________________
२०९
तत्त्व-दर्शन ६५४. यह लोक सब ओर से इन सूटम-वादर पुद्गल-स्कन्धो से ठसा
ठस भरा हुआ है। उनमें से कुछ पुद्गल कर्मरूप से परिण मन के योग्य होते है और कुछ अयोग्य होते है ।
६५५. कर्मरूप में परिणमित होने के योग्य पुद्गल जीव के रागादि
(भावों) का निमित्त पाकर स्वय ही कर्मभाव को प्राप्त हो जाते है । जीव स्वय उन्हे (बलपूर्वक) कर्म के रूप में परिणमित
नहीं करता। ६५६. जीव अपने राग या द्वेपरूप जिस भाव से संपक्त होकर इन्द्रियों के
विषयो के रूप में आगत या ग्रहण किये गये पदार्थो को जानतादेखता है, उन्हीसे उपरक्त होता है और उसी उपरागवश
नवीन कर्मो का बन्ध करता है । ६५७ सभी जीवों के लिए संग्रह (बद्ध) करने के योग्य कर्म-पुद्गल
छहों दिशाओ मे सभी आकाशप्रदेशो मे विद्यमान है। वे सभी कर्म-पुद्गल आत्मा के सभी प्रदेशो के साथ बद्ध होते है ।
६५८ व्यक्ति सुख-दु.खरूप या शुभाशुभरूप जो भी कर्म करता है,
वह अपने उन कर्मों के साथ ही परभव मे जाता है ।
६५९. इस प्रकार कर्मो के रूप में परिणत वे पुद्गल-पिण्ड देह से
देहान्तर को-नवीन शरीररूप परिवर्तन को-प्राप्त होते रहते है। अर्थात् पूर्वबद्ध कर्म के फलरूप मे नया शरीर बनता है
और नये शरीर मे नवीन कर्म का बध होता है। इस तरह जीव निरन्तर विविध योनियो में परिभ्रमण करता रहता
१४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org