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६४-६५ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय- -ये सक्षेप मे आठ कर्म है ।
ज्योतिर्मुख
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६६. इन कर्मो का स्वभाव परदा, द्वारपाल, तलवार, मद्य, हलि चित्रकार, कुम्भकार तथा भण्डारी के स्वभाव की तरह है।
७. मिथ्यात्वसूत्र
६७ हा ! खेद है कि सुगति का मार्ग न जानने के कारण मै मूढमति भयानक तथा घोर भव-वन मे चिरकाल तक भ्रमण करता रहा ।
६८ जो जीव मिथ्यात्व से ग्रस्त होता है उसकी दृष्टि विपरीत हो जाती है । उसे धर्म भी रुचिकर नहीं लगता, जैसे ज्वरग्रस्त मनुष्य को मीठा रस भी अच्छा नही लगता ।
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अपने स्वरूप को भूल जाता है । ५ जैसे हथि (काठ) में पाँव फँसा देने पर मनुष्य रुका रह जाता है, वैसे ही आयु कर्म के उदय में जीव शरीर मे निश्चित समय तक रुका रहता है । ६ जैसे चित्रकार नाना प्रकार के चित्र बनाता है, वैसे ही नाम-कर्म के उदय से जीवो के - नानाविध देहो की रचना होती है । ७ जैसे कुम्भकार छोटे-बडे बर्तन बनाता है, वैसे ही गोवन्दर्भ के उदय से जीव को उच्चकुल या नीचकुल मिलता है । ८ जैसे भण्डारी (जाची ) दाता को देने से आर याचक को लेने से रोकना है, वैसे ही अन्तराय - कर्म के उदय से दान-लाभ आदि में वाधा पटती है। इस तरह य आठ कर्मो के स्वभाव है ।
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