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मोक्ष-मार्ग
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३७३ मैथुन-ससर्ग अधर्म का मूल है. महान् दोपो का समूह है।
इसलिए ब्रह्मचर्य-व्रती निर्ग्रन्थ साधु मैथुन-सेवन का सर्वथा त्याग करते है ।
३७४. वृद्धा, वालिका और युवती स्त्री के इन तीन प्रतिरूपों को देखकर
उन्हे माता, पुत्री और बहन के समान मानना तथा स्त्री-कथा से निवृत्त होना चौथा ब्रह्मचर्य-व्रत है। यह ब्रह्मचर्य तीनों लोकों
मे पूज्य है। ३७५ निरपेक्षभावनापूर्वक चारित्र का भार वहन करनेवाले साधु का
वा ह्याभ्यन्तर, सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करना. पाँचवाँ परिग्रह-त्याग नामक महाव्रत कहा जाता है।
३७६ जब भगवान् अरहतदेव ने मोक्षाभिलापी को 'शरीर भी परि
ग्रह है' कहकर देह की उपेक्षा करने का उपदेश दिया है, तब अन्य परिग्रह की तो बात ही क्या है।
३७७. (फिर भी) जो अनिवार्य है, असयमी जनों द्वारा अप्रार्थनीय है,
ममत्व आदि पैदा करनेवाली नहीं है ऐसी वस्तु ही साधु के लिए उपादेय है। इससे विपरीत अल्पतम परिग्रह भी उसके लिए
ग्राह्य नही है। ३७८. आहार अथवा विहार मे देश, काल, श्रम, अपनी सामर्थ्य तथा
उपाधि को जानकर श्रमण यदि बरतता है तो वह अल्पलेपी होता है, अर्थात् उसे अल्प ही वन्ध होता है ।
३७९. ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर ने (वस्तुगत) परिग्रह को परिग्रह
नही कहा है । उन महर्षि ने मूर्छा को ही परिग्रह कहा है ।
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