Book Title: Prakrit Kavya Manjari
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Catalog link: https://jainqq.org/explore/003806/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 凱創國凯凯 प्राकृत काव्य-मंजरी डा. प्रेम सुमन जैन 凯凯凯凯凯凯 國凯凯凯凯凯 凯凯凯凯凯凯 凯凯凯凯entername TMTM प्राकृत भारती जयपुर nucatie Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भारती पुष्प-१३ प्राकृत काव्य-मंजरी लेखक एवं सम्पादक डॉ० प्रेम सुमन जैन सह-आचार्य एवं अध्यक्ष जैनविद्या एवं प्राकृत विभाग उदयपुर विश्वविद्यालय झा राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान जयपुर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: देवेन्द्रराज मेहता सचिव, राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर प्रथम संस्करण 1982 मूल्य: १६-०० रुपये सर्वाधिकार प्रकाशकाधीन . प्राप्ति स्थान : राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान यति श्यामलालजी का उपाश्रय मोतीसिंह भोमियों का रास्ता जयपुर-302 003 [राजस्थान] मुद्रक : ऋषभ मुद्रणालय धानमण्डी, उदयपुर PRAKRIT KAVYA-MANJARI (Grammar & Text Book) by Prem Suman Jain/Jaipur/1982 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय प्राकृत भाषा एवं साहित्य के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रकाशन एवं प्राकृत भाषा का प्रचार तथा प्रसार करना प्राकृत भारती संस्थान के प्रमुख कार्य हैं। इसी दिशा में संस्थान से डॉ. प्रेम सुमन जैन द्वारा लिखित 'प्राकृत स्वयं-शिक्षक खण्ड १'नामक पुस्तक 1979 में प्रकाशित की गयी थी। 1982 में इस पुस्तक का पुनर्मुद्रित संस्करण भी निकल चुका है । यह पुस्तक प्राकृत के जिज्ञासु पाठकों और विश्वविद्यालयों में समादृत हुई है। संस्थान का उद्देश्य है कि प्राकृत का शिक्षण स्कूली शिक्षा से भी प्रारम्भ हो। संयोग से माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, अजमेर ने प्राकृत भाषा को वैकल्पिक विषय के रूप में अपने सैकण्डरी पाठ्यक्रम में स्वीकृत किया है। इस पाठ्यक्रम के अनुसार विद्यार्थियों को प्राकृत की पुस्तके उपलब्ध हो सकें इसके लिए इस संस्थान ने डॉ. प्रेम सुमन जैन से 'प्राकृत काव्य-मंजरी' एव 'प्राकृत गद्य-सोपान' ये दो पुस्तकें तैयार कर देने का आग्रह किया था। हमें प्रसन्नता है कि डॉ. जन की प्राकृत काव्य-मंजरी हम पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं। प्राकृत काव्य-मंजरी अजमेर बोर्ड के कक्षा 9 एवं 10 के प्राकृत-पाठ्यक्रम के अनुसार तो है ही, साथ ही यह प्राकृत का शिक्षण करने-कराने वाले किसी भी सस्थान अथवा परीक्षा बोर्ड के लिए भी उपयोगी पुस्तक सिद्ध होगी। एक ओर यह पुस्तक प्राकृत भाषा एवं काव्य साहित्य का ज्ञान कराती है तो दूसरी ओर इसके विषय विद्यार्थियों में नैतिक आचरण एवं अनुशासित जीवन की प्रेरणा भी प्रदान करते हैं । अत यह पुस्तक प्रत्येक प्राकृत-प्रेमी के लिए ग्राह्य और उपयोगी होगी, ऐसा हमारा विश्वास है । प्राकृत के प्रचार-प्रसार की दिशा में इस पुस्तक के लेखक व सम्पादक डॉ. प्रेम सुमन जैन जो प्रयत्न कर रहे हैं. उसके लिए उन्हें बधाई है। प्रस्तुत पुस्तक के मुद्रण में भी लेखक ने जो श्रम किया है, उसके लिए संस्थान उनका आभारी है । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक के इस प्रकाशन-कार्य में संस्थान के संयुक्त सचिव एवं जैन साहित्य के मनीषी महोपाध्याय श्री विनय सागर जी ने जो प्रयत्न किया है, उसके लिए संस्थान उनका भी प्राभारी है। पुस्तक के शीघ्र एवं सुन्दर मुद्रण-कार्य हेतु संस्थान ऋषभ मुद्रणालय, उदयपुर के प्रति धन्यवाद ज्ञापन करता है । देवेन्द्रराज मेहता सचिव राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान जयपुर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना प्राकृत भाषा एवं साहित्य का पठन-पाठन कुछ वर्षों से विश्वविद्यालयों एवं विद्यालयों में भी प्रारम्भ हुप्रा है। सामाजिक संस्थानों के परीक्षा-बोर्डो में भी प्राकृत का शिक्षण एक प्रमुख विषय है। किंतु प्राकृत सीखने के लिये प्रारम्भिक स्तर पर आधुनिक शैली की प्राकृत की कोई पाठ्यपुस्तक उपलब्ध नहीं थी । विद्वानों ने कुछ पुस्तकें बहुत पहले तैयार की थीं। वे अप्राप्य हो गयी थीं। अत: इस आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए प्राकृत पद्य एव गद्य की दो पाठ्यपुस्तकें तैयार करने की योजना बनायी गयी। इसी बीच में राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, अजमेर की प्राकृत-पाठ्यक्रम समिति ने कक्षा ६ एवं १० के लिए प्राकृत का एक पाठ्यक्रम तैयार किया । बोर्ड ने उसे राजस्थान के स्कूलों में लागू करने के लिए अपनी अनुशंसा की है । आशा है कि शीघ्र ही प्राकृत विषय माध्यमिक स्तर पर प्रारम्भ किया जा सकेगा। बोर्ड के इस प्राकृत के पाठ्यक्रम को ध्यान में रखते हुए हमने प्राकृत काव्य-मंजरी एवं प्राकृत गद्य-सोपान ये दो पुस्तकें तैयार की हैं। उनमें से प्रथम पुस्तक पाठकों के हाथों में है । प्रस्तुतिकरण • इस प्राकृत काव्य-मंजरी में प्राकृत के प्रतिनिधि पद्याथों में से सामग्री का चयन नबीनता, स्तर की अनुकूलता एवं विषम वैविध्य की दृष्टि से किया गया है । • पद्य के पाठ ऐसे चुने गये हैं, जो कि सरल, सार्वभौमिक, और शिक्षा-परक हैं। उनसे विद्यार्थियों के सदाचरण के निर्माण में मदद मिलती है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • प्राकृत साहित्य कथानों का भण्डार है । अतः प्रस्तुत संकलन में अधिकांश कथात्मक पद्यांश चुने गये हैं । कुछ मुक्तक-काव्य दिये गये हैं तथा राजस्थान के प्राकृत के शिलालेख से भी विद्यार्थियों को परिचित कराया गया है। • प्रत्येक पाठ के प्रारम्भ में पाठ-परिचय में ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार के सम्बन्ध में ववरण देकर पाठ की विषयवस्तु को स्पष्ट किया गया है । • प्राकृत-शिक्षण की यह प्रारम्भिक पुस्तक होने के कारण प्रारम्भ में प्राकृतव्याकरण को अभ्यास के द्वारा समझाया गया है । • व्याकरण-ज्ञान के नियम अभ्यास के बाद दिये गये हैं, ताकि विद्यार्थियों में रटवे की प्रवृत्ति के स्थान पर प्रयोग की प्रवृित्त विकसित हो सके। ० कारकों (विभक्तियों) का ज्ञान कराने के लिये प्राकृत-गद्य में छोटे-छोटे पाठ तैयार कर दिये गये हैं । इन पाठों से विद्यार्थी विभक्ति-ज्ञान के साथ-साथ दैनिक व्यवहार के प्राचरण से भी परिचित हो सकेंगे। • संधि-समास, कृदन्त, सामान्य कर्मणि-प्रयोगों के लिए अलग पाठ दिये गये हैं । • मूल-पाठों (११ से ३१) के साथ अभ्यास में व्याकरण ज्ञान के साथ वस्तुनिष्ठ, लघुत्तरात्मक एवं निबन्धात्मक प्रश्न देकर विद्यार्थियों की बुद्धि-परीक्षण का प्रयत्न किया गया है। • प्राकृत भाषा एवं प्राकृत काव्य-साहित्य के इतिहास की जानकारी के लिये संक्षेप में मूल पाठों के बाद एक विवरण दे दिया गया है । • उसके के बाद परिशिष्ट में सर्वनाम, संज्ञा, क्रिया एवं कृदन्त की चारिकाए दी गयी हैं। • प्राकृत पाठों का अर्थ स्वतन्त्र रूप से और सही किया जाय इस दृष्टि से पाठों का हिन्दी अनुवाद भी दे दिया गया है। प्राकृत के शब्दकोश एव अन्य सहायक-सामग्री उपलब्ध न होने से यह अनुवाद विद्यार्थी एव शिक्षक दोनों के लिए उपयोगी होगा । अनुवाद को मूलानुगामी बनाने का प्रयत्न किया गया है। अन्य शब्द कोष्ठक में दे दिये गये हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • पुस्तक के अन्त में कुछ अपठित पद्यांश भी दे दिये गये हैं, जो विद्यार्थियों के प्राकृत के ज्ञान-परीक्षण के लिए उपयोगी हैं । इस तरह 'प्राकृत काव्य-मंजरी' को सरल, रोचक और विषय की दृष्टि से ज्ञानवर्द्धक बनाने का प्रयास किया गया है। यह पुस्तक अजमेर बोर्ड के प्राकृत पाठ्यक्रम की आवश्यकता की तो पूर्ति करती ही है। किंतु इसे अन्य परीक्षा बोर्डी मैं भी प्राकृत शिक्षण के लिए निर्धारित किया जा सकता है। पुस्तक के कुछ पाठों में प्रर्धमागधी एवं शौरसेनी प्राकृत के भी प्रयोग हैं । शब्दरूपों आदि में वैकल्पिक प्रयोग भी हुए हैं। प्राकृत शिलालेख के मौलिक स्वरूप को सुरक्षित रखने की दृष्टि से उसके अशुद्ध पाठ को यथावत रखा है । कुछ मुद्रण की भी पशुद्धियां सावधानी रखते हुए भी रह गयी हैं। इन सब समस्यामों का हल और अशुद्धियों का संशोधन शिक्षक अपने विवेक और प्राकृत-व्याकरण के उपयोग से केरके विद्यार्थियों का मार्गदर्शन करेंगे, ऐमी उनसे अपेक्षा की जाती है । प्राभार प्राकृत काव्य-मंजरी में जिन ग्रन्थकारों,सम्पादकों एवं ग्रंथों से मूल पाठ्य सामग्री ली गई है, उनका यनास्थान संदर्भ दिया गया है। इन सब प्राचीन एवं नवीन ग्रन्थकारों एवं सम्पादकों का लेखक आभारी है । पुस्तक को तैयार करने की रूपरेखा बनाने में प्रारम्भ से अन्त तक उदयपुर विश्वविद्यालय में दर्शन के प्रोफेसर एवं प्राकृत के विद्वानडा. कमल चन्द सोगारणी का जो मार्ग-दर्शन प्राप्त रहा है, उसके लिए मैं प्रत्यन्त आभारी हूँ। गुजरात विश्वविद्यालय में पालि एवं प्राकृत विभाग के अध्यक्ष मेरे मित्र डॉ. के. आर. चन्द्रा एवं संस्कृत विश्वविद्यालय, वारपसी के प्राकृत एव जैनागम विभाग के अध्यक्ष डॉ गोकूलचन्द्र जैन ने इस पुस्तक की पाण्डुलिपि देखकर जो सुझाव दिये उनके लिए मैं उनका कृतज्ञ हूँ । विभाग के सहकर्मी प्राध्यापक डॉ. उदयचन्द शास्त्री एवं श्री एच. सी. जैन तथा विद्यार्थियों के सहयोग के लिए उनका धन्यव द-ज्ञापन करता हूँ। पुस्तक के प्रकाशन की व्यवस्था एवं मुद्रण प्रादि में राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान के उत्साही एवं कर्मठ सचिव श्रीमान् देवेन्द्रराज मेहता, संयुक्त सचिव महोपा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्याय श्री विनय सागर एवं ऋषभ मुद्रणालय,उदयपुर के श्री महावीर जैन तथा उनके स्टाफ का और चौधरी प्रिटर्स के संचालक श्री राजेन्द्र सिंह चौधरी का ओ सहयोग मिला है उसके लिए मैं इन सबका हृदय से आभारी हूँ अग्रिम प्राभार उन जिज्ञासु पाठकों, विद्वानों, संस्थानों एवं परीक्षा-बोडों के प्रबंधकों के प्रति भी है, जो इस पुस्तक के पठन-पाठन में सहयोगी होकर प्राकृत-शिक्षण को गति प्रदान करेंगे एवं अपने सुझाव देकर इस पुस्तक के संशोधन-परिवद्धन में सहभागी होंगे। प्रेम सुमन जैन 'समय' २९, उत्तरी सुन्दरवास, उदयपुर (राजस्थान) २, अक्टूबर, १९८२ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकररण की रूपरेखा पाठ १ : सर्वनाम (प्रथमा) पाठ २ : संज्ञा शब्द (क) पुलिंग ख ) स्त्रीलिंग (ग) नपुंसकलिंग (घ) मिश्रित सर्वनाम एवं संज्ञाए, ( प्रथम । ) नियम मिश्रित प्रयोग, अभ्यास | पाठ ४ : कृदन्त अनुक्रमणिका पाठ ३ : क्रियारूप (क) वर्तमानकाल (ख) भूतकाल (ग) भविष्यकाल (घ प्राज्ञा / इच्छा (ङ) आकारास्त आदि क्रियाएँ, नियम (क्रिया), अभ्यास । पाठ ५ : कारक (क) उत्तम पुरुष (ख) मध्यम पुरुष (ग) अन्य पुरुष (पु) (घ) प्र. पु स्त्रीलिंग (ङ) मिश्रित प्रयोग, अभ्यास, नियम (सर्वनाम) | Jain Educationa International १. सम्बन्ध २. हेत्वर्थ ३. वर्तमान कृ. ४. भूतकालिक कृ. ५. भविष्य कृ. ६. योग्यतासूचक, नियम (कृदन्त), अभ्यास । (षष्ठी विभक्ति) १. गिह- डववनं २. विज्जाल " (षष्ठी (द्वितीया " (द्वितीया (सप्तमी (तृतीया (चतुर्थी ८. लोन समं (पंचमी पाठ ६ : बत्तालावं पाठ ७ : जीवलोश्रो ३. कुडुम्ब ४. पभायबेला ५ गुण - गरिमा ६. दिराचरिया ७. सरोवरं नियम ( कारक ) (प्रध्यय प्रयोग ) (मिश्रित प्रयोग) पाठ ८ : भ्रम्हाणपुञ्जरणीघ्रा (मिश्रित प्रयोग ) पाठ : संधि एवं समास - प्रयोग पाठ १० : कर्मरिण प्रयोग (नियम) 99 " " 99 . ( ७ ) For Personal and Private Use Only पृष्ठ १-४५ १-७ ५-१४ १५-२१ २२-२५ २ २७ २८ २६ ३० ३१ ३२ ३३ ३४-३६ ३७ ३८-३६ ४०-४१ ४२-४३ ४४-४५ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ख) प्राकृत पद्य-संग्रह पृष्ठ ४६-१२७ पाठ ११. पाइय कव्वं संकलित ४६-४७ १२. सिक्खा-विवेप्रो माख्यानमणिकोश ४८-५१ १३. कुमाराण बुद्धि-परिक्सरणं अभयक्वाणय ५२-५५ १४. सज्जरण-सरूवो वज्जालग्ग ५६-५६ १५. सहलं-मणुजम्म कुम्मापुत्तरिय ६०-६३ १६. माणुसस्स कयग्यमा मुरिणपइचरियं ६४-१७ १७. रणयर-वण्णरणं सुरसुदरीचरियं ६८-७१ १८. समुद्द-गमरणं पाइयकहा-संगहो ७२-७५ १६ गुरुवएसो कुवलयमालाकहा ७६-७६ २०. सिक्खानीई समरणसुत्तं-चयनिका ८०-८४ २१. कुसलो पुत्तो प्रास्यानमणिकोश ८५-८७ २२. साहसी प्रगडगत्तो प्राकृतकथा-संग्रह ८८-११ २३. अहिंसा-खमा संकलित ६२-६५ २४. अहिंसनो बाहुबली पउमरियं ६६-६६ २५. कहा-वरणरणं लीलावईकहा १.००-१०३ २६ जीवरण-मुल्ल बज्यालग्ग में जीवन-मूल्य १०४-१.७ २७. गाहामाहुरी गाहासत्तसई १०८-१११ २८. बुद्धिमतो रोहयो प्राख्यानमरिणकोश ११२-११५ २६. जीवरण-ववहारो महत्ववचन ११६-११९ ३०. कवि-अणुभई वाक्पतिराज की लोकानुभूति १२०-१२ ३१. पाइय-अहिलेहो घटयाल अभिलेख १२४-१२७ (ग) प्राकृत भाषा एवं साहित्य पृष्ठ १२८-१४३ (घ) परिशिष्ट पृष्ठ १४४-१९० १. प्राकृत व्याकरण-चार्ट (सर्वनाम संज्ञा, किया, कृदन्त) १४४-१४७ २. प्राकृत पद्य-संग्रह का अनुवाद १४८-१८५ ३. अपठित प्राकृत गाथाए १८६-१८८ ४. सन्दर्भ ग्रन्थ-सूची १८६-१९० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १ : सर्वनाम [क] सर्वनाम (उत्तम पुरुष) प्रथमा विभक्ति उदाहरण वाक्य: अहं = मैं एकवचन अहं पातो जग्गामि अहं पइदिणं पढामि अहं सया खेलामि अहं अईव हसामि अहं खिप्पं चलामि अहं सइ जिमामि अहं अप्पं बोल्लामि • अहं मुहु पुच्छामि अहं सम्म जाणामि अहं सुहे सयामि मैं प्रात:काल जागता/जागती हूँ। में प्रतिदिन पढ़ता पढ़ती हूँ। मैं सदा खेलता/खेलती हूँ। मैं बहुत हँसता/ हँसती हूँ। मैं शीघ्र चलता/चलती हूँ। मैं एक बार जीमता/जीमती हूँ। मैं थोड़ा बोलता बोलती हूँ। मैं बार-बार पूछता/ पूछती हैं। मैं भली प्रकार जानता/जानती हूँ। मैं सुखपूर्वक सोता| सोती हूँ। अम्हे हम दोनों हम सब - बहुवचन अम्हे पातो जग्गामो अम्हे पइदिणं पढामो अम्हे सया खेलामो अम्हे अईव हसामो अम्हे खिप्पं चलामो अम्हे सइ जिमामो अम्हे अप्पं बोल्लामो अम्हे मुहु पुच्छामो अम्हे सम्म जारणामो अम्हे सुहं सयामो हम दोनों हम सब प्रातःकाल जागते हैं। हम सब प्रतिदिन पढ़ते पढ़ती हैं । हम सब सदा खेलते खेलती हैं। हम सब बहुत हँसते हँसती हैं । हम दोनों शीघ्र चलते हैं। हम सब एक बार जीमते हैं। हम सब थोड़ा बोलते हैं। हम दोनों बार-बार पूछते हैं। हम सब भली प्रकार जानते हैं। हम सब सुखपूर्वक सोते हैं। प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ख] सर्वनाम (मध्यम पुरुष) प्रथमा विभक्ति उदाहरण वाक्य : तुमं= तुम/तू एकवचन तुमं पातो जग्गसि तुमं पइदिणं पढ़सि तुमं सया खेलसि तुमं अईव हससि तुमं खिप्पं चलसि तुमं सइ जिमसि तुम अप्पं बोल्लसि तुम मुहु पुच्छसि तुमं सम्म जाणसि तुमं सुहं सयसि तुम प्रातःकाल जागते/जागती हो। तुम प्रतिदिन पढ़ते / पढ़ती हो। तुम सदा खेलते / खेलती हो। तुम बहुत हँसते हँसती हो। तुम शीघ्र चलते चलती हो। तुम एक बार जीमते/जीमती हो । तू थोड़ा बोलता/ बोलती है। तू बार-बार पूछता/पूछती है । तुम भली प्रकार जानते हो। तुम सुखपूर्वक सोते सोती हो । तुम्हे तुम दोनों/तुम सब बहुवचन तुम्हे पातो जग्गित्था तुम्हे पइदिणं पढित्था तुम्हे सया खेलित्था तुम्हे अईव हसित्था तुम्हे खिप्पं चलित्था तुम्हे सइ जिमित्था तुम्हे अप्पं बोल्लित्था तुम्हे मुहु पुच्छित्था तुम्हे सम्म जारिणत्था तुम्हे सुहं सयित्था तुम दोनों प्रातःकाल जागते हो। तुम सब प्रतिदिन पढ़ती हो। तुम दोनों सदा खेलते / खेलती हो । तुम सब बहुत हँसते हो।। तुम सब शीघ्र चलते / चलती हो। तुम दोनों एक बार जीमते हो । तुम सब थोड़ा बोलते / बोलती हो। तुम सब बार-बार पूछते हो। तुम दोनों भली प्रकार जानते हो। तुम सब सुखपूर्वक सोते हो। प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ग] सर्वनाम (अन्य पुरुष पुलिंग) प्रथमा विभक्ति उदाहरण वाक्य : सो= वह, इमो = यह, को-कौन एकवचन सो पातो जग्गइ सो पइदिणं पढइ सो सया खेलइ इमो अईव हसइ इमो खिप्पं चलइ इमो सइ जिमइ को अप्पं बोल्लइ को मुहु पुच्छइ को सम्म जागइ सो सुहं सयइ वह प्रात:काल जागता है। बह प्रतिदिन पढ़ता है। वह सदा खेलता है। यह बहुत हँसता है। यह शीघ्र चलता है। यह एक बार जीमता/खाता है। कौन थोड़ा बोलता है ? कौन बार-बार पूछता है ? कौन भली प्रकार जानता है ? वह सुखपूर्वक सोता है। ते वे, इमे=ये, के=कौन बहुवचन ते पातो जग्गन्ति ते पइदिणं पढन्ति ते सया खेलन्ति इमे अईव हसन्ति इमे खिप्पं चलन्ति इमे सइ जिमन्ति के अप्पं बोल्लन्ति के मुहु पुच्छन्ति के सम्म जाररान्ति ते सुहं सयन्ति वे प्रातःकाल जागते हैं। वे प्रतिदिन पढ़ती हैं। वे सदा खेलते हैं। ये बहुत हँसते हैं। ये शीघ्र चलते हैं। ये एक बार जीते हैं। . कौन थोड़ा बोलते हैं ? कौन बार-बार पूछते हैं ? कौन भली प्रकार जानते हैं ? वे सुखपूर्वक सोते हैं। प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५] सर्वनाम (अन्य पुरुष स्त्रीलिंग) प्रथमा विभक्ति उदाहरण वाक्य : सा=यह, इमा=वह, का कौन एकवचन ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ सा पातो जग्गइ सा पइदिणं पढइ सा सया खेलइ इमा अईव हसइ इमा खिप्पं चलइ इमा सइ जिमइ का अप्पं बोल्लइ का मुहु पुच्छइ का सम्म जागइ सा सुहं सयइ वह प्रातःकाल जागती है । वह प्रतिदिन पढ़ती है। वह सदा खेलती है। यह बहुत हँसती है। यह शीघ्र चलती है। यह एक बार जीमती है। कौन थोड़ा बोलती है ? कौन बार-बार पूछती है ? कौन भली प्रकार जानती है ? वह सुखपूर्वक सोती है। ॥ ॥ ॥ ताप्रो =वे, इमानो ये, कामो कौन बहुवचन तानो पातो जग्गन्ति तामो पइदिणं पढन्ति तामो सया खेलन्ति इमामो अईव हसन्ति इमामो खिप्पं चलन्ति इमामो सइ जिमन्ति कायो अप्पं बोल्लन्ति काओ मुहु पुच्छन्ति कामो सम्मं जाणन्ति ताप्रो सुहं सयन्ति के (स्त्रियां) प्रातःकाल जागती हैं। वे प्रतिदिन पढ़ती हैं। वे सदा खेलती हैं। ये बहुत हँसती हैं। ये शीघ्र चलती हैं। ये एक बार जीमती हैं। कौन थोड़ा बोलती हैं ? कौन बार-बार पूछती हैं ? कौन भली प्रकार जानती हैं ? वे सुखपूर्वक सोती हैं। प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [6] मिश्रित प्रयोग (सर्वनाम पाठ) अहं छत्तो अत्थि अहं अत्थ पढामि तुमं बाला अत्थि तुमं तत्थ खेलसि तुमं अत्थ सेवसि सो पायरियो अत्थि सो तत्थ लिहइ सो सया पढइ सा मात्रा अत्थि सा पइदिणं सेवइ सो अप्पं बोल्लइ इमो सीसो पढइ इमो पुरिसो नमइ इमो छत्तो खेलइ को जणो गच्छइ को नरो पुच्छइ को बालगो नमइ इमा बाला नमइ इमा छत्ता पढइ इमा कन्ना खेलइ अम्हे तत्थ पढामो तुम्हे अत्थ खेलित्था ते सया हसन्ति ताप्रो खिप्पं चलन्ति इमानो अप्पं बोल्लन्ति कानो ण पढन्ति मैं छात्र हूँ। मैं यहाँ पढ़ता हूँ। तुम बालिका हो। तुम वहाँ खेलती हो। तुम यहाँ सेवा करते हो। वह आचार्य है। वह वहाँ लिखता है। वह सदा पढ़ता है। वह माता है। वह प्रतिदिन सेवा करती है। वह थोड़ा बोलती है। यह शिष्य पढ़ता है। यह आदमी नमन करता है। यह छात्र खेलता है। कौन व्यक्ति जाता है ? कौन आदमी पूछता है ? कौन बालक नमन करता है ? यह बालिका नमन करती है। यह छात्रा पढ़ती है। यह कन्या खेलती है। हम वहाँ पढ़ते हैं। तुम सब यहाँ खेलते हो। वे सदा हँसते हैं। वे सब (स्त्रियां) शीघ्र चलती हैं। ये सब (स्त्रियां) थोड़ा बोलती हैं । कौन (स्त्रियां) नहीं पढ़ती हैं ? प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभ्यास (क) सर्वनाम लिखो : ..................."जग्गामि । ....... ..... "हसइ । ..................."चलित्था । ... ............."बोल्लन्ति । ....... ......."सयामो । ... ............"पुच्छसि । (ख) क्रियारुप लिखो : सा............. ........ (पढ) अहं ................... (जिम) ते ......................"(खेल) तुम्हे ................... (जाण) तमं ................... (पच्छ) अम्हे .... ....... (चल) (ग) अव्यय लिखो: (घ) प्राकृतरुप लिखो : वह".. .सो....... (त) पु. तुम ................."(तुम्ह) मैं... ... ... ........ (अम्ह) अहं..." तत्थ बोल्लामि। अम्हे"" .. सयामो। तुमं........" हससि । तुम्हे......" पुच्छित्था । सो....... ....."खेलइ । ते ............. पढन्ति । सा..........." । चलइ । कायो ......... जागन्ति ? इमो.." गच्छइ । को............."जिमइ ? हम सब ...." ... (प्रम्ह) तुम दोनों ....."" (तुम्ह) बह"" .......... (ता) (स्त्री.) तुम सब" यह".......... कौन ......... (का) स्त्री. (6) प्राकृत में अनुवाद करो : हम सदा पढ़ते हैं। वह सुखपूर्वक सोता है। तुम एक बार जीमते हो । मैं थोड़ा बोलता हूँ। तुम सब बहुत हँसते हो। वह छात्र नमन करता है । यह कन्या पढ़ती है । कौन छात्र खेलता है ? हम दोनों वहाँ जाते हैं। वे दोनों यहाँ खेलते हैं। वे स्त्रियां वहाँ जाती हैं। प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियम : सर्वनाम ( पु०, स्त्री०) प्रथमा विभक्ति सर्वनाम (पु०, स्त्री०) : नियम १: प्राकृत में ग्रम्ह ( मैं ) एवं तुम्ह (तुम) सर्वनाम के रूप पुल्लिंग एवं स्त्रीलिंग में प्रथमा विभक्ति में इस प्रकार बनते हैं : बहुवचन - श्रम्हे, तुम्हे एकवचन - श्रहं तुमं सर्वनाम (पु० ) : नियम २ : त ( वह ) सर्वनाम का प्रथमा विभक्ति एकवचन में सो तथा बहुवचन में ते रूप बन जाता है । नियम ३ : इम (यह ) तथा क ( कौन) सर्वनाम के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में श्रो तथा बहुवचन में ए प्रत्यय लगाकर ये रूप बनते हैं :इमो, इमे; को, के सर्वनाम (स्त्री०) : नियम ४ : ता ( वह ) सर्वनाम के प्रथमा विभक्ति एकवचन में सा रूप तथा बहुवचम में श्री प्रत्यय लगाकर ताम्रो रूप बनता है । नियम ५ : इमा (यह ) एबं का ( कौन ) सर्वनाम के प्रथमा विभक्ति एकवचन और बहुवचन में ये रूप बनते हैं :इमा, इमाश्री; का, काो । निर्देश: पिछले उदाहरण - वाक्यों के पाठों में जो आपने सर्वनाम के रूप पड़े हैं उन्हें इस प्रकार याद कर लें: वचन प्रथम पु. ए० व० अहं ब० व० अ नवीन शब्द :- अव्यय - Jain Educationa International - मुहु = बार-बार अप्पं = थोड़ा प्राकृत काव्य - मंजरी मध्यम पु. तुम तुम्हे ऊपर आपने निम्नांकित अध्यय पढ़े हैं, जिनमें कुछ परिवर्तन नहीं होता है : पातो प्रातः प्रतिदिन सया सदा अईव अधिक अन्य पुरुष पइदिर खिप्पं सम्म अत्थ सो, इमो, को ते, इमे, के = शीघ्र = अच्छी तरह =यहाँ स्त्री. सा, इमा, का ताओ, इमाओ, काओ For Personal and Private Use Only सद = एक बार सुहं सुखपूर्वक तस्थ = वहाँ ७ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ २ : संज्ञा शब्द [क] संज्ञा शब्द (पुल्लिग) प्रथमा विभक्ति । उदाहरण वाक्य : - बाल, सुहि, गुरु एकवचन बालो कत्थ पढइ बालो अत्थ पढइ बालो कया खेलइ बालो दारिंग खेलइ सुही तत्थ बोल्लइ सुही रण सयइ सुही कि जागइ गुरू सव्वं जाणइ गुरू खिप्पं चलइ गुरू तत्थ लिहइ बालक कहाँ पढ़ता है ? बालक यहाँ पढ़ता है। बालक कब खेलता है ? बालक इस समय खेलता है। मित्र वहाँ बोलता है। मित्र नहीं सोता है। मित्र क्या जानता है ? गुरु सब जानता है। गुरु शीघ्र चलता है। गुरु वहाँ लिखता है। बहुवचन । == बाला कत्थ पढन्ति बाला अत्थ पढन्ति बाला कया खेलन्ति बाला दारिंग खेलन्ति सुहिणो तत्थ बोल्लन्ति सुहिणो ण सयन्ति सुहिणो किं जाणन्ति गुरुणो सव्वं जागन्ति गुरुणो खिप्पं चलन्ति गुरुणो तत्थ लिहन्ति बालक कहाँ पढ़ते हैं ? बालक यहाँ पढ़ते हैं ? बालक कब खेलते हैं ? बालक इस समय खेलते हैं। मित्र वहीं बोलते हैं। मित्र नहीं सोते हैं। मित्र क्या जानते हैं ? गुरु सब जानते हैं। गुरु शीघ्र चलते हैं। गुरु वहाँ लिखते हैं। प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ख] संज्ञा शब्द (स्त्रीलिंग) प्रथमा विभक्ति उदाहरण वाक्य : बाला, जुवइ, बहू एकवचन बाला पातो जग्गइ बाला सया पढइ बाला कि पुच्छइ जुवई अत्थ हसइ जुवई तत्थ जिमइ जुवई अप्पं बोल्लइ बहू रण खेलइ बहू अईव जागइ बहू कया सयइ बाला खिप्पं चलइ बालिका प्रात:काल जागती है । बालिका सदा पढ़ती है। बालिका क्या पूछती है ? युवति यहाँ हँसती है। युवति वहाँ जीमतो है। युवति थोड़ा बोलती है । बहू नहीं खेलती है । बहू बहुत जानती है। बहू कब सोती है ? बालिका शीघ्र चलती है। बहुवचन बालाप्रो पातो जग्गन्ति बालामो सया पढन्ति बालानो किं पुच्छन्ति जुवईओ अत्थ हसन्ति जुवईअो तत्थ जिमन्ति जुवईनो अप्पं बोल्लन्ति बहूओ रण खेलन्ति बहूओ अईव जागन्ति बहूओ कया सयन्ति बालामो खिप्पं चलन्ति बालिकाएँ प्रातःकाल जागती हैं । बालिकाएँ सदा पढ़ती हैं। बालिकाएँ क्या पूछती हैं ? युवतियाँ यहाँ हँसती हैं। युवतिया वहाँ जीमती हैं। युवतिया थोड़ा बोलती हैं। बहुएँ नहीं खेलती हैं। बहुएँ बहुत जानती हैं। बहुएँ कब सोती हैं ? बालिकाएँ शीघ्र चलती हैं। = प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ग] संज्ञा एवं सर्वनाम ( नपुं०) प्रथमा विभक्ति मित्त, घर, पोत्थ, वारि, उदाहरण वाक्य : वत्थु १० मित्तं कत्थ प्रत्थि घरं तत्थ प्रत्थि पोत्थ प्रत्थ प्रत्थि वारिं कथथि त्थु थ मित्तारि कत्थ सन्ति घराणि तत्थ सन्ति पोत्थारण अत्थ सन्ति वारीणि कत्थ सन्ति त्थूणि सन्ति तं मित्तं प्रथि तं घरं प्रत्थि इमं पोत्थ प्रत्थि इथ किं मित्तं प्रत्थि तारिण मित्तारिण सन्ति तारिण घरारिण सन्ति इमरिण पोत्थारण सन्ति surf वत्थूणि सन्ति कारण मित्तारिण सन्ति Jain Educationa International एकवचन - बहुवचन = एकवचन बहुवचन मित्र कहाँ है ? घर वहाँ है । पुस्तक यहाँ है । पानी कहाँ है ? वस्तु नहीं है । मित्र कहाँ हैं ? घर वहाँ हैं । पुस्तकें यहाँ हैं । पानी कहाँ हैं । वस्तुएँ नहीं हैं । त, इम, क ( नपुं०) वह मित्र है । वह घर है । यह पुस्तक है । यह वस्तु है । कौन मित्र है ? वे मित्र हैं । वे घर हैं । पुस्तकें हैं । ये वस्तुएँ हैं । कौन मित्र हैं ? For Personal and Private Use Only प्राकृत काव्य - मंजरौं Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [घ] मिश्रित प्रयोग (सर्वनाम एवं संज्ञाएँ) उदाहरण वाक्य : सर्वनाम एवं संज्ञाएँ (पु०, स्त्री०, नपु०) एकवचन सो बालो पढइ इमो सुही खेलइ को गुरू पुच्छइ सा बाला जग्गइ इमा जुवई सयइ का बहू हसइ तं मित्तं बोल्लइ इमं मित्तं खेलइ कि मित्तं पढइ कि पोत्थग्रं तत्थ अत्थि वह बालक पढ़ता है। यह मित्र खेलता है। कौन गुरु पूछता है ? वह बालिका जागती है। यह युवति सोती है। कौन बहू हँसती है ? वह मित्र बोलता है। यह मित्र खेलता है। कौन मित्र पढ़ता है ? कौन पुस्तक वहाँ है ? बहुवचन ते बाला पढन्ति इमे सुहिणो खेलन्ति के गुरुणो पुच्छन्ति ताप्रो बालानो जग्गन्ति इमानो जुवईमो सयन्ति कायो बहूमो हसन्ति = ताणि मित्तारिण बोल्लन्ति = इमाणि मित्ताणि खेलन्ति = काणि मित्ताणि पढन्ति = काणि पोत्थाणि तत्थ सन्ति= वे बालक पढ़ते हैं। ये मित्र खेलते हैं। कौन गुरु पूछते हैं ? वे बालिकाएँ जागती हैं। ये युवतियाँ सोती हैं। कौन बहुएँ हँसती हैं ? वे मित्र बोलते हैं। ये मित्र खेलते हैं। कौन मित्र पढ़ते हैं ? कौन पुस्तकें वहाँ हैं ? प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियम : संज्ञा शब्द (पु०, स्त्री०, नपुं०) प्रथमा विभक्ति पुल्लिग शब्द : नियम ६ : पुरुषवाचक संज्ञा शब्दों में अकारान्त शब्दों के आगे प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्रो तथा बहुबचन में प्रा प्रत्यय लगता है। जैसे :बाल +ओ=बालो (एन्व०) बाल +आबाला (बव०) पुरिस + ओ=पुरिसो ( " ) पुरिस +आपुरिसा ( " ) देव +औ=देवो ( " ) देव +आ=देवा ( " ) नियम ७ : इ इरान्त एवं उकारान्त शब्दों के इ एवं उ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में दीर्घ हो जाते हैं तथा बहुवचन में मूल शब्दों में जो प्रत्यय जुड़ जाता है। जैसे :इकारान्त उकारान्त एव० ब०व० एव० ब०व० सुहि =सुही सुहियो गुरु =गुरु गुरुपो कवि =कवी कविणो सिसु=सिसू सिसुरणो हत्थि हत्थी हथिणो साहुसाहू साहुरणो स्त्रीलिंग शब्द : नियम + : स्त्रीलिंग आकारान्त शब्द प्रथमा विभक्ति के एकवचन में यथावत् रहते हैं तथा बहुबचन में उनमें प्रो प्रत्यय जुड़ जाता है। जैसे :बाला-बाला (ए०व०) बाला+ओबालानो (ब-व०) माला=माला ( " ) माला+औ=मालानो ( " ) नियमह : इकारान्त एवं उकारान्त शब्दों के इ एवं उ प्रथमा विभक्ति के एकवचन में दीर्थ हो जाते हैं । दीर्घ ई ऊ दीर्घ ही रहते हैं तथा बहुवचन में मूल शब्द में दीर्घ होने के बाद प्रो प्रत्यय जुड़ जाता है। नपुसकलिंग शब्द: नियम १० : नपुसकलिंग संज्ञा एवं सर्वनामों के आगे प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अनुस्वार (') प्रत्यय लगता हैं तथा बहुवचन में अ, इ, उ दीर्घ होने के बाद रिण प्रत्यय लगता है । क सर्व• एकवचन में किं होता है। १२ प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [3] मिश्रित प्रयोग (संज्ञा पाठ) एकवचन = बालो खिप्पं चलइ सुही किं ग जागइ गुरू कत्थ गच्छइ बाला सया पढइ जुवई किं पुच्छइ बहू तत्थ गच्छइ मित्तं अत्थ लिहइ घरं तत्थ अस्थि इमं पोत्थग्रं अत्थि तं मित्तं अत्थि बालक शीघ्र चलता है । मित्र क्या नहीं जानता है ? गुरु कहा जाता है ? बालिका सदा पढ़ती है। युवति क्या पूछती है ? बहु वहाँ जाती है। मित्र यहाँ लिखता है। घर वहाँ है। यह पुस्तक है। वह मित्र है। बहुवचन ॥ ॥ छत्ता तत्थ पढन्ति छात्र वहाँ पढ़ते हैं। सुहिणो अत्थ बोल्लन्ति मित्र यहाँ बोलते हैं। गुरुणो सव्वं जाणन्ति गुरु सब जानते हैं। बालानो अप्पं बोल्लन्ति बालिकाएँ थोड़ा बोलती हैं। जुवईअो पातो जग्गन्ति युवतियाँ प्रातः जागती हैं। मित्तारिण ण गच्छन्ति मित्र नहीं जाते हैं। वत्थूरिण कत्थ सन्ति वस्तुएँ कहाँ हैं ? तारिण घराणि सन्ति वे घर हैं। के नरा गच्छन्ति कौन मनुष्य जाते हैं ? बहूयो अत्थ नमन्ति = बहुएँ यहाँ नमन करती हैं । नये शब्द सीखें : छत्त = छात्र सिक्ख = सीखना सीह = सिंह कुलवइ = कुलपति उवदिस = उपदेश देना बहिणी= बहिन सिसु = बच्चा सोह = शोभित होना घेण. = गाय मोर = मोर लज्ज = लजाना कया = कब प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (क) हिन्दी में अनुवाद करो : छत्तो कि पुच्छर ? बालो सिक्ख तत्थ खेल । हत्थी गच्छइ । मोरों गच्चइ अत्थ अस्थि । (ख) संज्ञा शब्द लिखौ : सीहो ( सोह) चलइ ( सिसु ) हसइ (बाल) गच्छड़ (कवि) गच्छन्ति ( जुवइ ) ........... जग्गन्ति ( सासू ) पालन्ति (घ) शब्द छांटकर लिखो : (पु.अ.) बाल ( पु . इ . ) सुहि (पु.उ. ) गुरु ( नपुं. प्र. ) मिल (ङ) क्रियाएँ लिखो : चल = चलना ... ww १४ Jain Educationa International अभ्यास www. ****... ver .... कवी लिहइ कुलवई उवदिसइ सि सीहो गज्जइ । बहिणी किं करइ ? कमल (ग) क्रियारूप लिखो : कवी........गच्छइ" (गच्छ) (हस ) (सोह) ........ ( लज्ज) निवो बाला बहुश्रो गुरुणो..." मितारिण ***** www. For Personal and Private Use Only ................ ( स्त्री. श्रा.) बाला ... (स्त्री. इ.) जुबद ( स्त्री. उ. ) घेरा. (स्त्री. ऊ०) सासू. ******** .................................. ( पढ) (पुच्छ) (च) प्राकृत में अनुवाद करो : छात्र कहाँ पढ़ता है ? बालक यहाँ लिखता है। मोर वहाँ जाता है। गुरु कब बोलता है ? युवति कब पढ़ती है ? मित्र कहाँ रहता है ? कमल यहाँ है। पुस्तक वहाँ हैं । वे घर कहाँ हैं ? कवि वहाँ जाते हैं । वस्तुएँ कहाँ हैं ? बहू थोड़ा जीमती 1 है । ... .. प्राकृत काव्य - मंजरी Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 3 : क्रियाएँ [क] क्रियारूप (वर्तमान काल) उदाहरण वाक्य: पढ (क्रिया)+प्रत्यय उत्तम पुरुष : अहं पढामि मैं पढ़ता हूँ। अहं खेलामि मैं खेलता हूँ। अहं चलामि मैं चलता हूँ। एकवचन बहुवचन हम पढ़ते हैं। हम खेलते हैं। हम चलते हैं। अम्हे पढामो अम्हे खेलामो अम्हे चलामो मध्यम परुष: तुमं पढसि तुमं खेलसि तुमं चलसि एकवचन तुम पढ़ते हो। तुम खेलते हो। तुम चलते हो। बहुवचन तुम सब पढ़ते हो। तुम सब खेलते हो। तुम सब चलते हो। तुम्हे पढित्था तुम्हे खेलित्था तुम्हे चलित्था अन्य पुरुष : सा पढइ मित्तं पढइ बालो पढइ एकवचन वह पढ़ती है। मित्र पढ़ता है। बालक पढ़ता है। बहुवचन तानो पढन्ति मित्तारिण पढन्ति बाला पढन्ति = के पढ़ती हैं। मित्र पढ़ते हैं। बालक पढ़ते हैं। प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ख] क्रियारूप (भूतकाल) उदाहरण वाक्य : पढ (निया)+ईप्र=पढीन एकवचन उत्तम पुरुष: अहं पढी अहं खेली अहं चली मैंने पढ़ा। मैने खेला । मैं चला। बहुवचन हमने पढ़ा। हमने खेला। हम चले। = अम्हे पढी अम्हे खेली अम्हे चली मध्यम परुष: तुमं पढीय तुमं खेली तुमं चली एकवचन तुमने पढ़ा । तुमने खेला/तुम खेले। तुम चले। = बहुवचन तुम सबने पढ़ा। तुम सबने खेला। तुम सब चले। तुम्हे पढीय तुम्हे खेली तुम्हे चली अन्य पुरुष : सा पढी मित्तं पढीन बालो पढी एकवचन उस [स्त्री] ने पढ़ा। मित्र ने पढ़ा। बालक ने पढ़ा। बहुवचन ताओ पढी मित्तारिण पढीय बाला पढी = उन [स्त्रियों ने पढ़ा। मित्रों ने पढ़ा। बालकों ने पढ़ा। प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ग] क्रियारूप (भविष्य काल) उदाहरण वाक्य : पढ+इ+हि+प्रत्यय उत्तम पुरुष : एकवचन अहं पढिहिमि मैं पढ़ेगा। अहं खेलिहिमि मैं खेलूंगा। अहं चलिहिमि मैं चलूंगा। बहुवचन अम्हे पढिहामो = हम पढ़ेगे। अम्हे खेलिहामो = हम खेलेंगे। अम्हे चलिहामो हम चलेंगे। मध्य परुष: एकवचन तुमं पढिहिसि तुम पढ़ोगे। तुमं खेलिहिसि तुम खेलोगे। तुमं चलिहिसि तुम चलोगे। बहुवचन तुम्हे पढिहित्था = तुम सब पढ़ोगे। तुम्हे खेलिहित्था = तुम सब खेलोगे। तुम्हे चलिहित्था = तुम सब चलोगे। अन्य पुरुष : एकवचन सा पढिहिइ = वह (स्त्री०) पढ़ेगी। मित्तं पढिहिइ मित्र पढ़ेगा। बालो पढिहिइ - बालक पढ़ेगा। बहुवचन तामो पढिहिन्ति = वे (स्त्रियां) पढ़ेगी। मित्ताणि पढिहिन्ति = मित्र पढ़ेगे। बाला पढिहिन्ति = बालक पढ़ेगे। प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५] क्रियारूप (प्राज्ञा/इच्छा) उदाहरण वाक्य : पढ+ प्रत्यय एकवचन उत्तम पुरुष : अहं पढमु अहं खेलमु अहं चलमु मैं पढ़। मैं खेलूं। मैं चलूँ। बहुवचन हम सब पड़े। हम सब खेलें। हम सब चलें। अम्हे पढमो अम्हे खेलमो अम्हे चलमो मध्यम पुरुष: तुमं पढहि तुमं खेलहि तुमं चलहि एकवचन तुम पढो । तुम खेलो। तुम चलो। बहुवचन तुम सब पढ़ो। तुम सब खेलो। तुम सब चलो। तुम्हे पढह तुम्हे खेलह तुम्हे चलह अन्य पुरुष : सा पढउ मित्तं पढउ बालो पढउ एकवचन % 3D वह (स्त्री) पड़े। मित्र पढ़े। बालक पढ़े। बहुवचन तानो पढन्तु मित्तारिण पढन्तु बाला पढन्तु वे (स्त्रियां पड़े। मित्र पड़े। बालक पड़े। प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [6] प्रा० ए० एवं प्रोकारान्त क्रियाएँ - उदाहरण वाक्य : गा, रणे, हो+प्रत्यय एकवचन वर्तमान काल बहुवचन महं गामि मैं गाता हूँ। अम्हे गामो तुमं गासि तुम गाते हो। तुम्हे गाइत्था सो गाइ . वह गाता है। ते गान्ति মুনা अहं गाही मैंने गाया। अम्हे गाही तुमं गाही तुमने गाया। तुम्हे गाही सो गाही उसने गाया। ते गाही भविष्य काल अहं गाहिमि मैं गाऊँगा। अम्हे गाहामो तुम गाहिसि तुम गाओगे। तुम्हे गाहित्था सो गाहिइ वह गायेगा। ते गाहिन्ति आज्ञा/इच्छा कि अहं गामु क्या मैं गाऊँ ? अम्हे तत्थ गामो तुमं गाहि तुम गाओ। तुम्हे गाह सो गाउ वह गाये। ते गान्तु मिश्रित प्रयोग अहं णेमि = मैं लाता हूँ। अम्हे रणेमो तुमं रणेसि = तुम लाते हो। तुम्हे इत्था सो णेइ वह लेता है। ते गेन्ति तत्थ कि होइ = वहाँ क्या होता है ? तत्थ गच्चाणि होन्ति सो पाहिइ = वह पियेगा। ते पाहिन्ति सो ठाउ = वह ठहरे। ते ठान्तु तुमं खासि = तुम खाते हो। तुम्हे खाइत्था तुमं किं णेहिसि = तुम क्या लाओगे ? तुम्हे किं णेहित्था आकृत काव्य-मंजरी १६ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियम : क्रियारूप क्रियारूप: नियम ११ : प्रत्येक काल की क्रियाओं के अलग-अलग प्रत्यय होते हैं, जो मूल क्रिया में जुड़कर उस काल का बोध कराते हैं। प्रत्ययों के अतिरिक्त कुछ मूल क्रियाओं के स्वरों में भी परिवर्तन हो जाता है । वर्तमान काल : प्र० पु० मि=पढ+मि ए.