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स्याद्वाद
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७३३. संसार में ऐसे बहुत से पदार्थ है जो अनभिलाप्य है । शब्दों द्वारा उनका वर्णन नही किया जा सकता । ऐसे पदार्थो का अनन्तवाँ भाग ही प्रज्ञापनीय ( कहने योग्य) होता है । इन प्रज्ञापनीय पदार्थों का भी अनन्तवाँ भाग ही शास्त्रों में निबद्ध है । [ ऐसी स्थिति में कैसे कहा जा सकता है कि अमुक शास्त्र की बात या अमुक ज्ञानी की बात ही निरपेक्ष सत्य है ।] ७३४. इसलिए जो पुरुष केवल अपने मत की प्रशंसा करते है तथा दूसरे के वचनो की निन्दा करते है और इस तरह अपना पांडित्यप्रदर्शन करते है, वे संसार मे मजबूती से जकड़े हुए है--दृढ़रूप में आवद्ध है ।
७३५. इस संसार मे नाना प्रकार के जीव है, नाना प्रकार के कर्म है, नाना प्रकार की लब्धियाँ है, इसलिए कोई स्वधर्मी हो या परधर्मी, किसीके भी साथ वचन-विवाद करना उचित नहीं ।
७३६. मिध्यादर्शनों के समूहरूप, अमृतरस-प्रदायी और अनायास मुमुक्षुओ की समझ मे आनेवाले वन्दनीय जिनवचन का कल्याण हो ।
४२. निक्षेपसूत्र
७३७. युक्तिपूर्वक, उपयुक्त मार्ग मे प्रयोजनवश नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव मे पदार्थ की स्थापना को आगम में निक्षेप कहा गया है ।
७३८. द्रव्य विविध स्वभाववाला है । उनमें से जिस स्वभाव के द्वारा वह ध्येय या ज्ञेय (ध्यान या ज्ञान ) का विषय होता है उस स्वभाव के निमित्त एक ही द्रव्य के ये चार भेद किये गये है ।
७३९. और (इसीलिए ) निक्षेप चार प्रकार का माना गया है -- नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य की संज्ञा को नाम कहते हैं । उसके भी दो भेद प्रसिद्ध है ।
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