राचीनता अथवा अर्वाचीनता पर अवलम्बित नहीं होती, किन्तु यदि कोई धार्मिक परम्परा प्राचीन होने के साथ-साथ सदीर्घकाल तक सजीव, मत्रिय एव प्रगतिशील रही है तथा लोक के उन्नयन, नैतिक विकास तथा सास्कृतिक समृद्धि मे प्रबल प्रेरक एव सहायक सिद्ध हुई है तो उसकी प्राचीनता उस धर्म के स्थायी महत्त्व तथा उसमे निहित सार्वकालिक एव सार्वभौमिक तत्त्वो की सचक ही कही जा सकती है। जैनधर्म की परम्परा आचार और विचार दोनो दृप्टियो से नि मन्देह सदूर अतीत तक जाती है। इतिहासज्ञों ने अब इस तथ्य को पूर्णतया स्वीकार कर लिया है कि तीर्थकर वर्धमान महावीर जैनधर्म के मल सस्थापक नहीं थे। उनसे पूर्व और भी तीर्थकर हो गये है, जिन्होने जिनधर्म की पुनर्स्थापना की और उसकी प्राणधारा को आगे बढाया। यह ठीक है कि इतिहास की पहुँच जैनधर्म के मूल उद्गम तक नही है, किन्तु उपलब्ध पुगतात्त्विक एव साहित्यिक तथ्यो के निष्पक्ष विश्लेपण से अब यह निर्विवाद सिद्ध हो गया है कि जैनधर्म एक अति प्राचीन धर्म है। वातरशना मुनियों, केगियो, व्रात्य-क्षत्रियो के विपय मे ऋग्वेद, श्रीमद्भागवत आदि महत्त्वपूर्ण ग्रन्थो मे प्रचुर उल्लेख उपलब्ध है।
जैन-इतिहास मे तिरसठ शलाका-पुरुषों का वर्णन आता है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी नामक प्रत्येक सदीर्घ कालखण्ड मे ये शलाका पुरुष होते है, जो मानव-सभ्यता के विकास में अपने-अपने समय में धर्म-नीति की प्रेरणा देते है । इन शलाका-पुरुषो मे २४ तीर्थकरो का स्थान सर्वोपरि है। वर्तमान अवमर्पिणी कल्प में, उसके चतुर्थ कालखण्ड मे जो २४ तीर्थकर हुए है, उनमे सर्वप्रथम ऋषभदेव है जो राजा नाभि तथा माता मरुदेवी के पुत्र थे। इन्हे आदिनाथ, आदिब्रह्मा, आदीश्वर आदि भी कहा जाता है। सबसे अतिम, २४वे तीर्थकर, महावीर ढाई हजार वर्ष पूर्व हो गये है। तथागत बुद्ध भी इन्हीके समकालीन थे। भगवान् महावीर के २५० वर्ष पूर्व, २३वें तीर्थकर पार्श्वनाथ हो गये है, जो वाराणसी के राजा अश्वसेन के पुत्र थे। बौद्धागम। मे महावीर का उल्लेख तो निगठनातपुत्त के रूप में मिलता ही है, पार्श्व-परम्परा का उल्लेख भी चातुर्याम-धर्म के रूप मे मिलता है।
- ग्यारह -
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