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मोक्ष-मार्ग
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३६० (वास्तव मे) भाव ही प्रथम या मुख्य लिग है। द्रव्य लिग
परमार्थ नहीं है, क्योकि भाव को ही जिनदेव गुण-दोपो का कारण कहते है।
३६१ भावो की विशुद्धि के लिए ही वाह्य परिग्रह का त्याग किया
जाता है। जिसके भीतर परिग्रह की वासना है उसका वाद्य त्याग निष्फल है।
३६२ अशुद्ध परिणामो के रहते हुए भी यदि वाह्य परिग्रह का त्याग
करता है तो आत्म-भावना से शुन्य उसका बाह्य त्याग क्या हित कर सकता है ?
३६३. जो देह आदि की ममता से रहित है, मान आदि कपायो से
पूरी तरह मुक्त है तथा जो अपनी आत्मा में ही लीन है, वहीं साधु भालिगी है।
२५. व्रतसूत्र ३६४. अहिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रहचर्य और अपरिग्रह इन पाँच महा
व्रतो को स्वीकार करके विद्वान् मुनि जिनोपदिष्ट धर्म का आचरण कर।
३६५. नि शल्य व्रती के ही ये सब महावत होते है। क्योकि निदान,
मिथ्यात्व और माया--इन तीन शल्यो से ब्रतों का घात होता है।
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