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स्याद्वाद
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(जा) प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रमाण ६८५ जो ज्ञान वस्तु-स्वभाव को--यथार्थस्वरूप को-सम्यकप से
जानता है, उसे प्रमाण कहते है । इसके दो भेद है--प्रत्यक्ष
और परोक्ष । ८८६ जीव को 'अक्ष' कहते है। यह शब्द 'अशु व्याप्तौ' धातु से बना
है। जो ज्ञानरूप में समस्त पदार्थो में व्याप्त है, वह अक्ष अर्थात् जीव है । 'अक्ष' शब्द की व्युत्पत्ति भोजन के अर्थ में 'अम्' धातु से भी को जा सकती है। जो तीनों लोक की समस्त समृद्धि आदि को भोगता है वह अक्ष अर्थात् जोव है। इस तरह दोनों व्युत्पत्तियो से (अर्थव्यापन व भोजनगुण से) जीव का अक्ष अर्थ सिद्ध होता है । उस अक्ष से होनेवाला ज्ञान प्रत्यक्ष
कहलाता है। इसके तीन भेद है---अवधि, मन.पर्यय और केवल । ६८७. पौदगलिक होने के कारण द्रव्येन्द्रियाँ और मन 'अक्ष' अर्थात
जीव से 'पर' (भिन्न ) है । अत. उनसे होनेवाला ज्ञान परोक्ष कहलाता है। जैसे अनुमान में धूम से अग्नि का ज्ञान होता है,
वैसे ही परोक्षज्ञान भी 'पर' के निमित्त से होता है। ६८८. जीव के मति और श्रुत-ज्ञान परनिमित्तक होने के कारण परोक्ष
है । अथवा अनुमान की तरह पहले से उपलब्ध अर्थ के स्मरण
द्वारा होने के कारण भी वे परनिमित्तक है । ६८९. धूम आदि लिग से होनेवाला श्रुतज्ञान तो एकान्तरूप से परोक्ष ही
है। अवधि, मन.पर्यय और केवल ये तीनों ज्ञान एकान्तरूप से प्रत्यक्ष ही है । किन्तु इन्द्रिय और मन से होनेवाला मतिज्ञान लोकव्यवहार में प्रत्यक्ष माना जाता है। इसलिए वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहलाता है।
३९. नयसूत्र ६९०. श्रुतज्ञान के आश्रय से यवत वस्तु के अंश को ग्रहण करनेवाले
ज्ञानी के विकल्प को 'नय' कहते है। उस ज्ञान से जो युक्त है,
वही ज्ञानी है। * परनिमित्तक = मन और इन्द्रियो की सहायता से होनेवाला ज्ञान ।
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