व.) मो = पढ+मो (ब.व.) म० पु० सिपढ+ सि " इत्था =पढ + इत्था " अ.प. -पढ+इ " ति -पढन्ति " नियम १२ : प्रथम पुरुष के प्रत्यय मि, मो अकरान्त क्रिया में जुड़ने के पूर्व क्रिया का प्रदीर्घ प्रा हो जाता है। जैसे : - पढ+मि=पढामि पढ+मो-पढामो भूतकाळ : नियम १३ : अकारान्त क्रियाओं के सभी रूपों में क्रिया में ईश्न प्रत्यय जुड़ता है । जैसे: पढ+ ईअ=पढीन चल+ ईअ%= चलीमा नियम १४ : आकारान्त आदि क्रियाओं में भूतकाल में ही प्रत्यय जुड़ता है। जैसे :-- गा+ही गाही, रोही, होही आदि । भविष्य काळ : प्र०पु० हिमि=पढ+ हिमि (ए.व.) हामो=पढ+ हामो (ब.व.) . म०पु० हिसि-पढ+ हिसि " हित्था=पढ+हित्था " अ.पु० हिइ =पढ+ हिइ " हिन्ति=पढ+ हिन्ति " नियम १५ : भविष्यकाल के प्रत्यय जुड़ने के पूर्व क्रिया के अ को इ हो जाता है। जैसे :- पढिहिमि, पढिहिसि आदि । इच्छा /आज्ञा: प्र. पु० मु =पढ+ मु (ए.व.) मो=पढ+ मो (ब.व.) म० पु० हिपढ+ हि " ह =पढ+ह " अ० पु. उ =पढ+उ " न्तु=पढ+न्तु " नियम १६ : आकारान्त आदि क्रियाओं में भी इन कालों के यही प्रत्यय जुड़ते हैं। किन्तु उनमें दीर्घ या स्वरों का परिवर्तन नहीं होता है। प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभ्यास (a) क्रियाओं के अर्थ याद करो : भरण = कहना पेस = भेजना कंद = रोना चिठ्ठ = बैठना उठ्ठ = खड़े होना गच्छ = जाना प्रागच्छ= आना बोल्ल = बोलना . सिक्ख = सीखना कोरण = खरीदना उड्ढे = उड़ना तर = तैरना कलह = झगड़ना गज्ज = गर्जना धर = पकड़ना मुंच = छोड़ना चल = चलना नम नमन करना (ख) क्रियारूपों से पूर्ति कीजिए (अकारान्त) : सर्वनाम वर्तमानकाल मू. क्रिया भूतकाल भविष्यकाल आज्ञा पढइ (पढ) पढी पढिहिइ पढउ अहं (चल) गच्छ ) ............ अम्हे (खेल) .... ....। .................. (लिह) ............ तुम्हे (ग) आकारान्त आदि क्रियारूपों से पति करें : सो पाइ (पा) पाही पाहिद पाउ ............ ............ तुमं ........ .. ............ ......... .... (नम) ........... नमं ............... (गा) तत्थ कि ............ .. (हो) (घ) प्राकृत में अनुवाद करो : तुम वहाँ कहते हो। मैं वहाँ भेजूगा। वह क्यों रोता है ? तुम सब यहाँ बैठो। वे सब यहाँ कब आये ? उन्होंने क्या सीखा ? हमने झगड़ा नहीं किया । क्या मै बोल? तुम न रोओ। वह न तैरे। तुम कब सींखोगे ? हम नहीं तैरेंगे । वे कहाँ उड़ेंगे ? वे नमन करेंगे। हम नहीं चलेंगे। बालक पड़ेगा। बालिका गायेगी। प्राकृत काम्य-मंजरी २१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ४ : कृदन्त सम्बन्ध कृदन्त अहं पढिऊरण खेलामि मैं पढ़कर खेलता हूँ। तुमं खेलिऊण पढसि तुम खेलकर पढ़ते हो। सो हसिऊरण पुच्छ वह हँसकर पूछता है। सा सयि ऊरण जग्मइ वह सोकर जागती है। मित्तं जम्गिऊरण पढइ मित्र जागकर पढ़ता है । बालो पुच्छिऊरण जाणइ = बालक पूछकर जानता है । बाला बोल्लिऊरण हसइ । बालिका बोलकर हँसती है । अम्हे पढिऊरण खेलिहामो = हम सब पढ़कर खेलेंगे। ईत्वर्थ कृदन्त अहं पढिउं जग्गामि मैं पढ़ने के लिए जागता हूँ। तुम खेलिउं पुच्छसि तुम खेलने के लिए पूछते हो। सो हसिउं पढसि वह हँसने के लिए, पढ़ता है। सा सपिङ पुच्छ वह सोने के लिए पूछती है। मित्तं जग्गिउं पढइ मित्र जगने के लिए पढ़ता है । बालो नमिउं गच्छई बालक नमन करने के लिए जाता है। बाला बोल्लिङ पुच्छइ - बालिका बोलने के लिए पूछती है । अम्हे पढिउं जम्गिहामो = हम सब पढ़ने के लिए जागेंगे। वर्तमाम कृदन्त पढन्तो बालो गच्छइ = पढ़ता हुआ बालक जाता है । पढन्तो जुवई नमइ पड़ती हुई युवति नमन करती है । पढन्तं मितं हसइ पढ़ता हुआ मित्र हँसता है । हसमारणो छत्तो खेलइ हँसता हुआ छात्र खेलता है । हसमारणी बाला गच्छद = हँसती हुई बालिका जाती है। हसमारणं मित्तं पढइ हँसता हुभा मित्र पढ़ता है। प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूतकालिक कृदन्त संतुट्टो रिणवो धरणं देइ संतुट्ठा नारी लज्जइ संतुटु भित्तं कज्ज करइ संतुष्ट राजा धन देता है। संतुष्ट नारी लज्जा करती है। संतुष्ट मित्र कार्य करता है । तं दिट्ठ सो गयो वह गया। सा गमा बह गयी। मित्तं गग्रं मित्र गया । स दिट्ठो वह देखा गया। सा दिट्ठा वह देखी गयी। = बह देखा गया। विष्यकालिक पन्त पढिस्संतो गंथो पड़ा जाने वाला ग्रन्थ । पढिस्संता गाहा = पड़ी जाने वाली गाथा । पढिस्संतं पत्तं पढा जाने वाला पत्र । योग्यतासूचक कृदन्त (क) कहणीग्रो वित्तान्तो अस्थि कहने योग्य वृतान्त है। कहणीबा कहा अत्थि कहने योग्य कथा है। कहणीअं चरित्तं अस्थि कहने योग्य चरित्र है। (ख) मुणेअब्बो धम्भो अत्थि जानने योग्य धर्म है। मुणेअन्वा पाणा अत्थि जानने योग्य आज्ञा है। मुणेमन्वं जीवणं अत्थि जानने योग्य जीवन है। गंथो पढिअन्वो गाहा पढिअन्वा पत्तं पढिअम्बं ब्रन्थ पढा जाना चाहिए। गाथा पढ़ी जानी चाहिए। पत्र पड़ा जाना चाहिए । प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियम : कृदन्त नियम १७ : क्रिया से सम्बन्ध कृदन्त रूप बनाने के लिए क्रिया में तु तुण, य आदि आठ प्रत्यय लगते हैं। यहाँ केवल तूरण (ऊण) प्रत्यय लगाकर प्रयोग दिखाया गया है । ऊण प्रत्यय लगाने के पूर्व अकारान्त क्रिया के प्रको इ हो जाता है। जैसे : पढ+इ+ऊण=पढिऊण, दा+ऊण =दाऊरण, हो+ऊण =होऊण । नियम १८ : हेत्वर्थ कृदन्त बनाने के लिए क्रिया में तुं (5) प्रत्यय जुड़ जाता है एवं अकारान्त क्रियाओं के अ को इ हो जाता है । जैसे : पढ+इ+ उं=पढिउं; दाउ, होउ। नियम १६ : वर्तमानकालिक कृदन्त मूल क्रिया में न्त, मारण प्रत्यय जुड़ने पर बनते हैं । उसके बाद लिंग के प्रत्यय जुड़ते हैं। जैसे :(क) पढ+न्त=पढन्त+ओ= पढन्तो, ई=पढन्ती, =पढन्त । (ख) पढ+माण =पढमारण+ओ=पढमाणो, पढमारणी, पढमाणं । नियम २० : भूतकालिक कृदन्त के रूप मूल क्रिया में अप्रत्यय जुड़ने पर तथा क्रिया के प्रको विकल्प से इ होने पर बनते हैं। जैसे :(क) पढ+इ+अ पढि = पढ़ा हुआ।। (ख) संतुट्ट+अ संतुट्ट = संतुष्ट हुआ (इ न होने पर)। नियम २१ : भविष्यकालिक कृदन्त के रूप मूल क्रिया के प्रको इ होने पर स्संत प्रत्यय लगने पर बनते हैं। जैसे : पड+इ+स्संत = पढिस्संत । नियम २२ : योग्यता-सूचक कृदन्त (विधि) मूल क्रिया में अपीन एवं अन्य प्रत्यय लगने पर बनते हैं। जैसे :(क) कह+अरणीअ=कहणीन। (ख) अव्व प्रत्यय लगाने पर तथा क्रिया के म को ए होने पर । जैसे मुण+ए+अव्व =मुणेअव्व । (ग) इनका प्रयोग चाहिए अर्थ में भी होता है। नियम २३ : वर्तमान, भूत, भविष्य एवं योग्यता-सूचक कृदन्तों का प्रयोग विशेषण के रूप में भी होता है, तब विशेष्य के अनुसार उनके रूप बनते हैं । २४ प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..........." पढ ............ भरण पढ प्रभ्यास 9. रिक्त स्थानों की पूर्ति करो : मूल क्रिया कृदन्त प्रत्यय कृदन्तरूप लिग/निर्देश (क) पढ सम्बन्ध इ+ ऊरण पढिऊरण पढकर .mmmm.... हस हेत्वर्थ इ+उं पढि पढने के लिए जाण नम वर्तमान न्त पढन्त पढन्तो (पु.) जाण ....... (स्त्री०) नम ........ (नपु०) पुच्छ मारण ....... (पु०) ........ (स्त्री०) इ+ पढि पढिओ (पु.) नम ....."(नपु०) दिट्र अ दिट्ठो (पु.) क क कअं (नपुं०) भविष्य इ+स्संत पहिस्संत पढिस्संतो (पु.) लिह ............ ....... (नपुं०) (च) पढ योग्यता अणी पढणी पढणीओ (पु०) रक्ख ......... (स्त्री०) भरण ए+अव्व ......... (नपुं०) २. प्राकृत में अनुबाद करो : मैं हँसकर नमन करता हूँ। तुम लिखकर पढ़ो। उसने वहाँ जाकर पत्र लिखा। वह खेलने के लिए वहाँ जाय । तुम पढ़ने के लिए आते हो। हम सब नमन करने के लिए वहाँ गये। पढ़ता हुआ छात्र आता है । नमन करती हुई बालिका जाती है । हँसता हुआ मनुष्य है। वह पढ़ा हुआ ग्रन्थ है। वह वहाँ गया। पढ़ने योग्य पुस्तक है। कार्य किया जाना चाहिए। भूतकाल पढ ... ........ प्राकृत काव्य-मंजरोआ. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ५ : कारक १. गिह-उववनं [षष्ठी विभक्ति] तं मज्ज गिहं अत्थि । इमं तुज्झ गिहं अत्थि । तस्स गिहं तत्थ अत्थि । ताअ गिहं अत्थ रण अस्थि । इमस्स गिहं कत्थ अत्थि ? कस्स गिहं दूरं अत्थि? गिहस्स सामी मझ जणो अस्थि । मझ जणणो तत्थ वसइ । मज्झ बहिणी तत्थ पढइ। मज्झ भायरो तुज्झ मित्तं अत्थि । अहं तस्स पोत्थग्रं णेमि। इमं अम्हाण उववनं अत्थि। तुम्हारण मित्तारिग अत्थ खेलन्ति । ताण पुत्ता तत्थ धावन्ति । इमारण भायरा तत्थ रण गच्छन्ति । कारण मित्तारिण तत्थ जीमन्ति ? उववनस्स इमे रुक्खा सन्ति । इमाणि ताण पुप्फाणि सन्ति । इमं यरस्स सुदेरं उववनं अत्थि । अत्थ कमलस्स पुप्फं अस्थि । पुप्फस्स लया अस्थि । कमलाण पुप्फाण माला सोहइ । अत्थ वारिणो गई ण अस्थि । अम्हाण गिहस्स अरण अरो वत्थुणो मुल्लं पुच्छइ । तस्स वत्थूण पावणो अस्थि । अभ्यास (क) हिन्दी में अर्थ लिखो : (ख) षष्ठी के रूप लिखो : शब्द पहिचान शब्द ए.व. ब.क. मझ मेरा (सर्व.ए.व.) बालअ बालस्स बालआरण तुज्झ कवि तस्स साहु ताअ बाला कस्स गिहस्स ............. अम्हाण तारण गयरस्स बारि अर्थ ........ ........ ........ नई घेणु बहू ............ फल २६ प्राकृत काव्य-मंजरी For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. विज्जालयं [षष्ठी विभक्ति] इमं सोहणस्स विज्जालयं अत्थि । अत्थ तस्स भायरा मित्तारिण य पढन्ति । विज्जालयस्स तं भवणं अत्थि । इमं तस्स दारं अत्थि । तत्थ तस्स खेत्तं अस्थि । चन्दणाम बहिणो अत्थ पढइ । तान अभिहाणो कमला अत्थि। कमला गुरू विउसो अस्थि । विउसारण गुरुणो सीसा विणीमा होन्ति । विणीअस्स सीसस्स गाणं वरं होइ । सोहणस्स इमं पोत्थग्रं अत्थि । तारिण पोत्थाणि तस्स मित्तारण सन्ति । तस्स भायराण पोत्थाणि कारिण सन्ति ? इमा कमलान लेहणी अत्थि । तात्र सहीए इमा माला अत्थि । माला रंग पीअं अस्थि । कमला सहीण मालाण मुल्लं अप्पं अत्थि । इमं विज्जालयं बालपण अस्थि । तं विज्जालयं बालाण अत्थि । तत्थ विउसारण सम्मारणं हवइ । अत्थ गुरूण पूरा हवइ । अत्थ बालमा पढन्ति । तत्थ बालायो पढन्ति । अभ्यास (क) नये शब्द छांटकर लिखो: शब्दरूप मूलशब्द सोहरणस्स सोहण वचन विभक्ति षष्ठी ए.व. ............ ............ ............ ........ .... ............ ............ (ख) प्राकृत में अनुवाद करो : ____ वह मेरी पुस्तक है । यह तेरा घर है । वह किसका पुत्र है ? ये पुस्तकें तुम्हारी हैं । वहाँ कुलपति का शासन है। यह बच्चों का उपवन है। माला की दुकान कहाँ है ? यह युवति का भाई है। गाय का दूध मीठा होता है। यह फल का वृक्ष है। बह पानी की नदी है। वह फलों का रस है। प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. कुडुम्बं [द्वितीया विभक्ति] इमं मम कुडुम्बं अस्थि । जो कुडम्ब पालइ । सो ममं गेहं करइ । मज्झ भायरो तुमं जाणइ । मज्झ जणो पोत्थग्रं पढइ । जगाणी तं दुद्धदेइ । तुज्झ बहिणी कमला अत्थि । माया तं पासइ। इमो अम्हाण पियामहो अस्थि । अम्हे इमं नमामो । तुम्हे कि नमित्था ? माउलो अम्हे वत्थं देइ । सो तुम्हे धरणं देइ । भाउजाया ते नमइ । ते तारो बहूओ पासन्ति । बहिणी इमे भायरा पत्तारिण लिहइ। भायरा इमाओ बहिणीओ धणं पेसन्ति । माया के पुत्ता इच्छइ ? ताओ कामो कन्नाप्रो साडीपो देन्ति ? प्रभ्यास (क) पाठ में से द्वितीया विभक्ति के सर्वनामरूप छांटकर उनके अर्थ लिखो। (ख) द्वितीया विभक्ति के शब्दरूद छांटकर उनके अर्थ लिखो। (ग) कुटम्ब के सदस्यों के प्राकृत शब्द लिखो : पिता, भाई, छोटा भाई, माता, बहिन, पितामह, मामा, भौजी (भाभी), बहू पुत्र, कन्या। (घ) प्राकृत में अनुवाद करो: __ मित्र मुझको जानता है। वह तुमको पूछता है। माता उसको पालती है। कन्या उस स्त्री को नमन करती है। मैं इसको नहीं जानता है। तुम किसको पत्र लिखते हो ? गुरु उन सबको जानते हैं । वे तुम सबको पूछेगे। तुम इन सबको नमन करो। (6) क्रियाएं याद करो: बस = रहना सोह = अच्छा लगना परिवट्ट= बदलना उप्पन्न = उत्पन्न होना नाय = पैदा होना बीह = डरना मग्ग = मांगना प्रच्च = पूजा करना धाव = दौड़ना प्राव = आना गिह = ग्रहण करना घोव - धोना २८ प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. पभायवेला [द्वितीया विभक्ति ] इमं पभायं प्रत्थि । बालग्रा जग्गन्ति । ते जरणयं नमन्ति । बालाओ जरिंग नमन्ति । सोहरणो रिणयं करं पायं य धोवइ । सो रहाणं करइ । तया ईसरं नमइ । कमला उववनं पासइ । तत्थ पक्खिणो गीयं गान्ति । पुप्फारण वियसन्ति । भमरा गुंजन्ति । बालग्रा कंदु खेलन्ति । छत्ता पोथरि पढन्ति । कवी कव्वं लिहइ । गुरू सत्थं पढइ । किसाणो खेत्तं गच्छइ । सेवप्रो कज्जं करइ । बालश्रा विज्जालयं गच्छन्ति । गुरू विज्जालयं गच्छइ । तत्थ सो बाला पुच्छइ । विणीप्रा छत्ता तत्थ पाइपढन्ति । ते गाहाम्रो सुगन्ति । कला सिक्खन्ति । आयरियं नमन्ति । भायं सुदेरं हवइ । मात्रा बालं दुद्ध देइ । धूम्रा मात्रं नमइ । इत्थी माल धारइ । सा जुवई पासइ । जुवई नई गच्छइ । तत्थ सा बहु पुच्छइ । बहू ग दुइ । सा सासु दुद्ध देइ । पुरिसो गयरं गच्छइ । तत्थ दुद्ध faratus, फलारिण कीरणइ तया घरं आगच्छइ । अभ्यास (क) द्वितीया विभक्ति के शब्द छांटकर उनका अर्थ लिखो : पुल्लिंग नपुं. लिंग स्त्रीलिंग ********* *******........ Jain Educationa International प्राकृत काव्य - मंजरी ******** ******** प्राकृत में अनुवाद करो :पिता बालक को पालता है। राजा कवि को जानता है। हम साधु को नमन करते हैं । विद्वानों को कौन नहीं जानता है ? तुम जीव को न मारो । स्त्री माला को धारण करती है । बहू साड़ी को चाहती है। आदमी गायों को देखता है । बालक फलों को चाहते हैं । छात्र शास्त्रों को पढ़ते हैं । वे वस्तुओं को नहीं चाहते हैं । .......... For Personal and Private Use Only ******........ २६ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. गुण - गरिमा [ सप्तमी विभक्ति ] सव्वे पारणा चरणगुणा हवन्ति । तेसु गाणं होइ । जहा ब्रम्हम्मि जीव प्रत्थि तहा तुम्हम्मि वि । अचेअरणदव्वेसु पारणा र सन्ति । किन्तु तेसु गुणा हवन्ति । जहा - फले रसं प्रत्थि पुप्फे सुयंधो अत्थि, दहिम्मि घ अस्थि, जले सीयलमा प्रत्थि, अग्गिम्मि उहा प्रत्थि । सरोवरे कमलागि सन्ति । कमलेसु भमरा सन्ति । रुक्खेसु फलाणि सन्ति । नीडे पक्खिणो सन्ति | नईए नावा तरन्ति । घरे जगा निवसन्ति । पुरिसेसुखमा वसइ । जुवाणेसु सत्ति होइ । सुजा । तासु सद्धा प्रत्थि बालए सच्च प्रत्थि । छत्ते विनयं प्रत्थि । विउसम्म बुद्धी प्रत्थि । सिसुम्मि अण्णारणं प्रत्थि । किन्तु साहुम्मि ते थि । मात्रा समपरणं प्रत्थि । घेाए दुद्ध प्रत्थि । बहूए गुणा सन्ति । मालाए पुष्पाणि सन्ति । गणे तारश्रा सन्ति । गुणेण बिरगा कि faaf | (क) हिन्दी में अर्थ लिखो : शब्दरूप अर्थ सु उनमें अहम्मि द फले दहिम्मि नईए ३० ******* Jain Educationa International ....... ******* ...... पहिचान सर्व.ब.व. ....... ****...... 1 अभ्यास (ख) सप्तमी के रूप लिखो : शब्द ए.व. अम्ह अहम्मि तुम्ह त गर बहू कवि बाला ........ ... ***......... ब.व. अहे For Personal and Private Use Only *** ****.... ******** .. FOR मालाए (ग) प्राकृत में अनुवाद करो : मुझ में शक्ति है । उसमें जीवन है । उस (स्त्री) में लज्जा है । हम सब में क्षम है । बालकों में विनय है । साड़ी में फूल है । वृक्षों पर पक्षी हैं। घरों में बालक हैं । ....... .................... प्राकृत काव्य - मंजरी Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. दिरणचरिया . [तृतीया विभक्ति] सुज्जस्स किरणेण सह जणा जग्गन्ति । बाला जणएण सह उट्ठन्ति, जलेण मुहं पक्खालन्ति । जणा मन्दिरं गच्छन्ति । तत्थ ते देवं गयणेहिं पासन्ति । ते सिरेण हत्थेहि देवं नमन्ति । मुहेण देवस्स थुई पढन्ति । ते पुफ्फेहि फलेहि य देव अच्चन्ति । जणा आयरियेण सत्थं सुणन्ति । सत्थेण बिणा मन्दिरस्स सोहा ण त्थि । जहा धरणेण अहवा गुणेण बिणा नरस्स सोहा णत्थि । देवं अच्चिऊरण जगा भुजन्ति । ते भिच्चेण सह प्रावणं गच्छन्ति । बालो मित्तेण सह विज्जालयं गच्छइ । जुवई हत्थेहिं वत्थं धोवइ । सा साडीए सोहइ । मामा सिसुणो सह खेलइ। सिसू तत्थ पएण चलइ । सो मित्तेण सह खेलइ, कंदुएण रमइ । तेण तं सुक्खं होइ । सो मापाए बिरणा रण भुजइ । __मात्रा जरेण पीडइ । ताए गिहस्स कज्ज ण होइ। तुमए ताप सेवा होइ । सा दहिणा सह पथ्थं गेण्हइ। घरेण बिरणा सुहं णस्थि । जणा गेहे वसन्ति । ताण हेण गिहस्स सोहा होइ । अभ्यास (क) पाठ में से तृतीया विभक्ति के शब्दरूप छांटकर उनके अर्थ लिखो। (ख) प्राकृत में अनुवाद करो : यह कार्य मेरे द्वारा होता है । वह कार्य उसके द्वारा होता है । वह बालक के साथ जायेगा। हम शिष्य के साथ भोजन करते हैं। गुरु छात्रों के साथ रहता है। कवि के द्वारा कार्य होता है। वह साधु के साथ पढ़ता है। माता बच्चों के साथ रहती है। बालिका के साथ उसका भाई जाता है। बच्चे मालाओं से खेलते हैं। फलों के बिना वह भोजन नहीं करता है। मैं दही के साथ भोजन करता हूँ। वस्तुओं के साथ क्या है ? प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. सरोवर [चतुर्थी विभक्ति] इमं गामस्स सरोवरं अस्थि । तत्थ जणा गहाणं करिउं गच्छन्ति । तस्स जलं जणस्स अत्थि । सरोवरे कमलाणि सन्ति । ताणि कमलाणि मज्झ सन्ति । सरोवरस्स तडे रुक्खा सन्ति । ताण पुप्फाणि तुज्झ सन्ति । ताण फलाणि तस्स सन्ति । ताप बाला सरोवरे किं अत्थि ? तत्थ अम्हाण देवमन्दिरं अस्थि । अत्थ तुम्हाण सज्झायसाला अत्थि । ताण बालपारण तत्थ रम्म उववनं अत्थि । तत्थ ते खेलन्ति । सरोवरे हंसा चलन्ति । जलस्स जंतुणा तत्थ निवसन्ति । तत्थ कविणो सुहं हवइ । सो तत्थ कव्वं लिहइ । सरोवरस्स तडे साहुणा वसन्ति । णि वो साहुणो भोअरणं देई । तत्थ णरा कवीण वत्थूणि देन्ति । कवी बालाप फलं देइ । तत्थ सिसू फलस्स कंदइ। सरोवरस्स जलं कमलस्स अस्थि । तस्स वारि खेत्तस्स अस्थि । खेत्तस्स धन्न घरस्स अस्थि । सरोवरं णरस्स जीवणस्स बहुमुल्लं अत्थि। तं गामस्स सोहं अस्थि । अभ्यास (क) पाठ से चतुर्थी विभक्ति के शब्दरूप छांटकर उनके अर्थ लिखो : जणस्स= लोगों के लिए मज्झ =मेरे लिए ......."= .. ... ... ... ........ ........ ........ ......... ............... ....... ........ ............ ............ . ............ (ख) प्राकृत में अनुवाद करो: यह कमल मेरे लिए है। वह कमल उसके लिए है। ये वस्तुएँ उन स्त्रियों के लिए हैं। यह दूध बालक के लिए है। वे कुलपति के लिए नमन करते हैं। हम साधुओं के लिए भोजन देते हैं। वह बालिका के लिए माला देगा। माता युवति के लिए साड़ी देती हैं । सास बहुओं के लिए उपदेश देती है। यह वस्तु घर के लिए है । वह घर शास्त्रों के लिए है। ३२ प्राकृत काव्य-मजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. लोग्र-सरूवं [पंचमी विभक्ति] इमं लोनं विचितं अस्थि । अत्थ चेप्रणारिण अचेप्रणाणि य दव्वारिण सन्ति । तारणं सरूवं सया परिवट्टइ । बालो बालअत्तो जुवाणो हवइ । जुवारणो जुवारणत्तो बुड्ढो हवइ । रणरा परत्तो पसुजोणीए गच्छन्ति । पसुणो पसुत्तो गरजम्मे उप्पन्नन्ति । रुक्खो बीजत्तो उप्पन्नइ । बीजो रुक्खत्तो उप्पन्नइ। फलत्तो रसं उप्पन्नइ । पुप्फत्तो सुयंधो पावइ । वारित्तो कमलं हिस्सरइ । रुक्खत्तो जुण्णारिण पत्ताणि पडन्ति । दहित्तो घयं जाइ । दुद्धत्तो दहि हवइ। __एगसमये मुक्खो विउसत्तो बीहइ। छत्तो गुरुत्तो पढइ। कवी णिवत्तो आयरं गेण्हइ। बहू सासुत्तो धणं मग्गइ। बाला माअत्तो दुद्ध मग्गइ । किन्तु अण्णसमये परिवट्टणं जाइ। विउसा मुक्खाहितो बीहन्ति । गुरुणा छत्ताहितो सिक्खन्ति । रिणवा कवीहिन्तो पसंसं गेण्हन्ति । सासूत्रो बहिन्तो वत्थाणि मग्गन्ति । मात्रानो बालाहिन्तो भोप्रणं गेण्हन्ति । साहुणा असाहूहिन्तो भयं करन्ति । कुसला जणा सेवन्ति । सढा सासनं करन्ति । इमं अस्स लोअस्स विचित्तं सरूवं । जो गाणीजणा विवेएण संसारस्स कज्जाणि करन्ति । अभ्यास (क) पाठ में से पंचमी विभक्ति के शब्दरूप छांटकर उनके अर्थ लिखिए। (ख) प्राकृत में अनुवाद करिए : वह मुझ से धन लेता है । बालक तुमसे कमल लेता है। तुम उससे डरते हो। साधु राजा से पुस्तक मांगता है । कवि से काव्य उत्पन्न होता है । शिष्य गुरु से पढ़ता है। माला से सुगन्ध आती है। मैं नदी से पानी लाता है। कमल से पानी गिरता है । वह घर से निकलता है । हम नगर से दूर जाते हैं। सास बहू से धन मांगती है । प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियम : कारक षष्ठी विभक्तिः नियम २३ : षष्ठी विभक्ति के एकवचन में सर्वनाम अम्ह का मज्झ और तुम्ह का तुज्झ रूप बनता है। नियम २६ : पुलिल्ग तथा नपुंसकलिंग सर्वनाम एवं अकारान्त संज्ञा शब्दों के षष्ठी विभक्ति एकवचन में स्स प्रत्यय जुड़ता है। जैसे :सर्वनाम त =तस्स इम= इमस्स क =कस्स पु० सं० पुरिस-पुरिसस्स गर=णरस्स छत्त = छत्तस्स नपुसं. जल =जलस्स फल-फलस्स घर =घरस्स नियम २७ : पुल्लिग तथा नपु० इकारान्त एवं उकारान्त शब्दों के आगे गो प्रत्यय जुड़ता है। जैसे :सिसु=सिसुणो कवि=कविणो दहि दहियो सुधि=सुधिरणो हत्थि=हत्थिरणो वत्थुवत्थुरणो नियम २८ : (क) स्त्रीलिंग आकारान्त सर्वनाम तथा संज्ञा शब्दों के आगे षष्ठी एक वचन में अप्रत्यय जुड़ता है। जैसे :ता+अ=तान माला+अ=माला, इमाअ, बालास आदि । (ख) स्त्री० इ, ईकारान्त शब्दों के आगे पा प्रत्यय एवं उ, ऊकारान्त शब्दों के आगे ए प्रत्यय जुड़ता है। जैसे : प्रा = जुवईआ, नईआ, साड़ीसा । ए = धेरण ए, बहूए, सासूए आदि । नियम २६ : पु०, नपु० तथा स्त्री० सर्वनाम एवं संज्ञा शब्दों के षष्ठी बहुवचन में रण प्रत्यय जुड़ता है तथा शब्द का ह्रस्व स्वर दीर्घ हो जाता है । जैसे :सर्वनाम-तुम्ह=तुम्हारण, अम्ह-अम्हारण, त=तारण, इमा=इमारण । पु०नपुं०-पुरिसाण, सुधीरण, सिसूण, दहीरण, वत्थूण । स्त्री० -मालाण, बालाण, जुवईण, साडीण, बहूरण । चतुर्थी विभक्ति : नियम ३० : प्राकृत में चतुर्थी विभक्ति में सभी सर्वनाम एवं संज्ञा शब्द षष्ठी विभक्ति के समान ही प्रयुक्त होते हैं । प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीया विभक्तिः नियम ३१ : द्वितीया विभक्ति के एकवचन में अम्ह का ममं एवं तुम्ह का तुम रूप बनता है। नियम ३२ : सभी सर्वनामों एवं संज्ञा शब्दों में द्वितीया विभक्ति के एकवचन में () लगता है तथा दीर्घ स्वर ह्रस्व हो जाते हैं। जैसे :सर्व०- तं, कं, इम, ता=तं, का=कं, इमा=इमं । पु० -- बालं, पुरिसं, सुधि, सिसु। नपु.- जलं, एयरं, वारि वत्थु। स्त्री०-- मालं, जुवई, बहुं, सासु। नियम ३२ : सभी सर्वनाम एवं संज्ञा शब्दों के प्रथमा विभक्ति बहुवचन के रूप ही द्वितीया विभक्ति बहुवचन में प्रयुक्त होते हैं। जैसे :सर्व० - ते, के, अम्हे, तुम्हे, कारो, इमानो, तारिण, इमाणि । पु० - पुरिसो, कविणो, सिसुरणो। नपु०- जलारिण, रणयराणि, वारीरिण, वत्थूरिण । स्त्री०- मालामो नईश्रो, बहूओ, सासूत्रो। सप्तमी विभक्तिः निमय ३२ : सभी पु० सर्वनामों तथा पु०, नपु० के इ एवं उकारान्त शब्दों में सप्तमी एकवचन में म्मि प्रत्यय लगता है । जैसे :सर्व० - अम्हम्मि, तुम्हम्मि, तम्मि, इमम्मि, कम्मि । संज्ञा - सुधिम्मि, सिसुम्मि, वारिम्मि, वत्थुम्मि । निमय ३५ : स्त्री० सर्वनामों अकारान्त पु०, नपुं० शब्दों एवं स्त्री० शब्दों में सप्तमी एकवचन में ए प्रत्यय लगता है। इ एवं उ दीर्घ हो जाते हैं । जैसे :सर्व० -ताए इमाए, काए। पु० - पुरिसे छत्ते, सोसे, जले,फले । स्त्री० - बालाए, साडीए, बहूए, जुवईए, धेण ए। निमय ३६ : सभी सर्वनामों एवं संज्ञा शब्दों में सप्तमी बहुवचन में सु प्रत्यय लगता है । अकारान्त शब्दों में एकार हो जाता है तथा ह्रस्व स्वर दीर्घ हो जाते हैं। जैसे :सर्व० -- अम्हेसु, तेसु, तासु। पु०-- पुरसेसु, जलेसु सुधीसु, सिसूसु । स्त्री० -- बालासु, जुवईसु, धेणू सु सासूसु । प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीया विभक्ति : नियम ३७ : तृतीया विभक्ति के एकवचन में ग्रम्ह का मए एवं तुम्ह का तुमए रूप बनता है । नियम ३८ : पु० एवं नपुं० सर्वनाम तथा अकारान्त शब्द रूपों में तृतीया विभक्ति के एकवचन में शब्द के अ को ए होता है तथा रग प्रत्यय जुड़ता है । जैसे :- सर्व० - तेरण, इमेल, केरण । संज्ञा - पुरिसेण, छत्तेल, जले । नियम ३ : पु० तथा नपुं० इ एवं उकारान्त शब्दों के आगे रखा प्रत्यय जुड़ता है । कविणा, साहुणा, वारणा, वत्थुरा । जैसे :-- नियम ४० : स्त्री० सर्वनाम एवं संज्ञा शब्दों में तृतीया विभक्ति के एकवचन में ए प्रत्यय जुड़ता है । हस्व स्वर दीर्घ हो जाते हैं । जैसे :-- सर्व संज्ञा - बालाए, नईए, बहूए । नियम ४१ : सभी सर्वनामों एवं सभी संज्ञा शब्दों में 0 ताए, इमाए, काए । तृतीया विभक्ति के बहुवचन में तथा हस्व स्वर दीर्घ हो जाते हि प्रत्यय लगता है । शब्द के श्र को ए हैं । जैसे :-- पंचमी विभक्ति : नियम ४२ : पंचमी विभक्ति एकवचन में ग्रम्ह का ममाश्र एवं तुम्ह का तुमाओ रूप बनता है । नियम ४३ : पु० एवं नपु ं० सर्वनामों के दीर्घ होने के बाद उनमें श्री प्रत्यय जुड़ता है । जैसे :-- ताश्री, इमाश्री, काश्रो । नियम ४४ : स्त्री० सर्वनाम एवं संज्ञा शब्दों ह्रस्व होकर तथा नपुं० एवं पु० शब्दों में पंचमी विभक्ति के एकवचन में तो प्रत्यय जुड़ता है । जैसे स्त्री० - ता = तत्तो, इमा इमत्तो, बाला - बालत्तो, बहुत्तो । पु०- पुरिसत्तो, कवित्तो, सिसुत्तो, जलत्तो, वारितो श्रादि । --- नियम ४५ : सभी सर्वनामों एवं संज्ञा शब्दों में दीर्घ स्वर होने के बाद पंचमी विभक्ति के बहुवचन में हितो प्रत्यय जुड़ता है । जैसे : श्रम्हाहितो, ताहिंत, पुरिसाहितो, बालाहितो. बहूहिंतो श्रादि । ३६ संज्ञा ( पु० ) - पुरिसेहि, छत्तेहि, कवीहि, सिसूहि (नपु. ) - वारीहि, वत्थूहि स्त्री० - बालाहि . नईहि, बहूहि । सर्व० - अम्हेहि, तेहि, ताहि । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only प्राकृत काव्य - मंजरी Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. वत्तालावं सोहणो - मोहण, तुम का जग्गसि ? मोहणो - अहं पभाये जग्गामि । सोहणो - तया तुमं किं करसि ? मोहणो - अहं जगएण सह भमिउं गच्छामि । सोहणो - तपणन्तरं तुमं किं करसि ? मोहरणो - अहं पइदिणं पढामि। सोहणो - तुमं संझावेलं वि पढमि ? मोहगो - ण, अहं तपा खेलामि । तुमं कत्थ खेलसि ? मोहणो - अहं गिहस्स समीवं खेलामि । सोहणो - तुमं विज्जालयं का गच्छसि ? मोहरणो - पायं दसवअणकाले । सोहणो - तुज्झ विज्जालए रामो वि पढइ ? मोहणो - प्रां, सो तत्थ पढइ। सोहणो तुमं अहुणा कत्थ गच्छसि ? मोहणो - अहं अज्ज आवरणं गच्छामि । सोहणो - तुम मम गिह चलहि । मोहणो - अज्ज अवासो पत्थि । कल्लं आगच्छिहिमि । सोहणो - तुमं सपा एवं भरणसि । किन्तु कयावि ग आगच्छसि । मोहणो - तुमं मा रूसय । कल्लं अवस्सं आगच्छिहिमि । सोहणो - वरं, अहं मग्गं पासिहिमि । दारिणं गच्छामि । तुम सिग्घं आगच्छहि । मोहणो -- वरं। अभ्यास पाठ में से अव्यय छांटकर उनके प्रर्थ लिखो : कपा = कब ............ ............ ... ........ ........... प्राकृत काव्य-मंजरी ३७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. जीवलोमो इमे लोए बह जीवा सन्ति । रुक्खेसु, लग्रासु, जले, अग्गिए, पवणे थले वि पाणा हवन्ति । इमे एगिन्दिया जीवा सन्ति । मक्कुरणे (खटमले) दोणि इंदियाणि हवन्ति । पिवीलिआए तिण्णि इंदियाणि हवन्ति । मक्खिाए चउरो इंदियाणि हवन्ति । सप्पे पंच इंदियाणि हवन्ति । पक्खी, पसू, मण स्सो, पंचिन्दियो जीवो अस्थि । तेसु फासो, रसरणा, घाणो, चक्खू सवणो य इमाणि पंच इंदियाणि सन्ति ।। पक्खिणो अम्हाण सहारा हवन्ति । ते मण स्साण मित्ताणि हवन्ति । पभाये पक्खिणो कलालसरेण गीअं गान्ति । ताण सरो महुरो हवइ। पक्खीसु काप्रो कण्हो हवइ । हंसो धवलो हवइ। कोइला काली हवइ किन्तु सा महुरसरेण गाइ । मोरा अइसुन्दरा हवन्ति । ते वरिसाकाले णच्चन्ति । सुग्गा जणाण अइपिया हवन्ति । ते माण सस्स भासाए वि बोल्लन्ति । कुक्कुडा पभाये जणारण पवोहयन्ति । पिवीलियाओ सपरिस्समेण जणाण पेरणा देन्ति । माणु सस्स जीवणे पसूण वि महत्त अत्थि । पसुणो जणस्स सहयोगिणो सन्ति । अस्सो भारं वहइ। जणा अस्सेण सह जत्तासु गच्छन्ति । अस्सो णरस्स मित्तं अत्थि । कुक्कुरो माण सस्स रक्खं करइ।। सो अम्हाण गिहाणि चोराहिन्तो रक्खइ। बइलो किसाणस्स मित्तं अत्थि । सो हलं सअडं य करिसइ । बइला खेत्तं करिसन्ति । धेरण अम्हाण दुद्ध देइ । सा तणाणि खाइऊण बहुमुल्लं बलजुत्तं आहारं देइ । अजा वि दुद्ध देइ । जणाण गिहेसु मज्जारा मूसा वि वसन्ति । मरुथले कमेला (ऊट्टा) संचरन्ति । वणे गा भमन्ति । तेसु अहिनं बलं हवइ। तत्थ सीहो वि गज्जइ । तस्स गज्जणेण मिश्रा धावन्ति । सिमालो गच्छन्ति । वाणरा साहाएसु कूदन्ति । सव्वे जीवा जीविउं इच्छन्ति, ण मरिउं। अग्रो तेसु अभयं भविअव्वं । ते सहावेण हिंसा ण सन्ति । अअएव के वि जीवा ण पीडिअव्वा । ३८ प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभ्यास (क) पाठ में से दस शब्दों को छांटकर उनको विभक्ति और वचन लिखिए :१. जीवा प्रथमा ब.व. २. ते प्रथमा(स ब.व. ४. ........ ........ ........ .... ....... ........ ८. ........ (ख) पाठ के संख्यावाची शब्द लिखकर उनके अर्थ लिखो :एग = एक दोणि = दो ............ .. ............ (ग) पाठ को नई क्रियाएँ छांटकर उनके अर्थ लिखो : क्रिया अर्थ क्रिया अर्थ क्रिया अर्थ ........ ........ (घ) प्राकृत में अनुवाद करो : राम गाँव को जाता है। वे फलों को खाते हैं। राजा के द्वारा कार्य होता है। कवि काव्य लिखता है। बालक भाई के साथ विद्यालय जायेगा। यह दूध उस पुत्र के लिए है। वह कमल इस कन्या के लिए है। सोहन की पुस्तक कहाँ है ? मनुष्यों का मित्र कौन है ? हाथी में शक्ति है। फूलों में सुगन्ध है। बृक्षों से पत्ते गिरते हैं। कमल से पानी गिरता है। वह मुझ से धन मांगता है। (s) पाठ में आये विभिन्न जीवों का मानव जीवन में क्या महत्त्व है, इसे अपने शब्दों में लिखिए। प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. अम्हारण पुज्जरणीमा __ जणा सगुणेहि पुज्जणीआ हवन्ति । माणवजीवणे गुरुग्णा, पिनरस्स, जगणीए ठाणं महत्तपुण्णं अत्थि । जसो ते अम्हाण पुज्जणीपा सन्ति । सव्वेसु धम्मेसु गुरूण ठाणं उच्चं अस्थि । गुरुणा विरणा को गाणं लहिहिइ? गुरुगो अम्हाण दोसारिण दूरं करन्ति । स-उवदेसजलेण अम्हाण बुद्धि पक्खालयन्ति । जा सीसा गुरूण समीवे पढिउं गच्छन्ति तथा ते एवं उदिसन्ति-'सच्चं बोल्लह । धम्म कुणह। सज्झाए पमायं मा कुरणह । सा देसस्स धम्मस्स सेवं कुणह।' अएव गुरुणो अम्हाण मग्गदरिसमा सन्ति । जे सीसा सगुरुणा सेवं करन्ति, तेसु सद्ध करन्ति, ताहिन्तो गाणं गिण्हन्ति । ते सपा लोए सुहं लहन्ति । अम्हारण जीवणे पिपरस्स ठाणं वि महत्तपुण्णं अत्थि । पिअरो अम्हाण पालो अस्थि । सो नियएण परिस्समेण धरणेण य अम्हे पालइ रक्खइ य । पिपरो कूड्रम्बस्स पहाणो हवइ । अप्रो अम्हेहि तस्स पारणं सपा पालणीअं । पिपरो केवलं पालो ण होइ किन्तु सो बालप्राण मित्तो, विज्जादाग्रा वि हवइ । पिपरो सपा कुडुम्बस्स कल्लाणं चिन्तइ। अप्रो गुणवन्ता पुत्ता पिअरे सद्ध करन्ति, तस्स आणं मण्णन्ति तहा सेवं करन्ति । अम्हाण पुज्जणीएसु जगणीए ठाणं सव्वोच्चं अस्थि । माया सिसु केवलं ण जम्मइ, किन्तु सा तस्स निम्माणं करइ। मात्रा अम्हे जणणइ । अम्हे माअाप दुद्ध पिबामो। माआअ दुद्ध सिसुगा जीवणं हवइ । जगणी सिसुणेहं कुणइ । सा समं दुक्खं सहइ किन्तु कावि सिसुदुक्खं ण देइ । अग्रो लोए पसिद्ध-'माया कावि कुमाआ ण हवइ।' जे पुत्ता जणणीए प्राणं पालन्ति, तास सेवं कुणन्ति, ते लोए सुपुत्ता हवन्ति । इमा पुढवी वि जणस्स माया अत्थि । अम्हे भारअमात्राम पुत्ता सन्ति । अग्रएव जम्मभूमीए रक्खणं अम्हाण कत्तव्वं अत्थि ।। अम्हाण इमं कत्तव्वं अत्थि जो अम्हे गुरूण, पिअरस्स, जगणीए एवं जम्मभूमीए प्रायरं सेवं य कुणमो। इमे अम्हाण पुज्जणी सन्ति । प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभ्यास (अ) पाठ में से सातों विभक्तियों के शब्द छांटकर लिखो : प्रथमा ........................ द्वितीया... ................. ....................... .................... .................. ........................ तृतीया ............... न चतुर्थी T T ............ .. ........ पंचमी ........................ ........................ षष्ठी ........ सप्तमी ...... ................ (प्रा) प्रश्नों के उत्तर अपने शब्दों में लिखो : (क) गुरु शिष्यों को क्या उपदेश देते हैं ? (ख) पिता अपने कुटुम्ब के लिए क्या करता है ? (ग) माता के सम्बन्ध में क्या प्रसिद्धि है ? (घ) हमें पूज्यनीय व्यक्तियों के साथ क्या व्यवहार करना चाहिए ? (इ) प्राकृत में अनुवाद करो : ___ वह मुझे देखता है। मैं उनको नमन करता हूँ। तुम ईश्वर को नमन करो। जीवों को मत मारो। मैं हाथ से पत्र लिखता हूँ। वह जीभ से फल चखती है । छात्र पुस्तकों के लिए धन माँगता है । बच्चा माता से डरता है । वृक्षों से पत्ते गिरते हैं। उन शरीरों में प्राण हैं। नदियों में पानी है । बालिकाओं का विद्यालय कहाँ है ? कमलों के लिए बच्चा रोता है। हम वहाँ पढ़ेगे। तुम कहाँ खेलोगे। वह वहाँ नहीं गया। वे सब भाज पुस्तकें पढ़े। प्राकृत काव्य-मंजरी ४१ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ६ : सन्धि एवं समास प्रयोग (क) सन्धि - प्रयोग तत्थ जीवाजीवा सन्ति गराहिवो अत्थ वसइ मुणीस गंथं पढइ दिसो पातं उग्गइ महेसी भारणं करइ तत्थ कलाहिवई वसइ तस्सोवरि जोहा प्रत्थि इंदो जले गच्छइ गीलुप्पलं सरे प्रत्थि राईसरो सोहइ तत्थ महूसवो होइ महूसवे को वि ण गच्छइ ता मुहं चन्दो व्व प्रत्थि तत्थ निसारो न वसइ किमिमं पोत्थ प्रत्थि ४२ १. जीवाजीव २. मुणीसर ३. दिस ४. = अभ्यास (क) पाठ में से सन्धि वाले शब्दों को छांटकर निम्न प्रकार लिखिए : सन्धिपद सन्धिकार्य अ + अ = आ इ + ई = ई वहाँ जीव - अजीव हैं । राजा यहाँ रहता है । मुनीश्वर ग्रन्थ पढ़ता है । सूर्य प्रातः उगता है । महर्षि ध्यान करता है । वहाँ कलाओं का स्वामी रहता है । उसके ऊपर चाँदनी है । Jain Educationa International हाथी जल में जाता है । कमल सरोवर में है । चन्द्रमा शोभित होता है । वहाँ महोत्सव होता है । महोत्सव में कोई भी नहीं जाता है । उसका मुख चन्द्रमा की तरह है । वहाँ राक्षस नहीं रहता है । क्या यह पुस्तक है ? विग्रह जीव + अजीव मुरिण + ईसर ******** + .******** "+ ५. +....... (ख) शेष संधिपद अपनी अभ्यास-पुस्तिका में इसी प्रकार दिखाईए । ........ For Personal and Private Use Only .. """ + .... + लिखकर शिक्षक को = = प्राकृत काव्य-मंजरी Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते इदि भमन्ति अहं ण भोयर पढामि गुणसम्पण्णो रिवो सासइ सो देवमंदिरे नमइ रत्तपी वत्थं प्रत्थ रात्थि कस्स घरे चंदमुही कन्ना अत्थि महापुरसो तिलोयं जाणइ साहू नवतत्तं जारगइ जीवो पुष्पावारिण अहवइ (ख) समास - प्रयोग सो सुह- दुक्खाणि जाणइ पीनंबरो तत्थ गच्चइ चोरो निल्लज्जो प्रत्थि जहासत्ति धम्मं कुरणह सो सिप्पीपुत्त प्रत्थि तेसु वित्तविज्जाबलागि सन्ति समासपद १. पइदिरण २. देवमन्दिरे ३. रत्तंपीअं ४. तिलोयं कृत काव्य-मंजरी - Jain Educationa International = = = - वे प्रतिदिन घूमते हैं । मैं भोजन के बाद पड़ता हूँ । गुणसम्पन्न राजा शासन करता है । वह देवमन्दिर में नमन करता है । लाल और पीला वस्त्र यहाँ नहीं है । किसके घर में चन्दमा के समान मुख वाली कन्या है ? महापुरुष तीनों लोकों को जानता है । साधु नौ तत्त्वों को जानता है । जीव पुण्य और पापों का अनुभव करता है । अभ्यास (क) पाठ में से समासपद छांटकर निम्न प्रकार लिखो : विग्रह पइ + दिगं देवस्स + मन्दिरे वह सुख और दुखों को जानता है । कृष्ण वहाँ नाचता है । चोर निर्लज्ज है । यथाशक्ति धर्म करो । वह शिल्पी का पुत्र है । उनमें धन, विद्या और बल है । रतं + पीअं ति + लोयं ५. सुहदुक्खं ६. पीअंबरो बहुबीहि शिक्षक से इन समासों को समझकर उनके अन्य उदाहरण लिखिए । सुहं +दुक्खं पीअं + अंबरो समासनाम अव्ययीभाव षष्ठी तत्पुरुष कर्मधारय For Personal and Private Use Only द्विगु द्वन्द ४३ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १0 : कर्मणि-प्रयोग कर्मवाच्य तेण अहं पासी अमि/पासिज्जमि. = उसके द्वारा मैं देखा जाता हूँ। निवेण अम्हे पासोअमो/पासिज्जमो = राजा के द्वारा हम देखे जाते हैं। मए तुमं पासीप्रसि/ पासिज्जसि =. मेरे द्वारा तुम देखे जाते हो। तुम्हे पासीअइत्था/पासिज्जित्था = तुम सब देखे जाते हो। तुमए सो पासीअइ/पासिज्जइ तुम्हारे द्वारा वह देखा जाता है । साहुणा ते पासिंअन्ति/पासिज्जन्ति = साधु के द्वारा वे सब देखे जाते हैं। मए घडो करीअइ मेरे द्वारा घड़ा बनाया जाता है । तेण पोत्थ पढिज्जइ उसके द्वारा पुस्तक पढ़ी जाती है। मए घडो करिज्जी मेरे द्वारा घड़ा बनाया गया। मए घडो को मैंने घड़ा बनाया। तेण पोत्थग्रं पढिअं उसने पुस्तक पढ़ी। तुमए सो पासिहिइ तुम्हारे द्वारा वह देखा जायेगा। तेण कंदुनो खेलीउ उसके द्वारा गेंद खेली जाय । सीसेहि गुरुरणो नमिज्जंतु शिष्यों के द्वारा गुरु नमन किये जाय। भाववाच्य मए हसीअइ/हसिज्जइ मेरे द्वारा हँसा जाता है। तुमए धावीअइ तुम्हारे द्वारा दौड़ा जाता है। छत्तेण भणिज्जइ छात्र के द्वारा कहा जाता है। मए सुरणीअउ मेरे द्वारा सुना जाय। सीसेहिं हसिग्रं शिष्यों के द्वारा हँसा गया। तेण झाइयं उसके द्वारा ध्यान किया गया। मए भरिणहिइ मेरे द्वारा पढ़ा जायेगा। णरेहि हसिग्रं लोगों के द्वारा हँसा गया। तेण णच्चिय उसने नाचा। प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियम : कर्मरिण प्रयोग नियम ४६ : कर्मवाच्य के कर्ता में तृतीया विभक्ति और कर्म में प्रथमा विभक्ति होती है । क्रिया का लिंग, वचन और पुरुष कर्म के अनुसार के होता है । जैसे:सामान्य वाक्य कर्म वाच्य सो गन्थं पढइ = तेण गन्थो पढिज्जइ अहं घडं करामि __= मए घडो करीअइ नियम ४७ : कर्मवाच्य या भाववाच्य बनाने के लिए मूलक्रिया में ईन अथवा इज्ज प्रत्यय लगता है । उसके बाद अन्य प्रत्यय लगते हैं। जैसे :मूल क्रिया वाच्य प्रत्यय व.