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मोक्ष-मार्ग
१४५ ४५२ गिरा, कन्दरा आदि भय कर स्थानो मे, आत्मा के लिए
सुखावह, वीरासन आदि उग्र आसनो का अभ्यास करना या धारण करना कायक्लेश नामक तप है ।
४५३ सखपूर्वक प्राप्त किया हआ ज्ञान दु ख के आने पर नष्ट हो जाता
है । अत. योगी को अपनी शक्ति के अनुसार दु.खो के द्वारा अर्थात् कायक्लेशपूर्वक आत्म-चिन्तन करना चाहिए।
४५४-४५५. रोग की चिकित्सा मे रोगी का न सुख ही हेतु होता है, न दुःख
ही । चिकित्सा कराने पर रोगी को दुख भी हो सकता है और सख भी। इसी तरह मोह के क्षय मे सुख और दु.ख दोनों हेतु नहीं होते । मोह के क्षय मे प्रवृत्त होने पर साधक को सुख भी हो सकता है और दुख भी। (कायक्लेश तप में साधक को शरीरगत दु ख या बाह्य व्याधियो को सहन करना पड़ता है। लेकिन वह मोहक्षय की साधना का अंग होने से अनिष्टकारी
नही होता ।) (आ) आभ्यन्तरतप ४५६ प्रायश्चित्त, विनया, वैयावत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग
(कायोत्सर्ग)--इस तरह छह प्रकार का आभ्यन्तर तप है।
४५७. व्रत, समिति, शील, सयम-परिणाम तथा इन्द्रियनिग्रह का भाव
ये सब प्रायश्चित्त तप है जो निरन्तर कर्तव्य-नित्य करणीय है।
४५८ क्रोध आदि स्वकीय भावों के क्षय वा उपशम आदि की भावना
करना तथा निजगुणों का चिन्तन करना निश्चय से प्रायश्चित्त तप है।
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