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मोक्ष-मार्ग
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२१७. (इम दृष्टि से) आत्मा मे लीन आत्मा ही सम्यग्दृष्टि होता
है । जो आत्मा को यथार्थरूप में जानता है वही सम्यग्ज्ञान है, और उसमे स्थित रहना ही सम्यक्चारित्र है।
२१८. आत्मा ही मेरा ज्ञान है। आत्मा ही दर्शन और चारित्र है।
आत्मा ही प्रत्याख्यान है और आत्मा ही संयम और योग है। अर्थात् ये सव आत्मरूप ही हैं।
१८. सम्यग्दर्शनसूत्र (अ) व्यवहार-सम्यक्त्व : निश्चय-सम्यक्त्व २१९. रत्नत्रय में सम्यग्दर्शन ही श्रेष्ठ है और इसीको मोक्षरूपी
महावृक्ष का मूल कहा गया है। यह निश्चय और व्यवहार के रूप में दो प्रकार का है।
२२०. व्यवहारनय से जीवादि तत्वों के श्रद्धान को जिनदेव ने
सम्यक्त्व कहा है। निश्चय से तो आत्मा ही सम्यग्दर्शन है।
२२१. (अथवा) निश्चय से जो मौन है वही सम्यग्दर्शन है और जो
सम्यग्दर्शन है वही मौन है। व्यवहार से जो निश्चय-सम्यग्दर्शन के हेतु है, वे भी सम्यग्दर्शन है।
२२२. सम्यक्त्वविहीन व्यक्ति हजारों-करोड़ वर्षों तक भलीभांति
उग्र तप करने पर भी बोधिलाभ प्राप्त नहीं करता ।
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