का. भू.का. विधि/आज्ञा पढ+ ईअ पढीम पढीअइ पढीअईअ पढीअउ पढ+ इज्ज पढिज्ज पढिज्जइ पढिज्जीअ पढिज्जउ नियम ४८ : भविष्यकाल में वाच्य-प्रत्यय ईअ या इज्ज नही लगते हैं। नियम ४६ : भूतकाल में दोनों वाच्य प्रयोगों में भूतकालिक कृदन्तों का भी प्रयोग होता है । उनमें वाच्य-प्रत्यय नहीं लगते हैं । जैसे : तेण छत्तो दिट्ठो, तेण बाला दिट्ठा, तेण मित्तं दिट्ठ। नियम ५० : भाववाच्य में कर्ता में तृतीया विभक्ति होती है। वाक्य में कर्म नहीं रहता और सभी कालों में क्रिया अन्य पुरुष एकवचन की ही प्रयुक्त होती है। जैसे :कर्ता में तृ.वि. व.का. भू.का. विधि/प्राज्ञा अम्हेहि हसिज्जइ हसिज्जीअ हसिहिइ हसिज्जउ सीसेहि ........ मए तुमए गरेण ......... भ.का. तेण .... .... प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ११ : पाइय-कव्वं पाठ-परिचय: प्राकृत में पद्य एवं गद्य दोनों में पर्याप्त साहित्य लिखा गया है। ईसा की प्रथम शताब्दी में गाथासप्तशती जैसी प्राकृतकाब्य की रचना प्रसिद्ध हो चुकी थी। उसके बाद प्राकृत में कथाकाव्य, मुक्तककाव्य, चरितकाव्य आदि शैलियों में कई काव्य रचनाएँ आधुनिक युग तक लिखी जाती रहीं। प्राकृत की इन सैकड़ों काव्य रचनाओं में से कुछ ग्रन्थों के काव्यांश इस पुस्तक में संकलित किये गये हैं । इन काव्यांशों से प्राकृत का स्वरूप, महत्त्व एवं उसकी मधुरता प्रगट होती है । प्राकृत के कई कवियों ने प्राकृत भाषा एवं उसके काव्य की प्रशंसा की है। उनमें से कुछ गाथाएँ यहाँ प्रस्तुत हैं । पाइयकव्वस्स नमो, पाइयकव्वं च निम्मियं जेण । ताहं चिय पणमामो, पढिळण य जे वि याणन्ति ॥१॥ देसिय-सह-पलोट्ट, महुरक्खर-छंदसंठियं ललिपं । फुड-वियड-पायडत्थं, पाइयकव्वं पढेयव्वं ॥२॥ पाइयकव्वम्मि रसो जो जायइ तह व छेयभरिणएहि । उययस्स व वासियसीयलस्स तित्ति न वच्चामो ॥३॥ णवमत्थ-दसण संनिवेस-सिसिराम्रो बन्धरिद्धीनो। अविरलमिणमो प्रा-भुवण-बन्धमिह णवर पययम्मि ।।४।। सयलामो इमं वाया विसन्ति एत्तो यन्ति वायायो। एन्ति समुइंच्चिय गान्ति सायरामो च्चिय जलाइं ॥५॥ गूढत्थ-देसि-रहियं सुललिय-वण्णेहिं विरइयं रम्म । पाइय-कव्वं लोए कस्स न हिययं सुहावेइ ॥६।।* * गाथा १, २, ३ 'वज्जालग्गं' से गाथा ३१, २८, २१; गाथा ४ एवं ५ 'गउडवहो' से माथा ६२ एवं ६३ तथा गाथा ६ 'पंचमीमाहात्म्य' से। ४६ प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ........ अभ्यास १. शब्दार्थ : . यान्ति = समझते हैं ताहं = उनको पलोट्ट युक्त वियड = विस्तीर्स छेय = चतुर व्यक्ति तित्ति =संतोष २. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए : (क) शब्दरूप मूल शब्द विभक्ति वचन लिंग कव्वस्स कव्व षष्ठी एकवचन नपु० वायाओ संधि वाक्य विच्छेद संधिकार्य अविरलमिणमो अविरलं+इणमो अनुस्वार को म बन्धमिह ""."" + " समासपद विग्रह समास नाम पाइयकव्वं पाइयस्स+कव्वं षष्ठी तत्पुरुष क्रियारूप मूल किया काल पुरुष वचन यारण न्ति यारण वर्तमान ब०व० __ वच्चामो ३. वस्तुनिष्ठ प्रश्न : सही उत्तर का क्रमांक कोष्ठक में लिखिए : १. कवि ने नमस्कार किया है - (क) किसी इष्ट देवता को (ख) किसी राजा को (ग) प्राकृत-काव्य को (घ) माता-पिता को [ ] ४. लघुत्तरात्मक प्रश्न : प्रश्न का उत्तर एक वाक्य में लिखिए : १. अगाध मधुरता और काव्यतत्व की समृद्धि किस भाषा में है ? २. प्राकृतकाव्य के रस की उपमा कवि ने किन वस्तुओं से दी है ? ५. निबन्धात्मक प्रश्न एवं विशदीकरण : (क) प्राकृत काव्य पर ५-७ पंक्तियाँ लिखिए। (ख) गाथा नं. ६ का अर्थ समझाकर लिखिए। अपुर .... .. प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १२ : सिक्खा-विवेओ पाठ-परिचय : प्राकृत साहित्य कथा साहित्य के लिए प्रसिद्ध है। विभिन्न जीवन-मूल्यों की शिक्षा प्रदान करने के लिए हजारों कथाएँ प्राकृत भाषा में लिखी गयी हैं। कुछ कथाएँ स्वतन्त्र ग्रन्थों के रूप में हैं तथा कुछ कथाएँ फुटकर रूप से कही-सुनी गयी हैं । ऐसी प्राकृत कथाओं का संग्रह प्राकृत कथाकोशों में किया गया है। पाख्यानमरिण कोश इसी प्रकार का प्राकृत कथाओं का एक संग्रहग्रन्थ है। परम्परा से प्रचलित कई कथाओं को इसमें प्राकृत पद्य में लिख दिया गया है । आख्यानमणिकोश के मूल रचयिता नेमिचन्दसूरि हैं। इन्होंने मूल में कुल ५२ गाथाएँ लिखी थीं, जिनपर उनके शिष्य आम्रदेवसूरि ने ई० सन् ११३४ के लगभग प्राकृत पद्य में टीका लिखी। इस. टीका में कुल १४६ कथाएँ (आख्यान) हैं। इन कथाओं में नैतिक आचरण का पालन करने वाले स्त्री-पुरुषों की कथाएँ हैं। दान, करुणा, अहिंसा, बुद्धि-चातुर्य, साहस, पुरुषार्थ आदि विषयों का इन कथाओं में वर्णन है । उन्हीं में से यह दो शिष्यों की कथा यहाँ प्रस्तुत है। कम्मि तहाविहरूयम्मि सन्निवेसम्मि सुत्थवासम्मि । कस्स वि य सिद्धनामस्स नंदणा दोन्नि जणय-पिया ॥१॥ ते कि पि तेण सुत्ताई पाढिया परमिमो विचितेइ । जह किं निमित्तमिमे जाणन्ति तो भवे लट्ठ ॥२॥ तो नेमित्तियसत्थन्न यस्स कस्स वि समप्पिया पिउणा । सिक्खन्ति नवरमेगस्स सिक्खियं परिणमइ सम्मं ॥३॥ बीयस्स पुणो न तहा अविणयभावा अहन्नदिवसम्मि । कट्ठाणमाणपत्थं पट्टविया ते अरन्नम्मि ॥४॥ • जंतेहिं तेहिं मग्गे दिवाणि पयाणि हत्थिरूयस्स । एगेण भणियमेसो भायर! हत्थी गो पेच्छ ॥५।। ४८ प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीएण भणियमेसा हत्थिरिणया काइयाए विनाया। अन्न कारणा एगम्मि चेव पासम्मि चरणाप्रो ।।६।। अन्नच उवरि इत्थी य अइहवा कह ण नज्जए एयं ।। रुक्खम्मि रत्त-दसियाविलग्गणाओ य मुरिणयमिमं ॥७॥ ते जाव तयण मग्गेण जंति तत्पच्चयत्थमभिउत्तर । ता सरतीरे सव्वं सच्चवियं तेहिं जह भणियं ॥८॥ एत्थंतरम्मि छायाए वीसमंताणमागया एगा। थेरी तेसिं समीवे सिरसंठिय-नीर-भरियघडा ॥६॥ दळूण पुत्तसमवयसमनिए सुयसिणेहसंभमनो । देसन्तरत्थ-पुत्तप्पउत्ति-पुच्छा - पवनाए ॥१०॥ भग्गो घडओ नीरं मिलियं नीरस्स स उ सवियक्का । जाव अच्छइ तत्थमरणर थेरी ता भरिणयमेगेणं ॥११।। जइ तज्जाएतज्जायमिइ वो सच्चयं निमित्तस्स । ता भद्दे! तुज्झ सुप्रो मनो मुहा कि विसाएण? ।।१२।। बीएण भणियं मिलिया न होइ एसा निमित्तगयवाणी।। ता जीवइ तुज्झ सुग्रो भद्दे! गंतु गिहे पेच्छ ।॥१३॥ दटू ण तयं खरणमेगमागया वच्छरूयगसणाहा । परिहाविऊरण आणंदऊण तुट्टा गया सगिहं ॥१४॥ भणियं च भाउरणा कह रण भाय! विवरीयमेरिसं जायं ।। तज्जाएतज्जायं सच्चमिरणं भरिणयमियरेण ।।१५।। नीरं नीरे मिलियं मट्टोए निम्मिनो घडो मिलियो। मायाए मिलइ पुत्तो एस जनो उज्जुमो मग्गो ॥१६॥ मा कुणसु तं विसायं गुरुविसए मा पनोस मुव्वहसु । गुरुणो वि जोग्गयाए कुणन्ति जीवे गुणाहाणं ।।१७।। 000 प्राकृत काव्य-मंजरो ४६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभ्यास १. शब्दार्थ : सन्निवेस = नगर पास = किनारा सच्चवियं देखा गया बच्छ = पुत्र पोसं = द्वेष (वैर) लट्ट = धन पच्चय - विश्वास थेरी = वृद्धा उज्जुन= सरल जोग्गया= योग्यता प्ररन्न = जंगल अभिउत्ता= इच्छुक पउत्ति = जानकारी विसायं = दुख कुण = करना ए.व. विभक्ति सप्तमी लिग सर्व० नपु. क ए.व. ........ ........ २. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए : शब्दरूप मूल शब्द कम्मि सुत्ताई ............ पिउणा छायाए गिहे मट्टीए .... .... ............ ........ ...... . .... ........ विच्छेद निमित्रां+इमे """"+ ...." ... ..."+"" संधिकार्य अनुस्वार को म संधिवाक्य निमित्तमिमे परमिमो नवरमेगस्स कट्ठाणमारणणत्थं भणियमेसा तप्पच्चयत्थं + + + + ......... तत् + पच्चयत्थं समान वर्ण परिवर्तन (ग) समासपद सुयसिणेह विग्रह सुयस्स+सिणेह समासनाम षष्ठी तत्पुरुष प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ........ ........ (घ) क्रियारूप मूल क्रिया काल वचन परिणम परिणम वर्तमान अ.पु. ए.व. अच्छइ पेच्छ कुरासु कृदन्त अर्थ पहिचान प्रत्यय पाढिया पढ़ाये गये भूतकाल दिट्ठारिण देखे गये अनियमित - भणियं कहा गया आगया ३. वस्तुनिष्ठ प्रश्न : सही उत्तर का क्रमांक कोष्ठक में लिखिए : १. पिता ने अपने दोनों पुत्रों को किसके पास पढ़ने भेजा - (क) कलाचार्य के पास (ख) गणित शिक्षक के पास (ग) नैमित्तकशास्त्र के जानकार के पास (घ) राजा के पास [ ] २. रास्ते से गयी हुई हथिनी कानी है यह जाना गया - (क) किसी जादू से (ख) एक ही किनारे के पत्ते खाने से (ग) किसी के कहने से (घ) आपस में सलाहकर [ ] आयी ४. लघुत्तरात्मक प्रश्न : प्रश्न का उत्तर एक वाक्य में लिखिए : १. वृद्धा ने उन शिष्यों से क्या पूछा ? २. वृद्धा का घड़ा टूट जाने पर पहले शिष्य ने उसे क्या कहा ? ३. दूसरे शिष्य ने माता से पुत्र मिलने का अनुमान किस घटना से किया ? ५. निबन्धात्मक प्रश्न एवं विशदीकरण : - (क) 'शिक्षा-विवेक' पाठ की कथा ५-७ पंक्तियों में लिखिए । (ख) इस पाठ से क्या शिक्षा मिलती है ? (ग) गाथा नं० १६ या १७ का अर्थ समझाकर लिखिए । प्राकृत काव्य-मंजरी ५१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १3 : कुमाराण बुद्धि-परिक्खणं पाठ-परिचय : . आख्यानमणिकोश में बुद्धि की परीक्षा के लिए अभयकुमार का आख्यान दिया गया है। प्राकृत कथा साहिय में राजा प्रसेनजित के पुत्र श्रेणिक या बिम्बसार की योग्यता का बहुत वर्णन मिलता है। इस राजा श्रेणिक का विवाह सुनन्दा के साथ होता है। उन दोनों के जो पुत्र होता है उसका नाम अभयकुमार है । अभयकुमार से सम्बन्धित कई कथाएँ प्राकृत में हैं। आख्यानमणिकोश में २७८ गाथाओं में अभयकुमार का कथानक वरिणत है। ___ डॉ. के. आर. चन्द्रा ने अभयक्खाणयं नामक पुस्तक में अभयकुमार के कथानक को संक्षेप में प्रस्तुत किया है। उसी में से प्रसेनजित राजा द्वारा अपने पुत्रों की बुद्धि को परीक्षा लेने का प्रसंग इन गाथाओं में यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। अह अन्नया कयाई रयणीए पच्छिमम्मि जामम्मि । सुहसंबुद्धो चितिउमारद्धो नरवई एवं ॥१॥ मज्झ कुमराण मज्झे होही को घरधुराधरणधीरो। सेसो व महाभोगो चूडामरिणरंजियसिरग्गो ॥२॥ इय चिंतिऊरण सिंधुर-तुरंगमाउज्ज-रहवराइन्न । पज्जालावइ सयलं चउद्दिसि जिन्नसालगिहं ॥३॥ तं नियवि जलराजालाकरालियं भरणइ भूवई कुमरे । रे रे! जो जं गेण्हइ दिन्नं तं तस्स सव्वं पि ॥४॥ रायाएसं निसुरिणउ तड-यड-फुट्टतवंससंदोहे । कड्ढन्ति पलित्ते पविसिऊरण कुमरा गइंदाई ॥५॥ सेणिय कुमरेण पुणो पविसिय पजलंतमंदिरस्संतो । गहिया भिंभाभिहाणा दक्खेण झडत्ति जयढक्का ॥६॥ प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तं मच्छरेण करकलियभिभमवलोइउं इयरकुमरा । उवहासेण पयंपन्ति सेणियं भिभसारो त्ति ।।७।। तं दट्ठण नरिंदेण चिंतियं सेरिणएण साह कयं । पढममिणं रज्जंगं संगहिया जेण जयढक्का ।।८।। अह अन्नया परक्कम-चाय-परिक्खरणकए कुमाराण । काराविय परमन्न भोएइ निवो नियकुमारे ।।६।। परमन्न परिवेसिय निवेण लिल्लिक्कियो सूयणवग्गो। सम्मुहमागच्छंतं तं नियवि पलाइया इयरे ॥१०।। सेरिणयकुमरो इयराणमुभयपासट्टिए गहियथाले । सुणयाण खिवइ जेमेइ अप्पणा भयविमुक्कमणो ॥११॥ तव्वइयरमवलोइय चितेइ पमोइनो पुहइपालो । एसो उदारवीरो त्ति कायरा इयरकुमरा मे ॥१२॥ अवर समयम्मि राया बुद्धि-परिक्खरणकए कुमाराण । मुद्देइ गणिय-लड्डुय-करंडए सलिलकलसे य ।।१३।। हक्कारिउं तो ते भणेइ वच्छ! सबुद्धिविहवेण । मुद्दमभंजिय भुजेह मोयगे पियह सलिलं पि ॥१४।। एवं वुत्ता नियबुद्धिगम्विया वि य उवायमलभंता । ते छुह-पिवाससोसियगत्ता दीगत्तमण पत्ता ॥१५॥ सेरिणय कुमरेण पुणो घेत्त पगलंत-कलसबिंदुजलं ।। धुरिणउं करंडए मोयगाण चूरीए भोयविया ॥१६।। इय निसुरिणऊण सेणियमइविहवं विम्हिरो महाराअो। चितेइ जहा जुत्तो एसो रज्जाहिसेयस्स ॥१७॥ ००० प्राकृत काव्य-मंजरी ५३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभ्यास १. शब्दार्थ : जाम = पहर महाभोगो= महानाग प्राइन्न = भरा हुआ जिन्न = पुराना नियवि = देखकर अडत्ति = शीघ्र मच्छरेण= ईर्ष्या से इणं = यह । रज्जंग = राज्य के अंग चाय = त्याग भोएइ = भोजन करता है पासट्ठिए = पास में स्थित सुरणयं = कुत्ता वइयरं = वृतान्त पमोइनो = आनन्दित पगलंत = झरते हुए करंड = टोकरी विम्हिनो= आश्चर्यचकित वचन लिग स्त्री० ए०व० संधिकार्य अनुस्वार को म २. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए : शब्दरूप मूल शब्द विभक्ति रयणीए रयणी षष्ठी मराण उवहासेण करंडए संधिवाक्य विच्छेद चिंतिउमारद्धो चितिउं+आरद्धो रायाएसं मन्दिरस्संतो मंदिरस्स+अंतो भिभाभिहाणा .... +...." पढममिरणं समासपद विग्रह सुहसंबुद्धो सुहेण+संबुद्धो धरधुरा ..." +...... भयविमुक्कमणो "..."+........ उदारवीरो ................ सलिल कलसे अ+अ=अ समासनाम तृतीया तत्पुरुष .... .... .... ........ ............... .... ५४ प्राकृत काव्य-मंजरो For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुष मुल किया भरण काल वर्तमान वचन ए०व० अ०पू० क्रियारूप भगइ कडढन्ति भुजेह .... .. " आज्ञार्थ पियह प्रत्यय कृदन्त दिन निसुरिणउ मूल क्रिया अनियमित निसुण अर्थ पहिचान दे दिया गया भूतकाल सुनकर सम्बन्ध आवाज करते हुए वर्तमान परोसकर सं०१० इ+उ न्त इ+य परिवेसिय परिवेस ३. वस्तुनिष्ठ प्रश्न : सही उत्तर का क्रमांक कोष्ठक में लिखिए : १. श्रेणिककुमार ने जलते हुए घर में से निकाला - (क) रथ को (ख) हाथी को (ग) शस्त्र को (घ) भिभसार जयढक्का को २, खीर खाते समय कुमारों के पास राजा ने - (क) सैनिकों को भेजा (ख) कुत्तों के झुण्ड को बुलवाया (ग) और भोजन भिजवाया (घ) नौकरों को भेजा [ ] ४. लघुत्तरात्मक प्रश्न : प्रश्न का उत्तर एक वाक्य में लिखिए: १. कुत्तों के आक्रमण पर श्रेणिक ने क्या किया? २. श्रेणिक ने लड्डू कैसे खाये ? ३. राजा ने राज्याभिषेक के लिए श्रेणिक को क्यों चुना? ५. निबन्धात्मक प्रश्न एवं विशदीकरण : (क) राजकुमारों की परीक्षाओं का वर्णन ८-१० पंक्तियों में कीजिए। (ख) इस पाठ की शिक्षा अपने शब्दों में लिखिए। (ग) गाथा नं०८ अथवा ११ का अर्थ समझाकर लिखिए । प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १४ : सज्जण-सरूवो पाठ-परिचय : प्राकृत मुक्तक-काव्य साहित्य में वज्जालग्गं ग्रन्थ का महत्त्वपूर्ण स्थान है । इसके रचयिता कवि जयवल्लभ हैं। उन्होंने लगभग १२ वीं शताब्दी में इस ग्रन्थ में प्राकृत की सैकड़ों गाथाओं का संकलन किया है। इस ग्रन्थ में विभिन्न विषयों से सम्बन्धित गाथाओं के समूह हैं, जिन्हें 'वज्जा' कहा गया है। लगभग ८०० गाथाओं को ६६ समूहों में विभक्त किया गया है। मित्र, स्नेह, धैर्य, साहस, पराक्रम, समुद्र, नगर, बसन्त आदि विषयों के समूह इस ग्रन्थ में हैं। 'सज्जनवज्जा' में सज्जनों के गुणों का वर्णन किया गया है । उन्हीं में से कुछ गाथाएँ यहाँ संकलित हैं । सज्जन व्यक्ति स्वभाव से सरल और परोपकारी होते हैं। उनके दर्शन-मात्र से दुख दूर हो जाते हैं। वे किसी की निन्दा नहीं करते और न अपनी प्रशंसा करते हैं। उनकी मैत्री पत्थर की लकीर की तरह होती है। वे धैर्यशाली और परोपकारी होते हैं । उनमें घमण्ड नहीं होता है। वे अपनी प्रतिज्ञा को निभाने वाले होते हैं । सुयणो सुद्धसहावो मइलिज्जतो वि दुज्जणजणेण । छारेण दप्पणो विय अहिययरं निम्मलो होइ ।।१।। दिठ्ठा हरंति दुक्खं जंपन्ता देन्ति सयलसोक्खाई। एयं विहिणा सुकयं सुयणा जं निम्मिया भुवणे ।।२।। न हसन्ति परं न थुवन्ति अप्पयं पियसयाइ जंपन्ति । एसो सुयणसहावो नमो नमो ताण पुरिसाणं ।।३।। दोहि चिय पज्जत्तं बहुएहिं वि किं गुणेहि सुयणस्स । विज्जुप्फुरियं रोसो मित्ती पाहाणरेहव्व ॥४॥ सेला चलन्ति पलए मज्जायं सायरा वि मेल्लन्ति । सुयणा तहिं पि काले पडिवन नेय सिढिलन्ति ।।५।। ५६ प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंदन तरु ब्व सुयरणा फलरहिया जइ वि निम्मिया विहिणा। तह वि कुरणन्ति परत्थं निययसरीरेण लोयस्स ॥६॥ कत्तो उग्गमइ रई कत्तो वियसन्ति पंकयवणाई । सुयणाण जए नेहो न चलइ दूरट्ठियाणं वि ॥७॥ फलसंपत्तीए समोरणयाइं तुगाई फलविपत्तीए । हिययाइं सुपुरिसारणं महातरूणं व सिहराइं ॥८॥ हियए जानो तत्थेव वढियो नेय पयडियो लोए। ववसायपायवो सुपुरिसारण लक्खिज्जइ फलेहिं ।।६।। होन्ति परकज्जरिणरया नियकज्जपरंमुहा फुडं सुयणा । चन्दो धवलेइ महिं न कलंकं अत्तणो फुसइ ।।१०॥ सच्चुच्चरणा पडिवन्नपालणा गरुयभारणिव्वहणा । धीरा पसन्नवयरणा सुयणा चिरजीवरणा होन्तु ॥११॥ 000 . 'वज्जालग्गं' - सं० प्रो० एम० वी० पटवर्धन से उद्धत । गाथ. नुक्रम- ३३, ३६, '३७, ४२, ४७, ४८, ८० ११४, ११५, ४८.