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मोक्ष-मार्ग
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५१४. (वास्तव में.) रत्नत्रय से सम्पन्न जीव ही उत्तम तीर्थ (तट) है,
क्योकि वह रत्नत्रयरूपी दिव्य नौका द्वारा संसार-सागर से पार करता है।
५१५. यहाँ प्रत्येक जीव अपने-अपने कर्मफल को अकेला ही भोगता है।
ऐसी स्थिति मे यहाँ कौन किसका स्वजन है और कोन किसका परजन ?
५१६. ज्ञान और दर्शन से संयुक्त मेरी एक आत्मा ही शाश्वत है । शेष
सब अर्थात् देह तथा रागादि भाव तो संयोगलक्षणवाले है-उनके साथ मेरा संयोगसम्बन्ध मात्र है । वे मुझसे अन्य ही है।
५१७. इस संयोग के कारण ही जीव दुःखों की परम्परा को प्राप्त
हुआ है। अतः सम्पूर्णभाव से मै इस संयोग-सम्बन्ध का त्याग करता हूँ।
५१८. अज्ञानी मनुष्य अन्य भवों में गये हए दूसरे लोगों के लिए तो शोक
करता है, किन्तु भव-सागर मे कष्ट भोगनेवाली अपनी आत्मा की चिन्ता नहीं करता !
५१९. जो शरीर को जीव के स्वरूप से तत्त्वतः भिन्न जानकर आत्मा का
अनुचिन्तन करता है, उसकी अन्यत्व भावना कार्यकारी है ।
५२०. मांस और हड्डी के मेल से निर्मित, मल-मूत्र से भरे, नौ छिद्रों के
द्वारा अशुचि पदार्थ को बहानेवाले शरीर मे क्या मुख हो सकता है ?
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