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मोक्ष-मार्ग
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४३२. वचन- रचना मात्र को त्यागकर जो माधु रागादि भावों को दूर कर आत्मा को ध्याता है, उसीके ( पारमार्थिक ) प्रतिक्रमण होता है ।
४३३. ध्यान मे लीन साधु सब दोषों का परित्याग करता है । इसलिए ध्यान ही समस्त अतिचारों (दोषों) का प्रतिक्रमण है ।
४३४. दिन, रात, पक्ष, मास, चतुर्मास आदि में किये जानेवाले प्रतिक्रमण आदि शास्त्रोक्त नियमों के अनुसार सत्ताईस श्वासो - च्छ्वास तक अथवा उपयुक्त काल तक जिनेन्द्रभगवान् के गुणों का चितवन करते हुए शरीर का ममत्व त्याग देना कायोत्सर्ग नामक आवश्यक है ।
४३५. कायोत्सर्ग मे स्थित साधु देवकृत, मनुष्यकृत, तिर्यञ्चकृत तथा अचेतनकृत ( प्राकृतिक, आकस्मिक) होनेवाले समस्त उपसर्गों ( बाधाओं, आपत्तियों) को समभावपूर्वक सहन करता है ।
४३६. समस्त वाचनिक विकल्पों का त्याग करके तथा अनागत शुभाशुभ का निवारण करके जो साधु आत्मा को ध्याता है, उसके प्रत्याख्यान नामक आवश्यक होता है ।
४३७. जो निज-भाव को नही छोड़ता और किसी भी पर-भाव को ग्रहण नही करता तथा जो सबका ज्ञाता - द्रष्टा है, वह (परमतत्त्व) 'मैं' ही हूँ । आत्मध्यान मे लीन ज्ञानी ऐसा चिन्तन करता है ।
४३८. ( वह ऐसा भी विचार करता है कि - ) जो कुछ भी मेरा दुश्चरित्र है, उस सबको मैं मन वचन कायपूर्वक तजता हूँ और निर्विकल्प होकर त्रिविध सामायिक करता हूँ ।
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