३, ४८.४ । प्राकृत काव्य-मंजरी ५७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभ्यास १. शब्दार्थ : छार = राख सय = सौ पज्जत्तं = पर्याप्त रोस = क्रोध सेल = पर्वत पलम = प्रलय पडिवन्ना = प्रतिज्ञा कत्तो = कहाँ नए = संसार में समोरणय = नीचा निरय = लीन परंमुह = विमुख दोहि = दो पाहारण = पत्थर मज्जाया= मर्यादा रइ = सूर्य तुंग = ऊँचा फुडं = स्पष्ट लिग ए.व. ए०व० पु० ........ ... .... ........ ... २. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए : शब्दरूप मूल शब्द विभक्ति विहिरणा विहि तृतीया तारण गुणेहि काले महातरूरणं सिहराई संधिवाक्य विच्छेद पाहाण रेहव्व पाहाण रेहा+व्व तत्थेव तत्थ +एव सच्चुच्चरणा सच्च +उच्चरणा (ग) समासपव सुद्धसहावो सुद्धो +सहावो सुयणसहावो सुयणस्स +सहावो फलरहिया ....... .... .... ... पंकयवणाई ............ ....... संधिकार्य दीर्घलोप अ+एए भ+उ-उ विग्रह समासनाम बहुव्रीहि ष० तत्पुरुष ... ........ .... प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल क्रिया वचन (घ) क्रियारूप हरन्ति काल वर्तमान पुरुष अ०० ........ ब०व० ............ थुवन्ति उग्गम ...... अर्थ (क) कृदन्त पहिचान मूलक्रिया प्रत्यय निम्मिया बनाये गये हैं भूतकाल निम्म इ+य जाओ उत्पन्न भूतकाल अनियमित वडिढओ बढ़ा भूतकाल वड्ढ इ+अ पयडिओ लक्खिज्जइ देखा जाता है कर्मवाच्य लक्ख इज्ज+इ . वस्तुनिष्ठ प्रश्न : सही उत्तर का क्रमांक कोष्ठक में लिखिए : १. दुर्जन व्यक्ति के द्वारा मलिन किये जाने पर सज्जन होता है - (क) अधिक क्रोधी (ख) गुणहीन (ग) अधिक निर्मल (घ) आनन्द रहित [ ] २. सज्जन लोगों के स्नेह की उपमा दी गयी है (क) फल युक्त वृक्ष से (ख) सूर्य और कमल से (ग) चाँदनी से (घ) बिजली की चमक से [ ] लघुत्तरात्मक प्रश्न : प्रश्न का उत्तर एक वाक्य में लिखिए : १. सज्जन व्यक्ति के कौन से दो गुण पर्याप्त हैं ? २. सज्जनों के हृदय सम्पत्ति और विपत्ति में कैसे होते हैं ? ३. यह पृथ्वी किनसे अलंकृत है ? निबन्धात्मक प्रश्न एवं विशदीकरण : (क) 'सज्जन-स्वरूप' का सार अपने शब्दों में लिखिए। (ख) गाथा नं. ४, १० एवं ११ का अर्थ समझाकर लिखिए। प्राकृत काव्य-मंजरी ५६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १५ : सहलं मणजम्म पाठ-परिचय : प्राकृत भाषा में ऐसे व्यक्तियों के जीवन-चरितों का वर्णन हुआ है, जिन्होंने अच्छे कार्यों के द्वारा अपने जीवन को श्रेष्ठ बनाया है। ऐसे काव्यों को चरितकाव्या कहा गया है। प्राकृत में लगभग तीसरी-चौथी शताब्दी में विमलसूरि ने 'पउमचरियं' नामक प्रथम चरितकाव्य लिखा, जिसमें मर्यादापुरुषोत्तम रामचन्द्र के जीवन का वर्णन है। इसके बाद कई चरितकाव्य लिखे गये हैं। लगभग १६ वीं शताब्दी में अनन्तहंस ने कुम्मापुतचरियं नामक ग्रन्थ लिखा है। इस चरितकाव्य में राजा महेन्द्र सिंह और रानी कूर्मा के पुत्र धर्मदेव के पूर्वजन्मों एवं वर्तमान जन्म की कथा वरिणत धर्मदेव को एक साधु पुरुष मनुष्य-जन्म का महत्व बतलाता है। वह कहता है कि मनुष्य-जन्म अन्य पशु, पक्षी आदि के जन्म से कई अर्यों में श्रेष्ठ है। अतः इस मनष्य जन्म में आकर अच्छे कार्य करना चाहिए। इस जन्म को व्यर्थ के कार्यों में गंवाना ठीक नहीं है। इस बात की पुष्टि के लिए, करिणकपुत्र का उदाहरण दिया गया है। कोई वरिणकपुत्र बड़ी कठिनाई और परिश्रम के बाद एक चिंतामणिरत्न को विदेश में जाकर प्राप्त करता है । यह रत्न मनवांछित फल को देने वाला है। जब वह वणि कुपुत्र जहाज से समुद्र पार कर रहा था तब रात्रि में चन्द्रमा के प्रकाश और रत्न के प्रकाश की वह तुलना करने लगता है। इसके लिए वह हाथ में रत्न को लेकर देख रहा था कि रत्न फिसलकर समुद्र में गिर गया और बहुत खोजने पर फिर नहीं मिला । इसी प्रकार मनुष्य-जन्म को यदि अच्छे कार्यों से सफल नहीं किया सो वह भी व्यर्थ चला जाता है। एगम्मि नयरपवरे अस्थि कलाकुसलवारिणो को वि। रयणपरिक्खागंथं गुरूण पासम्मि अब्भसइ ॥१॥ अह अन्नया विचित इ सो वणिो किमवरेहि रयणेहि । चिंतामणी मणीणं सिरोमणी चिंतिपत्थकरो ॥२॥ प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्तो सो तस्स कए खण्इ खाणीयो गठाणेसु। तह वि न पत्तो स मणी विविहेहि उवायकरणेहिं ॥३॥ केण वि भरिणग्रं वच्चसु वहणे चडिऊण रयणदीवंमि । तत्थत्थि आसपूरी देवी तुह वंछियं दाही ।।४।। सो तत्थ रयणदीवे संपत्तो इक्कवीस-खवणेहिं । आराहइ तं देविं संतुट्ठा सा इमं भणइ ।।५।। भो भद्द केण कज्जेण अज्ज आराहिला तए अहयं । सो भरणइ देवि चितामणिकए उज्जमो एसो ।।६।। दत्तं चितारयणं तो तीए तस्स रयणवणिअस्स । सो निअगिहगमणत्थं संतुट्ठो वाहणे चडियो ।।७।। पोअपएसनिविट्ठो वरिणो जा जलहिमज्झमायायो। ताव य पुवदिसाए समुग्गो पुण्णिमाचन्दो ।।८।। तं चंदं दट्ठ रणं नियचित्ते चिंतए स वाणियो। चिंतामणिस्स तेअं अहिअं अहवा मयंकस्स ॥६॥ इअ चितिऊण चितारयणं निअकरतले गहेऊणं । नियदिट्ठीइ निरक्खइ पुणो पुणो रयणमिदु य ॥१०॥ इअ अवलोअंतस्स य तस्स अभग्गेण करतलपएसा । अइसुकुमालमुरालं रयणं रयणायरे पडिग्रं ।।११।। जलनिहिमज्झे पडिप्रो बहु बहु सोहंतएण तेणावि । किं कह वि लब्भइ मणी सिरोमणी सयलरयणाणं ।।१२।। तह मण अत्तं बहुविहभवभमणसएहि कहकह वि लद्ध। खणमित्तेणं हारइ पमायभरपरवसा जीवो ॥१३।। 000 शाकृत काव्य-मंजरो ६१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रम्यास १ शब्दार्थ : वहरण = जहाज खवण = दिन गंथ = ग्रन्थ पोन = जहाज प्रहयं = मैं पएस = प्रदेश रोग = अनेक सुर = देवता निम = अपने बरिणो = व्यापारी मयंक = चन्द्रमा रयणायर= समुद्र २. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए : (क) शब्दरूप मूल शब्द विभक्ति गुरूग षष्ठी रयणेहि ठाणेस ठाण = स्थान जलहि = समुद्र पवर = श्रेष्ठ ताव = तभी करतल = हथेली पमाय = असावधानी वचन लिग ब०व० पु० ........ केण ........ संधिकार्य अनुस्वार को म एक अ का लोप देवि ........... धरणारिण संधिवाक्य विच्छेद किमवरेहि किं +अवरेहि चितिअत्थकरो चितिअ+अत्थकरो कम्ममेव ... .... ........ कम्माणुसारेण ........ ........ जेणप्पन्ति जेण +अप्पन्ति रयणमिदु समासपद विग्रह कलाकुसलवरिणओ कलासु+कुसलवरिणओ रयणपरिक्खागंथं रयणस्स+परिक्खागंथं पुवदिसा पुव्वं +दिसा . . . . . . . . . . . . . . . . .. (ग) समास नाम सप्तमी तत्पुरुष षष्ठी तत्पुरुष बहुब्रीही प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलक्रिया अब्भस काल वर्तमान वचन ए०व० अपु० क्रियारूप अन्भसइ खणे वच्चसु दाही कृदन्त आराहिआ गहेऊरण पडि संपत्तो अर्थ बच्च आज्ञा दा भविष्य पहिचान पूजा की गई भू०पू० ग्रहण कर सं०कृ० गिर गया भू० कृ० पहुंचा भू०० म.पु. अपु. मूलक्रिया आराह गहि पड संपत्त ए०व० ए०व० प्रत्यय इ+अ इ+[ए] ऊरण इ+अ . वस्तुनिष्ठ प्रश्न : सही उत्तर का क्रमांक कोष्ठक में लिखिए : १. व्यापारी ने प्राप्त करना चाहा था - (क) जहाज (ख) धनसम्पत्ति (प) चिंतामणि रस्न । (घ) अन्थ [] २. वह जहाज पर चढ़कर गया - (क) उज्जैनी (ख) श्रीलंका (ग) समुद्र रत्नदीप ४. लघुत्तरात्मक प्रश्न : प्रश्नों के उत्सर एक वाक्य में लिखिए: ... १. व्यापारी को देवी ने क्या कहा ? २. समुद्र के बीच में व्यापारी क्या सोचने लगा? ३. समुद्र में रत्न क्यों गिर गया ? ५. निबन्धात्मक प्रश्न एवं विशदीकरण : (क) चिन्तामणिरत्न और मनुष्यजन्म की तुलना ५-७ वाक्यों में कीजिए। (ख) पाठ का सार अपने शब्दों में लिखिए। (ग) गाथा नं० २ एवं १३ का अर्थ समझाकर लिखो। आकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १६ : माणुसस्स कयग्घआ पाठ-परिचय : प्राकृत भाषा के काव्य-ग्रन्थों में मुख्य कथा के साथ अन्य कथाएँ एवं दृष्टान्त भी पर्याप्त मात्रा में प्राप्त होते हैं । ये दृष्टान्त शिक्षापरक एवं प्रेरणादायक होते हैं । इन छोटी कथाओं से मानव-जीवन के स्वभाव को भी समझने में मदद मिलती है । 'मुणिपतिचरित' नामक ग्रन्थ में भी इसी प्रकार की १६ छोटी कथाएँ मिलती हैं । उसी में से यह 'मनुष्य की कृतघ्नता' कथा का चयन किया गया है । 'मुणिपतिचरित' नाम की ३-४ रचनाओं का उल्लेख मिलता है । आठवीं शताब्दी के आचार्य हरिभद्रसूरि ने मुणिपतिचरित की रचना की थी, किन्तु वह ग्रन्थ आज उपलब्ध नही है । ८-९ वीं शताब्दी के एक कवि की रचना 'मुणिपतिचरित' उपलब्ध है, किन्तु उसके कर्त्ता का नाम अज्ञात है । सं० १९७२ में मानदेवसूरि ने और सं० १२७४ में द्वितीय हरिभद्रसूरि ने 'मुणिपतिचरित' ग्रन्थों की रचना की है | अज्ञात कवि के 'मुणिपतिचरित' का सम्पादन आर० विलियम्स ने किया है । उसमें १६ कथाएँ हैं । कथाएँ प्रायः संवादशैली में हैं । प्रस्तुत पाठ में एक बन्दरिया और एक लकड़हारे राहगीर मनुष्य के स्वभाव का चित्रण है । बन्दरिया अपनी शरण में आये हुए मनुष्य की शेर से रक्षा करती है। उसके लिए शेर से विरोध लेती है । किन्तु वही मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए बन्दरिया को शेर का भोजन बनाने के लिए तैयार हो जाता है । इस पर बन्दरिया उस कृतघ्न मनुष्य को धिक्कारती है । ६४ एगो वट्टइ पुरिसो कट्ठनिमित्तं तु सो गयो अडविं । तेण य दिट्ठो सीहो तस्स भएरणं दुमे चडिओ ||१|| तुगे तम्मि दुमम्मि अहिरूढं वानरं विलोइत्ता । भयपेरन्तयगत्तो चितइ उभयन्तरे पडिप्रो IIRII. सो एस वग्घदुत्तsि - नाम्रो जाश्रो महं तम्रो भरिणो । वानरियाए 'पुत्तय ! मा भीयसु मा य कंपेसु ॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only य-मंजरी प्राकृत काव्य Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजाओ वीसत्थो सीहो चिठेइ रुक्खमूलम्मि । जाया रयणी तत्तो निद्दायइ वणयरो सो य ॥४॥ भणियो य वानरीए मह उच्छंगे सिरं करेऊणं । सुयसु इमें तेण कषं सीहो तं वानरि भणइ ॥५॥ गाढं छुहारो हैं मुयसु इमं माण सं अहं तुज्झ । होहामि य वरमित्तं कयावि तुह उवयरिस्सामि ॥६॥ किं तुह एयस्स कुमारण सस्स रक्खा इह कयग्घस्स ।। भणियं च वानरीए नाहं सरणागयं देमि ।।८॥ पडिलोमाणि बहूणि भरिपऊरण ठिो हरी वि निविण्णो। पडिबुद्धो य चरणयरो जंपइ अंबे! तुमं सुयसु ।।८।। तस्सुच्छंगे काऊरण सा सिरं वानरी वि य पसुत्ता। सीहो जंपइ मारण स! मम एयं वानरं देहि ॥६॥ भक्खित्ता अहमेयं वच्चीहामि तवावि होइ पहो । मण एणं अक्खित्ता उ कडीमो वानरी तेरणं ॥१०॥ सा डालाए लग्गा छेयत्तणनो तमो भणइ सा उ । धी! धी! माण सभावस्स तुज्झ माण सकयग्घस्स ॥११॥ तेण पहेण महंतो सत्थो चलिमो तस्स सद्देणं । तत्तो य अइक्कंतो हरी गो वरण्यरो गेहे ॥१२॥* ००० ' 'मुणिपतिचरित'-सं• - आर० विलियम्स, एसियाटिक सोसायटी लन्दन, १९५६ पृ० १२४, गाथानुक्रम ११४४-५५ एवं 'प्राकृत गद्य-पद्य संग्रह', सं० - डॉ० के. आर० चन्द्रा, नवीन शाह, पाठ ११ से उद्ध त । कृत काव्य-मंजरी ६५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभ्यास १. शब्दार्थ : एग = एक वट्टइ = था दुमं = वृक्ष पेरंत = काँपते हए वग्ध = बाघ दूत्तडि= दो किनारे वीसत्थ = विश्वासयुक्त उच्छंग= गोद छ हारम= भूखा कयग्ध= कृतघ्न हरि = सिंह निविण्ण= खिन्न छेयत्तण = चतुराई कडी = पेट [गोद] कट्ठ = लकड़ी गत्त = शरीर नाम == न्याय गाढं = अधिक पडिलोम= विपरीत कथन पह = रास्ता सत्य = काफला वचन लिंग ए०व० ............ .... .... : : २. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए : शब्दरूप मूलशब्द विभक्ति पुरिसो पुरिस प्रथमा सीहो अडवि तम्मि सिरं वाणरीए सद्देणं संधिवाक्य विच्छेद सरणागयं सरण+आगयं तस्सुच्छंगे तस्स +उच्छंगे अहमेयं अहं +एवं तवावि तव +अवि उभयंतरे उभय +अंतरे समासपद विग्रह कट्ठनिमित्तं कट्ठस्स+ निमित्तं माणुसभावस्स माणुसस्स+भावस्स संधिकार्य अ+ आ -आ अ+उ =उ अनुस्वार को म अ+अ=आ अ+अ-अ समासनाम षष्ठी तत्पुरुष षष्ठी तत्पुरुष प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल मूलक्रिया भीय पुरुष ........ .... ... ........ ........ क्रियारूप भीयसु सुयसु होहामि देहि ........ ........ ........ प्रत्यय कृदन्त गओ विलोइत्ता अक्खित्ता अर्थ गया देखकर पहिचान भू० कृ० सं०० मूलक्रिया अनियमित अनियमित अनियमित ३. वस्तुनिष्ठ प्रश्न : सही उत्तर का क्रमांक कोष्ठक में लिखिए :१. वनचर ने जंगल में जाकर देखा - (क) मोर को (ख) सिंह को (ग) शिकारी को (घ) नदी को २. वनचर जंगल में गया था - (क) घूमने के लिए (ख) शिकार के लिए (ग) लकड़ी के लिए शेर को देखने - [] [ ] ४. लघुत्तरात्मक प्रश्न : प्रश्नों के उत्तर एक वाक्य में लिखिए : १. डरे हुए वनचर को बंदरिया ने क्या कहा ? २. रात्रि में वह आदमी कहाँ सो गया ? ३. सिंह ने बंदरिया को क्या कहा ? ५. निबन्धात्मक प्रश्न एवं विशदीकरण : (क) इस पाठ की कथा अपने शब्दों में लिखो। (ख) मनुष्य के स्वार्थी स्वभाव पर ५-७ पंक्तियाँ लिखो। (ग) गाथा नं. ७ एवं १२ का अर्थ समझाकर लिखो। प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-परिचय : पाठ १७ : णयर - वणणं प्राकृत काव्यों में वस्तु-वर्णन के अन्तर्गत नगर वर्णन के कई उल्लेख प्राप्त होते हैं। इन वर्णनों से प्राचीन समय के नगरों की संरचना का पता चलता है और कवि के काव्यगुण की भी जानकारी मिलती है । प्रस्तुत नगर-वर्णन प्राकृत के प्रमुख काव्यग्रन्थ सुरसुन्दरीवरियं से लिया गया है। इस ग्रन्थ की रचना ई० सन् १०३८ में श्री धनेश्वरसूरि ने की थी। मुनि श्री राजविजय ने इस ग्रन्थ का सम्पादन किया है । इस ग्रन्थ के 'नगर-वर्णन' से ज्ञात होता है कि वह हस्तिनापुर नामक नगर किले के परकोटे से घिरा हुआ था । उसमें अच्छे भवन थे। वहाँ के निवासी कलाओं कुशल थे । नगर की सुन्दरता दर्शनीय थी । में ६८ पक्खि-भयुप्पायरण विसाल - सालेख रमणीय - मगर - तोरण- गोउर-दारेहिं नील- बहल उववरण- विरायमारगाव सारण-भागेहिं मत्ता लंब - गवक्खय-जुएहि नागा-भूमि- जुहि तनयर-वासि - जरग - जस-थू हेहि पासाएहि किज्जत व रज्जेहिं परिपूरिएहि तो Jain Educationa International ब्व तह प्रवरावर-देसागएण after-कला- निउरणं पइदियहं परिगयं रम्मं । परिकिन्न ॥१॥ I वरचित्त- जुत्तेहिं ॥२॥ तुसार-धवलेहिं । निच्चमइरम्मं ||३|| तन्नयर - वारिणा चेव । वणिय - लोए ||४॥ विरायमाणं श्ररोग हट्ट हिं । बहु-मुल्ल कियागग-सएहि ||५|| उत्त ुंग-मगर - तोरण-पवण द्वय धवल धय- वडड्ढेहिं 1 सुन्दर देवउ उवसोहिय सुन्दर - पएस || ६ || For Personal and Private Use Only प्राकृत काव्य - मंजरी Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तह पंडु-पउम-संडोह-मंडियाणेय-गुरुतर-सरेहि सोवाण-पंति-सुगमावयार-वावी-सहस्सेहिं ॥७॥ वर-तिय-चउक्क-चच्चर-आरामुज्जारण-दीहियाईहिं । देवाणमवि कुणतं पए पए चित्त-संहरणं ॥८॥ सयलन्नपुर-पहाणं नयरं सिरिहत्थिरणारं नाम।। नयर-गुणेहुववेयं संकासं अमर-नयरस्स ॥६।। जत्थ य निवसइ लोपो पियंवो धम्म-करण-तल्लिच्छो । दक्खिन्न-चाय-भोगेहिं संगो तह कला-कुसलो ।।१०।। जत्थ य पुरम्मि निच्चं इनो तो बहु-पोयण-परेण । भमिर-जण-समुदएणं दुस्संचाराप्रो रत्थाओ ॥११।। जत्थ य कोडि-पडाया-पच्छाइय सयल-गयण-मग्गम्मि । लोप्रो गिम्हदिरणेसु वि रविकरतावं न याणेइ ।।१२।। जत्थ य पुरम्मि पुरिसा घर-भित्ति-निहित्त-मणि-मऊहेहिं । निच्चं हयंधयारे गयं पि राइं न याणन्ति ॥१३॥ रम्मत्तणो जस्स य पलोयरत्थं व आगया देवा । कोउगवक्खित्तमणा अणमिस-नयत्तणंपत्ता ॥१४।। धवलहर-सिसर-विरइय-पवण-पहल्लंत-वेजयन्तीम्रो । सन्नन्ति व रविणो सारहिस्स अइउच्च-गमणट्ठा ।।१५।। जत्थ य पुरम्मि दीसइ पाय-पहारो उ रंग-भूमीसु । दंडो उ धय-वडाणं सीसच्छेप्रो जुयारीण ।।१६।।* 000 "सुरसुन्दरीचरिय'-सं०-मुनि श्री राजविजय, बनारस, १६१६ से उद्ध त । गाथानुक्रम प्रथम परिच्छेद, गाथा ५५ से ७१ । कृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. शब्दार्थ : पडिवक्ख: ७० == भूमि कियाराग किराना सर == तालाब तल्लिच्छ - तत्पर वेजयन्ति पताका २. रिक्त स्थानों की पूर्ति (क) शब्दरूप दाहि वासिणा देवउलेहि शत्रु मंजिल = = Jain Educationa International पए दिणेसु संधिवाक्य निच्चमरम्म मंडियाणेय सुगमावयार हयंधयारे आरामुज्जाण (ग) समासपद कलाकुसलो निम्हदिणेसु पापहारो रंगभूमी सीसच्छेओ पइदिय अभ्यास साल तुसार = बर्फ देवउल सोवाण मउन्ह सारहि कीजिए : मूल शब्द दार पअ दिग किला = मन्दिर सीढ़ियाँ किरण सारथी = 1 विभक्ति तृतीया विच्छेद निच्चं + अइरम्मं मंडिय + अणेय सुगम + अवयार हय + अंधयारे आराम + उज्जाण विग्रह कलासु + कुसलो ******** + + + सीसस्स + ओ पड़ + दियह For Personal and Private Use Only मत्तालम्ब= = वरामदड = खम्भा समूह बावड़ी रात्रि -- आशंका थूह संडोह बावी राई संकास ए.व. ब०व० ....... ***** POPD ... = = लिंग नपुं० संधिकार्य समासनाम *****... ..... प्राकृत काव्य-मंजरी Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (घ) क्रियारूप निवसइ जाइ सन्नन्ति (ङ) कृदन्त परिकिन्न किज्जंत विरायमाखं उवसोहिम आगया ३. वस्तुनिष्ठ प्रश्न : सही उत्तर का क्रमांक ४. लघुत्तरात्मक प्रश्न : मूल किया www. ******www १. वह नगर घिरा हुआ था (क) सेना से ( ग ) परकोटों अर्थ युक्त किये जाते हुए सुशोभित शोभित आए हुए प्रश्न का उत्तर एक वाक्य में लिखिए: प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International काल ***** wwwwwwws पहिचान भू० कृ० व० कृ० व० कृ० कोष्ठक में लिखिए : ५ निबन्धात्मक प्रश्न एवं विशदीकरण : भू० कृ० भू० कृ० (ख) महलों से (घ) नहर से २. गुणों के समूह से वह नगर शोभा धारण करता था (क) राजा के नगर की (ग) नृत्यशाला की (ख) (घ) पुरुष ....www मूलक्रिया अनियमित क विराय उवसोह अनियमित १, हस्तिनापुर नगर में कैसे लोग रहते थे ? २. वहाँ के लोगों को सूर्य की गर्मी क्यों नहीं लगती थी ? ३. वह नगर देवताओं के मन को किन चीजों से हरण करता था ? For Personal and Private Use Only राजधानी की देव-नगर की (क) हस्तिनापुर नगर का वर्णन ५-७ पंक्तियों में कीजिए । (ख) वहाँ के लोगों के स्वभाव का वर्णन कीजिए । (ग) गाथा नं ० १३ एवं १४ का अर्थ समझाकर लिखो । वचन wwww www.www ******** प्रत्यय इज्ज + अंत मारण इ+य 1 [ ] ७१ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १८ : समुह-गमणं पाठ-परिचय : लगभग चौदहवीं शताब्दी की लिखी हुई एक हस्तलिखित पुस्तक प्राप्त हुई है। इसका नाम पाइप्रकहासंगहो है। इस प्राकृत कथा-संग्रह में १२ कथाएँ हैं, जो पद्मचन्द्रसूरि के किसी शिष्य द्वारा लिखित विक्रमसेनचरित नामक प्राकृत ग्रन्थ से संग्रहीत की गयी हैं । इस ग्रन्थ में दान, शील, तप, भावना आदि से सम्बन्धित कथाएं हैं । उन्हीं कथाओं में समुद्रदत्त की कथा है । समुद्रदत्त पुरुषार्थों युवक है । उसके समुद्रगमन का वर्णन इस पाठ में है। चितइ य निसासेसे समुद्ददत्तो अहन्नसमयंमि । जो जणयज्जियलच्छि उवभुजइ अहमचरिओ सो ॥