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मोक्ष-मार्ग
२४९ (किन्तु) सम्यक्त्वरूपी रत्न से शून्य अनेक प्रकार के शास्त्रों
के ज्ञाता व्यक्ति भी आराधनाविहीन होने से ससार में अर्थात् नरकादिक गतियों में भ्रमण करते रहते है।
२५०-२५१ जिस व्यक्ति मे परमाणुभर भी रागादि भाव विद्यमान है,
वह समस्त आगम का ज्ञाता होते हुए भी आत्मा को नही जानता। आत्मा को न जानने से अनात्मा को भी नही जानता। इस तरह जब वह जीव-अजीव तत्त्व को नही जानता, तब वह सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है ?
२५२. जिससे तत्त्व का ज्ञान होता है, चित्त का निरोध होता है तथा
आत्मा विशुद्ध होती है, उसीको जिनशासन मे ज्ञान कहा गया है।
२५३ जिससे जीव राग-विमुख होता है, श्रेय मे अनुरक्त होता है
और जिससे मैत्रीभाव प्रभावित होता (बढता) है, उसीको जिनशासन मे ज्ञान कहा गया है ।
२५४. जो आत्मा को अबद्धस्पृष्ट (देहकर्मातीत) अनन्य (अन्य से
रहित), अविशेष (विशेष से रहित) तथा आदि-मध्य और अन्तविहीन (निर्विकल्प) देखता है, वही समग्र जिनशासन
को देखता है। २५५. जो आत्मा को इस अपवित्र शरीर से तत्त्वत भिन्न तथा ज्ञायक
भावरूप जानता है, वही समस्त शास्त्रों को जानता है ।
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