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मोक्ष-मार्ग
१४३ ४४५. अपने बल, तेज, श्रद्धा तथा आरोग्य का निरीक्षण करके तथा
क्षेत्र और काल को जानकर अपने को उपवास में नियुक्त करना चाहिए । (क्योंकि शक्ति में अधिक उपवास करने से हानि
होती है।) ४४६. सक्षेप गे इन्द्रियों के उपशमन को ही उपवास कहा गया है ।
अत. जितेन्द्रिय साधु भोजन करते हुए भी उपवासी ही होते है ।
४४७. अबहुश्रुत अर्थात् अज्ञानी तपस्वी की जितनी विशुद्धि दो-चार
दिनो के उपवास से होती है, उससे बहुत अधिक विशुद्धि नित्य भोजन करने वाले ज्ञानी की होती है।
४४८. जो जितना भोजन कर सकता है, उसमे से कम से कम एक
सिक्थ अर्थात् एक कण अथवा एक ग्रास आदि के रूप में कम भोजन करना द्रव्यरूपेण ऊनोदरी तप है।
४४९. आहार के लिए निकलनेवाले साधु का, वह वृत्तिपरिसख्यान
नामक तप है, जिसमे वह ग्रहण का प्रमाण करता है कि आज भिक्षा के लिए इतने घरों मे जाऊँगा, अमुक प्रकार के दाता द्वारा दिया गया अथवा अमुक प्रकार के बर्तन में रखा गया आहार ग्रहण करूँगा, अमुक प्रकार का जैसे मॉड, सत्तू आदि का भोजन मिलेगा तो करूँगा आदि-आदि ।
४५०. दूध, दही, घी आदि पौष्टिक भोजन-पान आदि के रसों के त्याग
को रस-परित्याग नामक तप कहा गया है ।
४५१. एकान्त, अनापात (जहाँ कोई आता-जाता न हो) तथा स्त्री
पुरुपादि से रहित स्थान मे शयन एव आसन ग्रहण करना, विधिवत-शयनासन (प्रतिसली.ता) नामक तप है ।
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