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ज्योतिर्मुख
३८. (किन्तु ) जैसे अनार्य पुरुष को अनार्य भाषा के बिना समझाना सम्भव नही है, वैसे ही व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश करना सम्भव नही है ।
३९. व्यवहार अभूतार्थ (असत्यार्थ ) है और निश्चय भूतार्थ ( सत्यार्थ ) है । भूतार्थ का आश्रय लेनेवाला जीव ही सम्यग्दृष्टि होता है ।
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४०. निश्चय का अवलम्बन करनेवाले कुछ जीव निश्चय को निश्चय से न जानने के कारण बाह्य आचरण में आलसी या स्वच्छन्द होकर चरण-करण ( आचार - क्रिया) का नाश कर देते है ।
४१. (ऐसे लोगों के लिए आचार्य कहते है कि - ) परमभाव के द्रष्टा जीवों के द्वारा शुद्ध वस्तु का कथन करनेवाला शुद्धनय ( निश्चयनय ) ही ज्ञातव्य है । किन्तु अपरमभाव में स्थित जनों को व्यवहारनय के द्वारा ही उपदेश करना उचित है ।
४२. निश्चय ही यह जानना कठिन है कि कौन श्रमण किस भाव में स्थित है । अतः जो पूर्व-चारित्र में स्थित है, उनका कृतिकर्म ( वन्दना ) व्यवहारनय के द्वारा चलता है ।
४३. अतः (समझना चाहिए कि ) अपने-अपने पक्ष का आग्रह रखनेवाले सभी नय मिथ्या है और परस्पर सापेक्ष होने पर वे ही सम्यक्भाव को प्राप्त हो जाते है ।
४४. ज्ञान आदि कार्य उत्सर्ग ( सामान्य विधि ) एवं अपवाद (विशेष विधि ) से सत्य होते हैं । वे इस तरह किये जायें कि सब कुछ सफल हो ।
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