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प्रकाश की य
'समणमुत्त' ग्रन्थ का प्रकाशन करते हुए सर्व सेवा सघ गौरव एवं प्रसन्नता का अनुभव कर रहा है।
धर्म के अनन्त रूप है । शब्दी मे इन रूपो को बाँधा नही जा सकता। महापुरुपो तथा विचारक मनीषियों ने देश, काल, परिस्थिति के अनुसार अनन्त का अनन्तवाँ अ ही प्रकट किया है। महापुरषो का दर्शन सकुचित नही होता, परन्तु अर्थग्रहण की सीमाओ
शाभिनिवेश की नीव पडती है और इसी में से विविध मतवादो का उद्भव हो जाता है । निष्पक्षभाव से विश्व के सब धर्मो का गहराई से अध्ययन किया जाय तो ज्ञात हो सकता है कि महापुरषो की वाणी का अमुक-अमुक अश उस-उस देश, काल, परिस्थिति के स्तर-भेद तथा भूमिका भेद का सूचक है । जैसे-
१ सामान्य व्यक्ति की सर्वप्रथम भूमिका चार्वाक भौतिक दर्शन की ही रहती है । क्योकि सुख की आकाक्षा सब मनुष्यों में समान है ।
२ व्यापक सुख की आकाक्षा भौतिक स्तर पर पूरी होना संभव नही है इसका दर्शन जिन्हें हुआ, उन्होंने विश्व की व्यवस्था का स्वरूप जान लेने का प्रयास किया । विश्व- समस्या के मूल मे कुछ विशिष्ट मूल द्रव्य है । इन मूल द्रव्यो और उनके पारस्परिक सबधो की जानकारी पर ही व्यापक सुख निर्भर है । यही न्याय और वैशेषिक दर्शन की बुनियाद है ।
३ इससे भी सुख और समाधान अपूर्ण ही रहता है, ऐसा जिनको अनुभव हुआ वे और भी गहरे उतरे । साख्य, पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमासा याने वेदान्त इसी अनुसन्धान की निष्पत्ति है। जैन तथा बौद्ध दर्शन भी इसी परम्परा मे आते हैं । इन सारे दर्शनो का सार यह है कि विश्व की विविधता तथा विभिन्नता का आधार एक ही विभु-सत्ता है ।
४ इस विभुसत्ता के प्रत्यक्ष दर्शन तथा उसे जीवन में प्रकाशित देखने के शोध में लगनेवाले लोगो ने योग दर्शन को साकार किया । उसमें से निष्कर्ष यह निकला कि योगानुशासन के बिना मानव और विश्व के अस्तित्वगत सबंध का न ज्ञान होगा और न जीवनव्यवहार ही फलित होगा । इसलिए बौद्धदर्शन में कहा गया है कि जीवन का यथार्थ दर्शन प्रज्ञा और उपाय के सामरस्य (हार्मनी) पर ही निर्भर है । चाहे जैन हो या बौद्ध, सांख्य हो या वेदान्त, इन सब दार्शनिक निष्ठाओ में योगानुशासन को ही प्राथमिक महत्त्व दिया जाता है । यही भारत की संस्कृति में आत्मदर्शन तथा विश्वदर्शन का अनुभव- सिद्ध मार्ग कहा गया है ।
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