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ज्योतिर्मुख १२३. आत्मा ही सुख-दु.ख का कर्ता है और विकर्ता (भोक्ता) है।
सत्प्रवृत्ति मे स्थित आत्मा ही अपना मित्र है और दुष्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना शत्रु है ।
१२४. अविजित एक अपना आत्मा ही शत्रु है। अविजित कषाय और
इन्द्रियाँ ही शत्रु है। हे मुने ! मै उन्हे जीतकर यथान्याय (धर्मानुसार) विचरण करता है।
१२५. जो दुर्जेय संग्राम में हजारों-हजार योद्धाओं को जीतता है,
उसकी अपेक्षा जो एक अपने को जीतता है उसकी विजय ही परमविजय है।
१२६. बाहरी युद्धों से क्या ? स्वयं अपने से ही युद्ध करो। अपने से
अपने को जीतकर ही सच्चा सुख प्राप्त होता है ।
१२७. स्वय पर ही विजय प्राप्त करना चाहिए। अपने पर विजय
प्राप्त करना ही कठिन है। आत्म-विजेता ही इस लोक और परलोक म सुखी होता है ।
१२८. उचित यही है कि मै स्वयं ही सयम और तप के द्वारा अपने
पर विजय प्राप्त करूं। बन्धन और वध के द्वारा दूसरों से मैं दमित (प्रताड़ित) किया जाऊँ, यह ठीक नहीं है ।
१२९. एक ओर से निवृत्ति और दूसरी ओर से प्रवृत्ति करना चाहिए
असंयम से निवृत्ति और संयम मे प्रवृत्ति ।
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