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मोक्ष-मार्ग
२९४. जो विविवत ( स्त्री आदि से रहित ) शय्यासन से नियंत्रित ( युक्त ) है, अल्प - आहारी है और दमितेन्द्रिय है, उसके चित्त को राग-द्वेषरूपी विकार पराजित नही कर सकते, जैसे औषधि से पराजित या विनष्ट व्याधि पुन. नहीं सताती ।
२९५. जब तक बुढापा नही सताता, जब तक व्याधियाँ (रोगादि ) नही बढती और इन्द्रियाँ अशक्त ( अक्षम ) नही हो जाती, तब तक ( यथाशक्ति ) धर्माचरण कर लेना चाहिए । ( क्योंकि बाद मे अशक्त एवं असमर्थ देहेन्द्रियों से धर्माचरण नही हो सकेगा 1 )
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२२. द्विविध धर्मसूत्र
२९६. जन्म-जरा-मरण से मुक्त जिनेन्द्रदेव ने इस लोक मे दो ही मार्ग बतलाये है- - एक है उत्तम श्रमणों का और दूसरा है उत्तम श्रावकों का ।
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२९७. श्रावक-धर्म मे दान और पूजा मुख्य है जिनके बिना श्रावक नही होता तथा श्रमण-धर्म मे ध्यान व अध्ययन मुख्य है, जिनके बिना श्रमण नही होता ।
२९८. यद्यपि शुद्धाचारी साधुजन सभी गृहस्थों से संयम मे श्रेष्ठ होते है, तथापि कुछ ( शिथिलाचारी ) भिक्षुओं की अपेक्षा गृहस्थ सयम मे श्रेष्ठ होते है ।
२९९. जो व्यक्ति मुण्डित ( प्रव्रजित ) होकर अनगारधर्म स्वीकार करने में असमर्थ होता है, वह जिनेन्द्रदेव द्वारा प्ररूपित श्रावकधर्म को अगीकार करता है ।
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