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ज्योतिर्मुख
२७ ७५ सम्यक्त्व तथा चारित्रादि गुणो के विनाशक, अत्यन्त भयकर
राग-द्वेषरूपी पापो के वश मे नही होना चाहिए।
७६. सब जीवों का, और क्या देवताओं का भी जो कुछ कायिक
और मानसिक दु.ख है, वह काम-भोगो की सतत अभिलाषा से उत्पन्न होता है। वीतरागी उस दु ख का अन्त पा जाता है ।
७७ जिससे विराग उत्पन्न होता है, उसका आदरपूर्वक आचरण
करना चाहिए। विरक्त व्यवित ससार-बन्धन से छूट जाता है और आसक्त व्यक्ति का ससार अनन्त होता जाता है ।
७८. अपने राग-द्वेपात्मक संकल्प-विकल्प ही सब दोषो के मूल है--जो
इस प्रकार के चिन्तन मे उद्यत होता है तथा इन्द्रिय-विषय टोपों के मल नही है---इस प्रकार का सकरप करता है, उसके मन म समता उत्पन्न होती है। उससे उसकी काम-गणो म
- 'नेवाली तृष्णा प्रक्षीण हो जाती है ! ७५ निश्चयदृष्टि के अनसार शरीर भिन्न है और जात्मा भिन्न है।
अत शरीर के प्रति होनेवाले दुखद व क्लेशकर ममत्व का छेदन करो।
८०. मोक्ष की प्राप्ति के लिए कर्म के आगमन द्वारों--आस्रवो का
तथा इन्द्रियों का तीन करण (मनसा, वाचा, कर्मणा) और तीन योग (कृत, कारित, अनुमति) से निरोध करो, और
कषायों का अन्त करो। ८१. भाव से विरक्त मनप्य शोक-मक्त बन जाता है। जैसे कमलिनी
का पत्र जल मे लिप्त नहीं होता, वैसे ही वह समार मे रहकर भी अनेक दु खो की परम्परा से लिप्त नहीं होता।
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