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मत्तं
कृष्ण-लेश्या - तीन अशुभ लेश्याओं में से प्रथम या तीव्रतम (५३४, ५३९ ) केवलज्ञान - इन्द्रिय आदि से निरपेक्ष तथा सर्वग्राही आत्मज्ञान ( ६८४, ६८९ ) केवलदर्शन - केवलज्ञानवत् रुग्राही दर्शन (६२० )
केवललब्धि - केवलज्ञान की भाँति अर्हन्तो तथा सिद्धो की नव लब्धियाँ - अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त सम्यवत्व, अनन्तचारित्र या सुख । तथा अनन्त दान, लाभ, भोग, उपभोग तथा वीर्य (५६२) केवलवीर्य - केवलज्ञानवत् जानने-देखने आदि
की अनन्तशक्ति ( ६२० ) केवलसुख- केवलज्ञानवत् इन्द्रियादि से निरपेक्ष अनन्तसुख या निराकुल आनन्द (६२० )
केवली - केवलज्ञान दर्शन आदि शक्तियो से सम्पन्न अर्हन्त परमेष्ठी (५६२-५६३) क्षपक- कषायो का क्षपण करनेवाला
साधक (५५५) क्षपण-ध्यान आदि के द्वारा कषायो को समूल नष्ट कर देना, जिससे वे पुन न उभरे (५५७)
क्षमा-दस धर्मो में से एक (८५, १३५) क्षीणकषाय-साधक की १२वी भूमि,
जिसमें कषायों का समूल नाश हो जाता है । (५६१) क्षीणमोह-क्षीणकषाय गुणस्थान का दूसरा
नाम ।
खेचर - विद्या के बल से आकाश मे विचरण करने में समर्थ मनुष्यों की एक जातिविशेष, विद्याधर ( २०४) खरकर्म-कोयला बनाना, पशुओ के द्वारा बोझ दुलाई इत्यादि ऐसे व्यापार जो
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प्राणियों को पीडा पहुँचें विना हो नही सकते । (३२५)
गच्छ-तीन से अधिक पुरुषो या साधुओं का समूह (२६)
गण - तीन पुरुषो या साधुओ का समूह अथवा स्थविर साधुओ की परम्परा (२६)
गणधर - तीर्थकर के साधु-गण के नायक, जो अर्हन्तोपदिष्ट ज्ञान को शब्दबद्ध करते है (१९)
गति - भव से भवान्तर की प्राप्तिरूप चार गतियाँ - नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य तथा देव (५२)
गर्हण - रागादि का त्याग कर गुरु के समक्ष
कृत दोपो को प्रकट करना ( ४३० ) गुण-द्रव्य के सम्पूर्ण प्रदेशो में तथा उसकी
समस्त पर्यायो में व्याप्त धर्म । जैसे मनुष्य में ज्ञान तथा आम्रफल में रस (६६१)
गुणव्रत - श्रावक के पाँच अणुव्रतो में वृद्धि करनेवाले दिक्, देश तथा अनर्थदण्ड नामक तीन व्रत ( ३१८)
गुणस्थान - कर्मो के उदयादि के कारण होनेवाली साधक की उत्तरोत्तर उन्नत १४ भूमिकाएँ (५४६ - ५४८ ) ( विशेष दे० सूत्र ३२)
गुप्ति समितियो में सहायक मानसिक वाचनिक तथा कायिक प्रवृत्तियों का गोपन ( ३८४, ३८६ ) ( विशेष दे० सूत्र २६-इ)
गुरु- सम्यक्त्वादि गुणो के द्वारा महान होने के कारण अर्हन्त सिद्ध आदि पच परमेष्ठी (६)
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