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तत्त्व-दर्शन
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६२१. जिसे महर्षि ही प्राप्त करते हैं वह स्थान निर्वाण है, अबाध है, सिद्धि है, लोकाग्र है, क्षेम, शिव और अनाबाध है ।
६२२. जैसे मिट्टी से लिप्त तुम्बी जल में डूब जाती है और मिट्टी का लेप दूर होते ही ऊपर तैरने लग जाती है अथवा जैसे एरण्ड का फल धूप से सूखने पर फटता है तो उसके बीज ऊपर को ही जाते है अथवा जैसे अग्नि या धूम की गति स्वभावतः ऊपर की ओर होती है अथवा जैसे धनुप से छूटा हुआ बाण पूर्व - प्रयोग से गतिमान् होता है, वैसे ही सिद्ध जीवो की गति भी स्वभावत' ऊपर की ओर होती है ।
६२३. परमात्म-तत्त्व, अव्यावाध, अतीन्द्रिय, अनुपम, पुण्य-पापरहित, पुनरागमन रहित, नित्य, अचल और निरालम्ब होता है ।
३५. द्रव्य सूत्र
६२४. परमदर्शी जिनवरों ने लोक को धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव इस प्रकार छह द्रव्यात्मक कहा है ।
६२५. आकाश, काल, पुद्गल, धर्म और अधर्म द्रव्यों मे जीव के गुण नही होते, इसलिए इन्हें अजीव कहा गया है । जीव का गुण चेतनता है ।
६२६. आकाश, काल, जीव, धर्म और अधर्म द्रव्य अमूर्तिक है । पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है । इन सबमें केवल जीव द्रव्य ही चेतन है ।
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