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ज्योतिर्मुख ८८. जो श्रमण कुल, रूप, जाति, ज्ञान, तप, श्रत और शील का
तनिक भी गर्व नहीं करता, उसके मादवधर्म होता है । ८५ जो दूसरे को अपमानित करने के दोष का सदा सावधानीपूर्वक
परिहार करता है, वही यथार्थ मे मानी है । गुणशून्य अभिमान
करने में कोई मानी नही होता । ९०. यह पुरुष अनेक बार उच्चगोत्र और अनेक वार नीचगोत्र का
अनुभव कर चुका है । अत न कोई हीन है और न कोई अतिरिक्त , (इसलिए वह उच्च गोत्र की) स्पृहा न करे । [यह पुरुप अनेक बार उच्चगोत्र और नीत्रगोत्र का अनभव कर चुका है---] यह जान लेने पर कौन गोरबादी होगा ?
कौन मानवादी होगा ? ९१. जो कुटिल विचार नहीं करता, कुटिल कार्य नहीं करता,
कुटिल वचन नही बोलता और अपने दोपो को नहीं छिपाता,
उसके आजव-धर्म होता है । ९० जो भिक्ष (श्रमण) दुमरों को मन्ताप पहचानेवाले वचनो का
त्याग करके स्व-पर-हितकारी बचन बोलता है, उसके चौथा
मत्यधर्म होता है। ९३ असत्य भाषण के पश्चात् मनुष्य यह सोचकर दुखी होता है कि
वह झूठ बोलकर भी सफल नही हो सका। असत्य भाषण से पूर्व इसलिए व्याकुल रहता है कि वह दूसरे को ठगने का सकल्प करता है। वह इसलिए भी दुखी रहता है कि कही कोई उसके असत्य को जान न ले। इस प्रकार असत्य-व्यवहार का अन्त दुखदायी ही होता है। इसी तरह विषयो म अतात
होकर वह चोरी करता हुआ दु.खी और आश्रयहीन हो जाता है । ९४ अपने गणवासी (साथी) द्वारा कही हुई हितकर बात, भले
ही वह मन को प्रिय न लगे, कटक औपध की भॉति परिणाम मे मधुर ही होती है।
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