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तत्व-दर्शन
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५९.४. अजीवद्रव्य पाँच प्रकार का है~-पुद्गल, धर्मद्रव्य, अधर्म
द्रव्य, आकाश और काल । इनमे से पुद्गल रूपादि गुण युक्त होने से मूर्तिक है। शेष चारों अमूर्तिक है ।
५९५. आत्मा (जीव) अमूर्त है, अतः वह इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य नही
है । तथा अमूर्त पदार्थ नित्य होता है। आत्मा के आन्तरिक रागादि भाव ही निश्चयतः बन्ध के कारण है और बन्ध को
संसार का हेतु कहा गया है । ५९६. रागयुक्त ही कर्मबन्ध करता है। रागरहित आत्मा कर्मो से
मुक्त होती है। यह निश्चय से संक्षेप मे जीवों के बन्ध का कथन है।
५९७. इसलिए मोक्षाभिलाषी को तनिक भी राग नही करना चाहिए ।
ऐसा करने से वह वीतराग होकर भवसागर को तैर जाता है ।
५९८. कर्म दो प्रकार का है--पुण्यरूप और पापरूप। पुण्यकर्म के बन्ध
का हेतु स्वच्छ या शुभभाव है और पापकर्म के बन्ध का हेतु अस्वच्छ या अशुभ भाव है। मन्दकषायी जीव स्वच्छभाववाले
होते है तथा तीव्रकषायी जीव अस्वच्छभाववाले । ५९९. सर्वत्र ही प्रिय वचन बोलना, दुर्वचन बोलनेवाले को भी क्षमा
करना तथा सबके गुणों को ग्रहण करना--ये मन्दकषायी जीवों के लक्षण है।
६००. अपनी प्रशंसा करना, पूज्य पुरुषों मे भी दोष निकालने का
स्वभाव होना, दीर्घकाल तक वैर की गाँठ को बाँधे रखना--ये तीव्रकषायवाले जीवों के लक्षण है।
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