१॥ किं पढिएणं, बुद्धीए कि, व कि तस्स गुणसमूहेण । जो पियरविढत्तधणं भुजइ अज्जणसमुत्थो वि ॥२॥ जणरिण-जणयाणचलणे नमिउं विनवइ जोडियकरो सो। जलमग्गेणं अज्जिय बहुदव्वं प्रागमिस्सामि ।।३।। ताई वि भणंति पत्तय! लच्छी विउला वि अत्थि अम्ह गिहे । एयं चिय वच्छ! तुमं भुजसु निच्चं स-इच्छाए ॥४॥ प्रोवाइय-सय-लद्धो एगो चिय अम्ह पुत्तो सि । तुम्हारिसारण सुहय-लालियाण दुग्गो जलहिमग्गो ।।५।। उच्छाहुल्हसि-तणू समुदत्तो पयंपए तत्तो ।। सुगमं व दुग्गमं वा कुरणेइ किं धीरपुरिसारण ॥६॥ पुव्वपुरिसज्जियाई धणाई विद्दवइ को न इच्छाए। जे समज्जिय भुजन्ति हुन्ति ते उत्तमा के वि ॥७॥ ७२ प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किं बहुणा भरिणएणं, जह तह व मए अवस्स गंतव्वं । तं निच्छयं मुरणेउं विसज्जिो तेहिं कहकहवि ॥८॥ काऊण जलहिपूयं चलणे नमिऊग जणणि-जणयाण । दिन्नासीसो तेहिं चडिओ वहरपंमि सेट्ठि-सुप्रो ॥६॥ चरिणउत्तेहि समेग्रो सुवियक्खण-णेय-मित्त-संजुत्तो। पवरणरष कुलेरखं पत्तने दोबंमि एपंमि ॥१०॥ मण-इच्छिय-लाहेण विक्किरिणय कयारणगाई तत्थेव। गहिऊरण अहिरणवाइं तेरण उप्पेलियं वहणं ॥१२॥ जा कि पि गयो मग्गं उच्छलियो ताव कालिया वायो। संजायं वद्दलयं खलुव्वरवे गज्जिो मेहो ॥१२॥ डुल्लेइ जाणवत्त मणब्व दारिद्द-पीडिय-जणस्स । जा निज्जामय-लोभो खिबइ अहो नंगरो झत्ति ।।१३।। आउल-वाउल-हियमो उस्सारइ जाव सियवडे वियडे । संचारइ य जाब य माउलयाई सुबहुयाई ।।१४।। ता फुट्ट तं वहणं जलहिमज्झे इच्छियं रहस्मं व । को वि मनो को वि पुणो फलहं लहिऊरण उत्तरिमओ ।।१५।। सिटि-सुप्रो विहु फलहं अवलंबइ बल्लहं व लहिऊण । तरमारणो कहकहमवि गिरिमि पत्तो गिरावते ॥१६॥ पुरिसाण आवयच्चिय बहेइ कसवट्टए सतुल्लत्त । एयाए निवडियो जो खलु करणयं व सो जच्चो ॥१७॥ ००० । 'पाहयकहासंगहो' सं० - पं० श्रीमानविजय एवं पं० श्रीकान्तविज , उद्ध त । पायानुक्रम-पृ० ४१, गाथा १८ से २५, २८ से ३५ एवं ४० । कृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभ्यास १. शब्दार्थ : लच्छी = सम्पत्ति अहम = नीच जरगरणी = माता जरण्य = पिता विउला = बहुत वच्छ = पुत्र तुम्हारिस = तुम्हारे जैसे दुग्गो = कठिन समेन = सहित अहिणव= नया । बद्दलयं = बादल खलु = दुर्जन । २. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए : (क) शब्दरूप मूलशब्द विभक्ति समयम्मि बुद्धीए प्रज्जरण = कमाना ताई = वे प्रोवाइय = उपाय निच्छयं = निश्चय वा = हवा निज्जामय = मल्लाह वचन लिग ........ ........ चलणे : धीरपुरिसाण धरणाई सियवडे : सियवड प्रथमा ब०व० पु० संधिवाक्य संधिकार्य अ+अ=अ अहन्न जयज्जिय उच्छाहुल्हसिय दिन्नासीसो अ+उ=उ (ग) विच्छेद अह +अन्न जणय +अज्जिय उच्छह + उल्हसिय दिन +आसीसो विग्रह निसा+सेसे गुणारण + समूहेण पियरेण +विढत्तधणं जलस्स +मग्गेण सुहेण +लालियाण समासपद निसासेसे गुणसमूहेण पियरविढत्तधणं जलमग्गेणं सुहलालियारण समासनाम ष० तत्पुरुष ................ प्राकृत काव्य-मजरो Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ........ .... .... ............ मुणे भू०पू० माग क्रियारूप मूलक्रिया काल पुरुष वचन विन्नवइ भुजसु कुणेइ . विद्दवइ विद्दव कृदन्त अर्थ पहिचान मूलक्रिया प्रत्यय पयंपए कहा भू कृ० . अनियमित जानकर विसज्जिओ भेजा भ०० विसज्ज इ+अ पत्तो पहचा भू०० अनियमित गज्जिओ गरजा तरमाणो तैरता हुआ व०कृ० तर ३. वस्तुनिष्ठ प्रश्न : सही उत्तर का क्रमांक कोष्ठक में लिखिए : १. जो पिता द्वारा कमायी हुई लक्ष्मी का भोग करता है वह - (क) बुद्धिमान है (ख) श्रेष्ठ पुत्र है (ग) अधम चरित्र वाला है (घ) आलसी है। [ ] २. माता-पिता ने कहा कि समुद्र-मार्ग(क) सरल है (ख) किले की तरह कठिन है (ग) सस्ता है (घ) धन देने वाला है [] ४. लघुत्तरात्मक प्रश्न : प्रश्नों के उत्तर एक-एक वाक्य में लिखिए : १. समुद्रदत्त धन कमाने के लिए क्यों जाना चाहता था ? २. लौटते समय समुद्रदत्त को किस कठिनाई का सामना करना पड़ा? ३. स्वर्ण की तरह खरा व्यक्ति कौन होता है ? ३. निबन्धात्मक प्रश्न एवं विशदीकरण : (क) समुद्रदत्त के विचारों को अपने शब्दों में लिखिए। (ख) गाथा नं० २, ७ एवं १६ का अर्थ समझाकर लिखिए। कृत काव्य-मंजरी ७५ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । पाठ १६ : गुरूवएसों पाठ-परिचय : प्राकृत में कुछ ग्रन्थ गद्य-पद्य दोनों में लिखे मये हैं। ऐसे ग्रन्थों को विद्वानों ने चम्पूकाव्य कहा है। आचार्य हरिभद्रसूरि के शिष्य उद्द्योतनसूरि के द्वारा आठवीं शताब्दी में जालोर में लिखित कुवलयमालाकहा इसी प्रकार का चम्पूकाव्य है। कुवलयमाला प्राकृत कथा-साहित्य का प्रतिनिधि ग्रन्थ है । यह कथा, काव्य, संस्कृति की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसका सम्पादन डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने किया है। 'कुवलयमालाकहा' में कुवलयमाला एवं कुवलयचन्द के चार जन्मों की कथा वणित है। क्रोध, मान. माया, लोभ और मोह इन पांच भावनाओं को कथा के पात्र बनाकर उनके जीवन के उत्थान की कथा इस ग्रन्थ में कही गई है। इस ग्रन्थ से पता चलता है कि कोई भी व्यक्ति अपने दुगुणों और अनैतिक आचरण को सज्जन लोगों के सम्पर्क तथा अपने पुरुषार्थ से सुधार सकता है। जीवन में अच्छा आचरण धारण करने के लिए इस ग्रन्थ के पात्रों को सन्त पुरुष कुछ उपदेश देते हैं। उन्हीं में से कुछ उपदेशों को यहाँ गुरु-उपदेश के नाम से दिया जा रहा है । मा मा मारेसु जोए मा परिहव सज्जणे करेसु दयं। मा होह कोवरणा भो खलेसु मित्ति च मा कुरणह ॥१॥ मा कुणह जाइगव्वं परिहर दूरेण धण-मयं पावं।। मा मज्जसु गाणेणं बहुमाणं कुणह जहरूवे ।।२।। मा हससु परं दुहियं कुणसु दयं णिच्चमेव दीगम्मि ।। पूएह गुरु णिच्चं वंदह तह देवए इ8 ॥३॥ सम्माणेसु परियणं पणइयणं पेसवेसु मा विमुह । अण मण्णह मित्तयणं सुपुरिसमग्गो फुडो एसो ॥४॥ मा होह गिरण कंपा ण वंचया कुरणह ताव संतोसं । मागत्थद्धा मा होह णिक्किंपा होह दायरा ।।५।। प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा कस्स वि कुरण रिंगदं होज्जसु गुण-गेण्हण ज्जो रिणययं । मा अप्पयं पसंसह जइ वि जसं इच्छसे धवलं ॥६।। परवसणं मा गिदह नियवसणे होह बज्जघडिय व्व । रिद्धीसु होह पणया जइ इच्छह अत्तणो लच्छी ।।७।। मा कडुयं भणह जणे महुरं पडिभरणह कडुयभणिया वि । जइ गेण्हिऊरण इच्छह लोए सुहयत्तरण-पडायं ॥८॥ हासेण वि मा भण्उ गवरं जं मम्मवेहयं वयणं । सच्चं भणामि एतो दोहग्गं पत्थि लोयम्मि ।।६।। धम्मम्मि कुणह वसणं रानो सत्थेसु रिणउणभरिणएसु । पुरणरुत्तं च कलासु ता गणणिज्जो सुयणमझे ।।१०।। मा दोसे च्चिय गेण्हह विरले वि गुणे पयासह जणस्स। अक्ख-पउरो वि उयही भण्णइ रयणायरो लोए ॥११।। जाव य ण देन्ति हिययं पुरिसा कज्जाइं ताव विहणंति । अह दिण्णं चिय हिययं गुरु पि कज्जं परिसमत्तं ।।१२।। हिम-सीय-चन्द-विमलो पए पए खंडिगो तहा सुयणो । कोमल-मुणाल-सरिसो सिणेह-तंतू ण उक्खुडइ ॥१३॥ थेवं पि खुडइ हियए अवमाणं सुपुरिसाण विमलारण । वाया-लाहय-रेणं, पि पेच्छ अच्छि दुहावेइ ।।१४।।* 000 * 'कुवलयमाला'- सं० - डॉ० ए० एन० उपाध्ये, से उद्ध त । पृ० ४३, ४४, ३, १३ ६३, १०३ । प्राकृत काव्य-मंजरी ७७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभ्यास १. शब्दार्थ : . कोवरण = क्रोधी गाण = ज्ञान गुरु = बड़े लोग परणइयण = प्रेमीजन वसण = विपत्ति दोहग्गं = दुर्भाग्य नाइ = कुल पर = अन्य इट्ट = इच्छित फुड = स्पष्ट परणय- विनम्र बसण-- अभ्यास मय = घमण्ड दुहिय = दुखी परियण= सहकर्मी त्थद्धा = स्थित सुहयत्तरग-अच्छापन सत्थ = शास्त्र २. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए : शब्दरूप मूल शब्द सज्जेरण विभक्ति वचन लिग पावं .... .... ........ .... .... ....... ........ . ....... ....... .... दोणम्मि वयणं उयही तंतू संधिवाक्य रिणरणुकंपा रयणायरो संधिकार्य अ+अ-अ अ+आ=आ विभक्ति गिर + अणुकंपा रयण +आयरो विग्रह जाइगो+गव्वं ......"+"""" समासपद जाइगव्वं समासनाम ष० तत्पुरुष .... . ........ धरणमयं ........ .. .... सुपुरिसमग्गो परवसरणं सुयरणमझे सिणेहतंतू सुयणे +मज्झे सप्तमी त० .... .. .... ... ..... ७८ प्राकृत काव्य-मंजरी For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ............ ....... ............ अर्थ क्रियारूप मलक्रिया काल पुरुष - वचन मारेसु मार आज्ञा म०पु० ए०व० होज्जसु होज्ज उक्खुडइ उखुड कृदन्त पहिचान मूलक्रिया प्रत्यय पणया झुके हुए भू०० अनियमित भणिया ___ कहे हुए भू०० भरण इ+य ३. वस्तुनिष्ठ प्रश्न : सही उत्तर का क्रमांक कोष्ठक में लिखिए : १. मैत्री नहीं करना चाहिए - : (क) सज्जनों से (ख) गुरुओं से (ब) दुर्जनों से (घ) गरीबों से [] २. यदि निर्मल यश चाहते हो तो - (क) दुखियों की निन्दा मत करो (ख) कडुवा न बोलो (ग) अपनी प्रशंसा मत करो (घ) दूसरों को न ठगो [ ] ३. समुद्र को कहा जाता है - (क) दुगुणों की खान (ख) लक्ष्मी का घर (ग) रत्नाकर (घ) घोंघों का घर [ ] ४. लघुत्तरात्मक प्रश्न : प्रश्नों के उत्तर एक वाक्य में लिखिए : १. यदि अपनी लक्ष्मी चाहते हो तो क्या करना चाहिए? २. संसार में सबसे अधिक दुर्भाग्य क्या है ? ३. किन-किन बातों का घमण्ड नहीं करना चाहिए ? ४. सज्जनों के हृदय में क्या दुख उत्पन्न करता है ? ५. निबन्धात्मक प्रश्न एवं विशदीकरण : (क) पाठ की शिक्षाएँ अपने शब्दों में लिखिए। (ख) गाथा नं०८, १२, एवं १३ का अर्थ समझाकर लिखो। प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 20 : सिक्खानीई पाठ-परिचय : प्राकृत आगम-ग्रन्थों में से विनोबा जी की प्रेरणा से श्री जिनेन्द्रवर्णी ने ७५६ गाथाओं का एक संकलन तैयार किया। समाज ने उसे 'समणसुत्त' नाम से स्वीकृत किया है। यह समणसुत्त गीता, धम्मपद, बाइबिल, कुरान आदि ग्रन्थों जैसा आध्यात्मिक ग्रन्थ है। उसमें जीवन के उत्थान के लिए कई शिक्षा-सूत्र भी उपलब्ध हैं। समणसुत्त की सौ गाथाओं को चुनकर दर्शन के प्रोफेसर एवं प्राकृत के अध्येता डॉ. कमलचन्द सोगाणी ने समणसुत्त-चयनिका नामक पुस्तक तैयार की है। उसी में से कुछ गाथाएँ यहाँ प्रस्तुत की गर्य है । उनमें आचार्य-स्वरूप, आदर,अप्रमाद जागरूकता, सरलता, सत्य. समन्वय इत्यादि से सम्बन्धित शिक्षा-नीतियाँ कही गयी हैं। जह दीवा दीवसमं, पइप्पए सो य दिप्पए दीवो। दीवसमा आयरिया, दिप्पंति परं च दीवन्ति ।।१।। जस्स गुरुम्मि न भत्ती, न य बहुमाणो न गउरवं न भयं । न वि लज्जा न वि नेहो, गुरुकुलवासेण किं तस्स ॥२॥ विवत्ती अविणीअस्स, संपत्ती विणीअस्स य ।। जस्सेयं दुहनो नायं, सिक्खं से अभिगच्छइ ॥३।। अह पंचहिं ठाणेहिं. जेहिं सिक्खा न लब्भई । थम्भा कोहा पमाएणं, रोगेणालस्सएण ॥४॥ नालस्सेण समं सुक्खं, न विज्जा सह निद्दया। न वेरग्गं ममत्तेण, नारंभेण दयालुया ॥५॥ जागरह नरा! णिच्चं, जागरमाणस्स वड्ढते बुद्धी। जो सुवति । सो धन्नो, जो जग्गति सो सया धन्नो ॥६॥ ८० प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणथोवें वणथोवं, अग्गीथोवं कसायथोवं च।। न हु भे वीससियव्वं, थोवं पि हु तं बहु होइ ।।७।। कोहो पीइं फ्णासेइ, मारणो विणयनासणो। माया मित्तारिण नासेइ, लोहो सम्वविसासरसो ।।८।। उवसमेण हणे कोहं, माणं महवया जिणे। मायं चाज्जवभावेण, लोभं संतोसमो जिणे ।।६।। से जाणमजाणं वा, कटु अाहम्मिग्रं पयं । संवरे खिप्पमप्पारणं, वीयं तं न समायरे ॥१०॥ जो चितेइ ण वंक, ण कूरणदि वकं ग जंपदे वकं । ण य गोवदि णियदोसं, अज्जव-धम्मो हवे तस्स ॥११।। सच्चम्मि वसदि तवो सच्चम्मि संजमो तह वसे सेसा वि गुणा। सच्चं रिपबंधणं हि य, गुणाणमुदधीव मच्छाणं ।।१२।३ हय नाणं कियाहीणं, हया अण्णाणो किया। पासन्तो पंगुलो दड्ढो, धावमारणो य अंधश्रो ॥१३॥ संजोअसिद्धीइ फलं वयन्ति, न हु एगचक्केरण रहो पयाई। अंधो य पंगू य वणे समच्चिा , ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा ।।१४।। सुबहु पि सुयमहीयं कि काहिइ चरणविप्पहीणस्स । अंधस्स जह पलित्ता, दीवसय-सहस्सकोडी वि ॥१५॥ ___000 * गाथानुक्रम - पहले चयनिका-गाथा नं० एवं बाद में समणसुत्त -गाथा- ६८/१७६, १७/२६, ६६/१७०, ६७/१७१, ६४/१६७, ६५/१६८, ४८/१३४, ४६/१३५, ५०/१३६, ५२/१३८, ३५/६१, ३६/६६, ७२/२१२, ७३/२१३, ७६/२६६ । प्राकृत काव्य-मंजरी ८१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचन ............ ........ ........ ............ .... ... .... ........ अभ्यास १. शब्दार्थ : नेह = स्नेह दुहरो = दोनों प्रकार से थम्भा = अहंकार से प्रारम्भ = हिंसा अरण = ऋण वरण = घाव माया = कपट पंगुल = लंगड़ा भत्ती = भक्ति रह = रथ सुय = शास्त्र चरण = चरित्र २. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए : शब्दरूप मूलशब्द विभक्ति लिंग दीवा भत्ती पीई मच्छारणं पगू संसारे अंधस्स संधिवाक्य विभक्ति संधिकार्य जस्सेयं जस्स +एवं अ+ए-ए नारंभेण न +आरंभेण अ+आ=आ नालस्सेण """"+ """" चाज्जव च +अज्जव जाणमजारणं जाणं +अजाणं खिप्पमप्पारणं .....+.... गुरगाणमुदधीव गुणाणं+उदधि +इव समासपद विग्रह समासनाम गुरुकुलवासेण गुरुकुले+वासेण विणयनासो विणयं + नासणो द्वि० त० एगचक्केय एगेण+चक्केण .... .. .... .... ... ............ ................ ................ ................ प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुष मूलक्रिया अनियमित ....".... वचन ए०व० क्रियारूप पइप्पए दिप्पए बड्ढते वर्तमान अ०पू० ......... पणासेड ए०व० हणे कृदन्त पणास व०का अनियमित विधि अर्थ पहिचान जान लिया है भू०० करके सं०० जल गया अ.पु. अ०० मूलक्रिया अनियमित प्रत्यय नायं कट्टु दड्ढो भू.कृ. ३. वस्तुनिष्ठ प्रश्न : सही उत्तर का क्रमांक कोष्ठक में लिखिए : १. आचार्य किसके समान होते हैं - (क) चन्द्रमा के (ख) सूर्य के (ग) दीपक के (घ) पतंगे के २. दयालुता नहीं ठहरती है - (क) गरीबी के साथ (ख) नींद के साथ (ग) जीव-हिंसा के साथ (घ) क्रोध के साथ [ ] [ ] ४. लघुत्तरात्मक प्रश्न : प्रश्नों के उत्तर एक-एक वाक्य में लिखिए : १. किन पाँच कारणों से शिक्षा प्राप्त नहीं होती है ? २ जीवन में सरलता किसके होती है ? ३. चरित्रहीन व्यक्ति का ज्ञान किसके समान है ? ५. निबन्धात्मक प्रश्न एवं विशदीकरण : (क) शिक्षा-नीति पाठ की कोई ५ शिक्षाएँ लिखिए। (ख) सत्य के महत्त्व पर ५-७ पंक्तियाँ लिखिए। (ग) गाथा नं. ८, ९, १० एवं १५ का अर्थ समझाकर लिखिए। प्राकृत काव्य-मंजरी ८३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ २१ : कुसलो पुत्तों पाठ-परिचय : प्राख्यानमरिणकोश में से एक व्यापारी के तीन पुत्रों की कथा यहाँ प्रस्तुत की जा रही है। इस कया में नयसार नामक व्यापारी एक दिन विचार करता है कि उसके तीन पुत्रों में से कुटुम्ब के मुखिया का पद सम्हालने वाला कौन पुत्र होगा ? अतः उनकी बुद्धि और लगन की परीक्षा के लिए वह उन्हें एक-एक लाख रुपये व्यापार के लिए देता है । एक वर्ष के समय के भीतर जो पुत्र उन रुपयों का जैसा उपयोग करता है, उसको वैसा ही काम सौंपा जाता है । यह कथा प्रतीक कथा है, जो यह बतलाती है कि कुल की इज्जत को सुरक्षित रखते हुए उसे और आगे बढ़ाने का प्रयत्न करने वाला पुत्र ही कुशल पुत्र होता है। जो ऐसा नहीं करता उसे कठोर परिश्रम वाला कार्य करना पड़ता है और दूसरे के अधीन रहना होता है। नयरम्मि वसन्तपुरे नायरयजणाण मोरवट्ठाणं । निवसइ सुइववहरणो नयसारो नाम पुरसेट्ठी ॥१॥ अह अन्नया य को किर कुडुम्ब-पय-समुचिो महं होही। इय चिंताए तिण्हं पुत्तारण परिक्खरणनिमित्त ।।२।। निय-सयण-बन्धु-पमुहं नायरयजणं निमंतिउं गेहे । भोयाविऊरण विहिणा तस्स समक्खं भरणइ सेट्ठी ॥३॥ एएसि मह सुयाणं तिष्हं पि हु को कुडुम्ब-पय-जोगो। तं चेव विसेसेरणं जागसि जोगो त्ति तेण त्तं ॥४॥ इय एवं ता तुम्हें समक्खमेए अहं परिक्खेमि । इय भरिणउं वाहरिया तिन्नि वि ते पउर-पच्चक्खं ॥५॥ पत्तेयं पत्तेयं लक्खं दाऊरण दविणजायस्स । ववहारत्थं देसेसु पेसिया तस्स समक्खमिमे ॥६॥ ८४ प्राकृत काव्य-मंजरी For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो तेसिं पुत्ताणं चितियमेगेणमम्हमेस पिया । पाएण दोहदरिसी धम्मपियो सुइ-समायारो ॥७।। पाणच्चए वि अम्हाणमूवरि न कयावि चितइ विरूवं ।। केणावि कारणेणं ता नूणं एत्थ भवियव्वं ॥८॥ इय परिभाविय तहियं तह कहवि हु नियमईए ववहरियं । जह विढविऊरण कोडी वरिसन्ते पूरिया तेण ।।६।। बीएण चितियमिमं मम पिउणो विज्जए पभूय धणं । ता किं किलेसजाले पाडेमि मुहाए अप्पाणं ॥१०॥ जइ सव्वं पि य विलसामि ता गयो कह मुहं पयंसिस्सं । तम्हा मूलं रक्खिय सेसं भक्खेमि किं बहुणा ॥११॥ तइएणमजोगत्ता विगप्पियं नियमणम्मि मह जणयो। वुड्ढत्तणदोसेहिं संपइ कोडिको जम्हा ॥१२।। तिट्ठा लज्जानासो भयबाहुल्लं विरूवभासित्तं । पाएण मण स्साणं दोसा जायन्ति वुड्ढत्ते ॥१३।। अन्नह कहमम्हे पट्टवेइ देसंतरम्मि सइ विहवे । इय परिभाविय सव्वं वरिसंते भक्खियं दव्वं ॥१४॥ संपत्ता सव्वे वि हु नियसमए वन्नियस्सरूवा ते । पुणरवि तहेव विहिऊरण सेट्ठिणा भोयणाईयं ।।१५।। सयणाईण समक्खं पढमो संठाविमो कुडुम्बपए। बीअो भण्डारपए तइयो किसिमाइकज्जेसु ॥१६॥* 000 * 'आख्यानमणिकोश'-सं०- मुनि पुण्यविजय, से उद्ध त । गाथानुक्रम-आख्यानक ६२, पृ० १७७-७८, गाथा २ से १७ तक । प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभ्यास १. शब्दार्थ : पुरसेटि = नगरसेठ परिक्खरण = परीक्षा समक्खं = सामने दविणजाय = स्वर्णमुद्रा विरूवं = विपरीत तिट्ठा = तृष्णा महं = मेरा सयरण = स्वजन जोग = योग्य ववहार = व्यापार किलेस = कष्ट वुड्ढत्तरण= बुढ़ापा तिण्हं = तीन नायरय = नागरिक पत्तेयं = प्रत्येक पिया = पिता मुहाए = व्यर्थ में तइम = तीसरा ........ .... ........ ............ ........ २. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए : (क) शब्दरूप मूलशब्द विभक्ति लिंग विहिणा मईए दोसेहि विहवे (ख) संधिवाक्य विच्छेद संधिकार्य तेणुत्तं तेण+उत्त अ+उ=उ समक्खमिमे समक्खं+इमे चितियमेगेणमम्हमेस चितियं+ एगेणं +अहं +एस अनुस्वार को म अम्हारणमुवरि ... .."+ ... " भोयणाईयं भोयण+आईयं समासनाम षष्ठी तत्पुरुष समासपद गोरवट्ठाणं पुरसेट्ठी किलेसजाले वुड्ढत्तणदोसेहिं भंडारपए विग्रह गोरवस्स+टाणं ............+ .... किलेसाण+जाले ............. ......... ..................... ................ ................ प्राकृत काव्य-मंजरी For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (घ) कियारूप परिक्खेमि जायन्ति भक्खे मि (ङ) कृदन्त निमंति पेसिया पूरिया रखिय परिभाविय ३. वस्तुनिष्ठ प्रश्न : ४. लघुत्तरात्मक प्रश्न : मूलक्रिया अर्थ निमन्त्रण कर *********** पूरी कर ली प्राकृत काव्य - मंजरी ***********.*** Jain Educationa International विचार कर काल ******* ******** कोष्ठक में लिखिए: सही उत्तर का क्रमांक १. नयसार सेठ ने अपने पुत्रों को बुलाया था ( क ) ईनाम देने के लिए ( ख ) (ग) विदेश भेजने के लिए (घ) २. पहले पुत्र ने मूल पूँजी को (क) खा लिया ५. निबन्धात्मक प्रश्न एवं विशदीकरण : पहिचान सं०कु० भू० कृ० (ख) (ग) बढ़ाकर १ करोड़ कर लिया (घ) सं० कृ० प्रश्नों के उत्तर एक-एक वाक्य में लिखिए: १. नयसार अपने पुत्रों की परीक्षा किस लिए तीसरे पुत्र ने अपने बूढ़े पिता के २. ३. परिवार के प्रमुख का पद किस पुरुष मूलक्रिया प्रत्यय निमंत पूर परीक्षा करने के लिए सलाह करने के लिए ........ परिभाव For Personal and Private Use Only सुरक्षित रखा दान दे दिया करना चाहता था ? सम्बन्ध में क्या सोचा ? पुत्र को और क्यों मिला ? ( ख ) (क) इस पाठ का सार अपने शब्दों में लिखिए । कुशलपुत्र के विचार अपने शब्दों में लिखिए । (ग) गाथा नं० १० एव ११ का अर्थ समझाकर लिखिए । घचन इ+उंौं इ+य इ + [ ] [ ] ८७ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-परिचय : पाठ २२ : साहसी अगडदत्तो उत्तराध्ययनसूत्र पर आचार्य नेमिचन्दसूरि की सुखबोधा टीका में से १२ कथाओं का सम्पादन एवं प्रकाशन मुनि श्री जिनविजय ने प्राकृतकथा-संग्रह नाम से किया है । उन्ही कथाओं में से यह अगडदत्त की कथा का एक अंश यहाँ प्रस्तुत है । अगडदत्त कथा एक प्रचलित लोककथा है। चौथी शताब्दी में लिखित 'वसुदेवहिण्डी' नामक प्राकृत ग्रन्थ यह कथा मूलरूप में मिलती है। उसके बाद कई लेखकों ने इसे लिखा है । प्रस्तुत कथांश में अगडदत्त के उस साहस - कार्य का वर्णन है, जिसमें उसने एक मदोन्मत हाथी को अपने वश में किया है। देखकर नगर के राजा ने उसका सम्मान किया । उसके इस कार्य को ८८ अन्न मि दिने सो राय-नन्दणो वाहियाए तुरयारूढो वच्चइ ता नयरे कलयलो किं चलिउ व्व समुद्दो किं वा जलियो हुयासणो घोरो । किं पत्तं रिउ - सेन्न तडि-दण्डो निवडियो किं वा ॥२॥ मग्गेणं । जाओ ॥ १ ॥ । एत्थन्तरम्मि सहसा दिट्ठो कुमरेण विहियमणे मय-वाररणो उ मत्तो निवाडियालारण - वर - खम्भो ||३|| मिठेण वि परिचत्तो मारेन्तो सोण्ड - गोयरं पत्ते । सवडं मुहं चलन्तो कालो व्व अकारणे कुद्धो ||४|| तुट्ट-पय-बन्ध-रज्जू संचुणिय-भवरण- हट्ट - देवउलो । खण - मेण पयण्डो सो पत्तो कुमर पुरोति ॥ ५ ॥ तं तारिस- रूव-धरं कुमरं दट्ठूण नायर जेहिं । गहिर- सरें भरिणम्रो प्रोसर ओसर करि पहा ||६|| Jain Educationa International कुमरेण वि नियतुरयं परिचइऊणं सुदक्ख-गइ-गमरणं । हक्कारि इन्द- गइन्दस्स सारिच्छो ||७|| इन्दो For Personal and Private Use Only प्राकृत काव्य-मंजरी Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सुरिण कुमार - सद्दं दन्ती पज्झरिय-मय- जल पवाहो । तुरियो पहावियो सो कुद्धो कालो व कुमरस्स ||६|| कुमरे य पाउरणं संवेल्लेऊण हिंदु-चित्तेषं । सोण्डापुर उ पखित्तं ॥६॥ 'धावन्त-वाररस्स कोवेण धमधमेन्तो दन्तच्छोभे ख कुमरो वि पिटुभाए पहराइ ता प्रधाव धावइ चलइ खलइ परिणश्रो तहा होइ । 'परिभमइ चक्क - भमरणं दोसेखं अइव महन्तं वेलं नियय- वसे काऊचं ग्रह तं गइन्द-खेडु अन्तेउर- सरिसेपं देइ सो तस्मि । दढ -मुट्ठि - पहरेमं ।।१०।। प्राकृत काव्य - मंजरी धमधमेन्तो सो ||११|| Jain Educationa International खेल्लावऊरण मारूढो ताव खन्धम्मि तं गयं पवरं । मरणोहरं सयल - नयर-लोयस्स पलोइयं नरवरिन्देवं ।। १३॥ दट्ठ, कुमरं गय-खन्ध-संठिये सुरवई व सो रायो । पुच्छइ निय- भिच्च यणं को एसो गुण-निही बालो || १४ || तेएणं अधिमयरो सोमत्तणएण तह य निसिनाहो । सब्व-कलागम-कुसलो वाई सूरो सुरूवो य ।।१५।। को चित्ते मऊरं ग घ को कुरणइ रायहंसा । को कुवलयारण गन्धं विरणयं च कुल-प्पसूयाखं ॥ १६ ॥ साली भरेग तोएण जलहरा फलभरेण तरु- सिहरा । चिप य सरिसा नमन्ति न हु कस्स वि भएर ||१७|| * 000 'प्राकृत कथा - संग्रह' – सं० मुनि जिनविजय, से उद्धत । पाथानुक्रम - ७- अगंडदत्त, ७२, ७५ और ७६ । माथा ५१ से ६५ एवं ७१, 118211 For Personal and Private Use Only ५६ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घोर = भयंकर वारण = हाथी काल = मृत्यु पयण्ड = प्रचण्ड वेला = समय जलहर = बादल अभ्यास १. शब्दार्थ : कलयल = कोलाहल हुयासरण = अग्नि रिउसेन = शत्रु सेना तडिदण्डो == वज्र मिण्ठ = महावत सोण्ड - सूड सवडं = सामने हट्ट = बाजार सर = स्वर तुरय = घोड़ा सुरवइ = इन्द्र मही = पृथ्वी २. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए : (क) शब्दरूप मूलशब्द विभक्ति नयरे सेन्न रज्जू पहाओ पंचमी गइन्दस्स गयं तोएग वचन लिग ........ .... ...... .......... ........ ए०व० नपुं० ............ संधिकार्य संधिवाक्य तुरयारूढो निवाडियालाण कलागम ............ ............ (ग) विभक्ति तुरय+आरूढो ......"+........ ..."+ ... विग्रह रिउरणो+सेन्न .... +........ .... ........ निसीअ+ नाहो ......"+"""" समासपद रिउसेन्न रायनन्दरणो तरुसिहरा निसिनाहो गुणनिहीं समासनाम ष० तत्पुरुष ... .... .... .... प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल वचन क्रियारूप वच्चइ ओसर मूलक्रिया .... .......... ओसर ........ आज्ञा म०पु० अ०पु० ए०व० ए०व० देइ व०का० परिभमइ चिन्तेइ अर्थ मारता हुआ मूलक्रिया मार प्रत्यय ए+न्त देखा पहिचान व०कृ० भू०० सं०कृ० भू०० मारेन्तो पलोइयं दट्ठ चिन्तियं अनियमित देखकर सोचा चिन्त इ+य ३. वस्तुनिष्ठ प्रश्न : र का क्रमांक कोष्ठक में लिखिए: १. नगर में कोलाहल का कारण था - (क) राजकुमार का आगमन (ख) शत्रु की सेना (ग) पागल हाथी (घ) बिजली का गिरना [ ] २. हाथी पर चढ़ा हुआ वह कुमार था - (क) महावत की तरह (ख) राजा की तरह (ग) साधु की तरह इन्द्र की तरह [ ] ४. लघुत्तरात्मक प्रश्न : प्रश्नों के उत्तर एक-एक वाक्य में लिखिए : १. पागल हाथी ने नगर को क्या नुकसान पहुँचाया ? २. राजा ने विजयी कुमार को देखकर क्या पूछा ? ३ विनय से सज्जन पुरुष किसकी तरह झुक जाते हैं ? ५. निबन्धात्मक प्रश्न एवं विशदीकरण : (क) अगडदत्त और हाथी की लड़ाई का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए। (ख) गाथा नं० १४, १५, १६ एवं १७ का अर्थ समझाकर लिखो। प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 23 : हिंसा-खमा पाठ-परिचय : प्राकृत साहित्य के कई ग्रन्थों में विभिन्न जीवन-मूल्यों का वर्णन प्राप्त होता है। अहिंसा और क्षमा भारतीय संस्कृति के प्रमुख जीवन-मूल्य हैं। छोटे से छोटे प्राणी के जीवन का महत्त्व समझना अहिंसा का मूलमन्त्र है। सभी प्राणी जीने को इच्छा रखते हैं। किसी को दु:ख प्रिय नहीं है। अत: सब प्राणियों का आदर किया जाना चाहिए। किसी को पीड़ा नहीं पहुँचानी चाहिए, यही ज्ञान का सार है। इस प्रकार की अहिंसा को आकाश से भी व्यापक और पर्वत से भी ऊँचा (श्रेष्ठ) कहा गया है। जीवों की रक्षा करने से उन्हें भय से मुक्ति मिलती है। अभय प्रदान करने से सभी प्राणी सद्भाव से जीवनयापन करते हैं। समर्थ प्राणी, अपराधी प्राणियों के प्रति भी क्षमाभाव रखते हैं। क्योंकि किसी प्राणी का किसी दूसरे प्राणी से कोई स्थायी वैरभाव नहीं है। क्षमा के वातावरण से मैत्रीभाव विकसित होता है। इन्हीं सब अहिंसा, अभय, क्षमा आदि भावनाओं से सम्बन्धित कुछ गाथाएँ यहाँ प्रस्तुत हैं, जो प्राकृत के विभिन्न ग्रन्थों से संकलित की गयी हैं। धम्मो मंगलमुक्किट्ट, अहिंसा संजमो तवो।। देवा वि तं नमंसन्ति, जस्स धम्मे सयामणो ॥१॥ तुग न मंदरानो, आगासायो विसालयं नत्थि । जह जह जयंमि जागासु, धम्मम हिंसासमं नत्थि ॥२॥ सव्वे जीवा वि इच्छन्ति, जीविउ न मरिज्जिउं । तम्हा पाणवहं घोरं, निग्गन्था वज्जयन्ति णं ॥३॥ जह ते न पिनं दुक्खं जाणिय एमेव सव्वजीवाणं । सव्वायरमुवउत्तो, अत्तोवम्मेण कुणसु दयं ॥४॥ जीववहो अप्पवहो. जीवदया अप्पणो दया होइ । ता सव्व-जीव-हिंसा, परिचत्ता अत्तकामेहिं ॥५॥ प्राकृत काव्य-मंजरो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वेसिमासमारणं हिदयं गब्भो व सव्वसत्थाणं । सव्वेसिं वदगुणाणं पिंडो सारो अहिंसा दु ।।६।। खरण-मित्त-सुक्ख-कज्जे जीवे निहणन्ति जे महापावा । हरिचन्दण-वरण-संडं दहन्ति ते छारकज्जम्मि ॥७॥ किं ताए पढियाए पय-कोडीए पलालभूयाए । जं इत्तिय न नायं परस्स पीडा न कायव्वा ।।८।। जं कीरइ परिरक्खा णिच्चं मरण-भयभीरुजीवाणं । तं जाण अभयदाणं सिहाम रिंग सव्वदाणाणं ॥६।। जीवाणमभयपदाणं जो देइ दयावरो नरो णिच्चं । तस्सेह जीवलोए कुत्तो वि भयं न संभवइ ।।१०।। सव्वे वि गुणा खंतीइ वज्जिया नेवदिन्ति सोहग्गं । हरिशंक-कल-विहूणा रयरणी जह तारयड्ढावि ॥११।। खम्मामि सव्वजीवाणं, सव्वे जीवा खमन्तु मे । मित्ती मे सव्वभूदेसु, वेरं मज्झ ण केण वि ॥१२॥ 000 * गाथानुक्रम १ से ५ एवं १२ ‘समणसुत्त' से उद्ध त गाथा नं० ८२, १५८, १४८ १५०, १५१ एवं ८६ । गाथानुक्रम ६ से ११ 'प्राकृत सूक्ति-संग्रह' से उद्ध त । प्राकृत काव्य-मंजरी ३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभ्यास १. शब्दार्थ : उक्किट्ठ = सर्वोच्च मंदर = मेरु पर्वत जय = संसार सव्व = सब तम्हा = इसलिए रिणग्गंथ = संयत व्यक्ति रणं = उस अप्परणो= अपनी अत्तकाम= महापुरुष गब्भ = आधार पिंड = समूह खरणमित्त= क्षणमात्र वरणसंड = वन-समूह छार = राख पलाल = भूसा सिहामणि = सिरमौर खंती = शान्ति (क्षमा) हरिणंक = चन्द्रमा २. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए : शब्दरूप मूलशब्द विभक्ति वचन लिंग मंदराओ मंदर पंचमी ए०व० आगासाओ अत्तकामेहि पु० ........ .... .... ........ खंती केण संधिकार्य अ+उ=ओ (ब) संधिवाक्य मंगलमुक्किट्ठ अत्तोवम्मेण सव्वायरमुवउत्तो सव्वे सिमासमारणं तस्सेह विच्छेद ..."+......" अत्त+उम्बमेण सव्वायर+उवउत्तो सव्वेसि+आसमाणं तस्स+एह .... .... ........ ................ समासनाम . . . . . . . . . . . . . . . . समासपद पारणवह जीववहो सव्वसत्थाणं वदगुणाणं विग्रह पारगाण+वहं """+......... सव्वाण+सत्थाणं वदारण+गुरगाणं प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलक्रिया नयंस काल वर्तमान अ०पू० ब०व० (घ) क्रियारूप नमंसन्ति जाणसु वज्जयन्ति संभव खमन्तु खम्मामि ........ .. .... .. ........ . ... ...... ........ ... Tws....... अर्थ मूलक्रिया प्रत्यय पहिचान जानकर करना चाहिए विधि .....000 जागि कायव्वा ३. वस्तुनिष्ठ प्रश्न : सही उत्तर का क्रमांक कोष्ठक में लिखिए : १. पीडादायक प्राणवध का त्याग करते हैं - (क) प्रमादी लोग (ख) मांसाहारी लोग (ग) संयत व्यक्ति (घ) शिकारी २. सभी व्रतों का सार और सभी गुणों का समूह है - (क) तप (ख) पूजा (ग) स्वाध्याय (घ) अहिंसा -- ४. लघुत्तरात्मक प्रश्न : प्रश्नों के उत्तर एक-एक वाक्य में लिखिए : १. देव भी किस को नमस्कार करते हैं ? २. जीवलोक में किसको भय उत्पन्न नहीं होता है ! ३. क्षमा से रहित अन्य गुण किसकी तरह हैं ? ५. निबन्धात्मक प्रश्न एवं विशदीकरण : (क) अहिंसा के सम्बन्ध में ५-७ पंक्तियाँ लिखिए। (ख) अभय और क्षमा का महत्त्व लिखिए । (ग) गाथा नं० ४, ७ एवं १२ का अर्थ समझाकर लिखिए । प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-परिचय : प्राकृत का सर्व प्रथम चरित काव्य पउमचरियं है । महाकवि विमलसूरि ने ईसा की लगभग २-३ री शताब्दी में इसे लिखा था। इस ग्रन्थ में ऋषभदेव, भरत बाहुबली, रामचन्द्र, हनुमान आदि महापुरुषों का जीवन-चरित वर्णित है। रामकथा पर प्राकृत भाषा में लिखा जाने वाला यह पहला ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ का सम्पादन डॉ० हर्मन जेकोबी एवं मुनि पुण्यविजय ने किया है। पाठ २४ : अहिंसओ बाहुबली भरत और बाहुबली ऋषभदेव के पुत्र माने गये हैं। दोनों अलग-अलग प्रान्तों के राजा थे। किन्तु भरत ने दिग्विजय करने के उद्देश्य से बाहुबली को भी अपने अधीन करना चाहा । इसके लिए भरत युद्ध करने के लिए बाहुवली के राज्य में पहुँचा । तब अपने राज्य की रक्षा करने के लिए बाहुबली ने भरत का सामना किया । किन्तु युद्ध में हजारों निरपराध व्यक्तियों की हत्या को देखकर बाहुबली ने भरत के सामने यह प्रस्ताव रखा कि हम दोनों आपस में शारीरिक युद्ध करके हारजीत का निर्णय कर लें । बाहुबली का यह प्रस्ताव इस देश में सबसे पहली अहिंसक - संधि थी, जिसने देश- रक्षा के साथ-साथ प्राणी रक्षा भी की । ૨૬ तक्खसिलाए महप्पा बाहुबली तस्स निच्च - पडिकूलो । भरह - नरिन्दस्स सया न कुरणइ प्रारणा-परणामं सो || १ || ग्रह रुट्ठो चक्कहरो तस्सुवरि सयल - साहरण समग्गो । नयरस्स तुरियचवलो विणिग्गो सयल-बल-सहिश्र ॥२॥ पत्तो तक्खसिलपुरं जय-सद्द ु,ग्वुट्ट-कलयलारावो । जुज्झस्स कारणत्थं सन्नद्धो तक्खणं भरहो ||३|| बाहुबली वि महप्पा, भरहनरिन्दं समागमं सोउं । भड-चडयरेण महया, तक्खसिलाओ विणिज्जाओ ||४|| Jain Educationa International For Personal and Private Use Only प्राकृत काव्य-मंजरी Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बल-दप्प-गव्वियारण श्रभिट्ट पर मरणं भरिय बाहुबलिरणा चक्कहरो कि वहेरण लोयस्स । दोहं पि होउ जुज्भं दिट्ठिी-मुट्ठीहि रणमज्झे ।। ६ ।। उभयबलाणं रसन्ततूरा 1 नच्चन्त- कबन्ध-पेच्छरणयं एवं च भरियमेत्ते दिट्ठीजुज्भं तो समभडियं । भग्गो य चक्पस पढमं च निज्जित्रो भरहो ||७| रवि भुयासु लग्गा एक्केक्कं कढिरा-दीप- माहप्पा | 'चल-चलरण- पीरण- पेल्ला - करयल-परिहत्थ विच्छोहा 1150 अद्ध-तडिजोत्तबन्धरण-प्रवहत्युव्वत्त-करण निम्म विया 1 जुज्झन्ति सवडहुता अभग्ग मारव महापुरिसा ॥६॥ एवं भरहनरिन्दो निश्रो भुयविक्कमेण संगामे । तो मुयइ चक्करयणं तस्स वहत्थं परम- रुट्ठो ॥१०॥ विरिणवायरण असमत्थं गन्तुरण सुदरिसरणं पडिनियां 1 भुयबल - परक्कमस्स चि संवेगो सक्खणुप्पो ३।११।३ ।।५।। जंपइ अहो अकज्जं जं जाणन्ता वि विसयलोभिल्ला || पुरिसा कसायवसगा करेति एक्क्कमचिरोहं ॥ १२ ॥ छारस्स कए नासन्ति चन्दणं तह मणुय भोग- मूढा नरा वि प्राकृत काव्य - मंजरी Jain Educationa International 000 * 'पउमचरियं' - सं०- डॉ० हर्मन जैकोबी, मुनि पुण्यविजय से उद्धत । गाथानुक्रम उद्देश्य ४ एवं गाथा नं० ३८ से ५० । मोत्तियं च दोरस्थे । नासन्ति देविड्ढि ||१३|| * For Personal and Private Use Only ७ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिग ............ अभ्यास १. शब्दार्थ : महप्पा = महान् पडिकल = विरोधो पाणा = आज्ञा चक्कहर = चक्रवर्ती साहण = सेना तुरिय = शीघ्र सयल = समस्त उग्घुट्ट = उद्घोष जुझ = युद्ध चडयर = समूह बल = सेना पेच्छरणय = दर्शनीय चक्खु = आँख भुया = बाँह परिहत्थ = निपुण अवहत्थ = उठा हाथ उन्वत्तकरण= दावपेंच सवडहुत्ता = आमने-सामने २. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए : शब्दरूप . मूल शब्द विभक्ति वचन तक्खसिलाए ........ .. नयरस्स बलारणं मुट्टीहि संगामे चंदणं नरा संधिवाक्य विच्छेद संधिकार्य तस्सुरिं ...... ........ सद्द घुट्ट .... + ....." तक्खणुप्पन्नो ...... +........ एक्केक्कमविरोह एक्क +एक्कं+अविरोहं दोरत्थे दोर+अत्थे समासनाम विग्रह समासनाम बल दप्पगवियारणं बलदप्पेण+गव्वियारणं त० तत्पुरुष बलदप्प बलस्स+दप्प ष० त० भुय विक्कमेण भुयस्स+विक्कमेण विसयलोभिल्ला विसयस्स+लोभिल्ला ........ .. .... ... ......... .... .... ........ प्राकृत काव्य-मंजरी For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (घ) क्रियारूप मूल क्रिया पुरुष काल इच्छा वचन ए०व० होउ अ.पु. जुज्झन्ति मुयइ करेन्ति ........... अर्थ प्रत्यय कृदन्त रूप विरिणग्गओ सोउं . I पहिचान निकला भू०० सुनकर सं०कृ० नाचते हुए व०कृ० जीत लिया गया भू०० मूलक्रिया अनियमित सुअ नच्च अनियमित नच्चन्त निज्जिओ | 4 . वस्तुनिष्ठ प्रश्न : का क्रमांक कोष्ठक में लिखिए: १. बाहुबली रहता था - (क) उज्जैनी में (ख) अयोध्या में (ग) तक्षशिला में (घ) भरत के साथ २. भरत ने बाहुबली के वध के लिए छोड़ा - (क) बाण (ख) पागल हाथी (ग) चक्ररत्न (घ) भाला [ ] ४. लघुत्तरात्मक प्रश्न : . प्रश्नों के उत्तर एक-एक वाक्य में लिखिए : १. भरत और बाहुबली में युद्ध क्यों हुआ ? २. सैनिकों के वध को बचाने के लिए बाहुबली ने क्या प्रस्ताव रखा? ३. युद्ध के अन्त में बाहुबली ने क्या विचार व्यक्त किये ? ५. निबन्धात्मक प्रश्न एवं विशदीकरण : (क) भरत और बाहुबली की कथा अपने शब्दों में लिखिए। (ख) गाथा नं० ६, १२ एवं १३ का अर्थ समझाकर लिखिए। प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-परिचय : पाठ २५ : कहा- वण्णणं महाकवि कोऊहल के द्वारा रचित लीलावईकहा कथा एवं काव्य ग्रन्थ है P यह ग्रन्थ लगभग ६ वीं शताब्दी में लिखा गया था । इसका सम्पादन] डॉ. ए. एन. उपाध्ये ने किया हैं । लीलावईकहा में प्रतिष्ठान नगर के कुमारी लीलावती के जीवन की कथा है। विभिन्न पक्षों का काव्यात्मक शैली में वर्णन वर्णन की परिपाटी से परिचय कराने के गाथाएँ यहाँ चयनित की गयी हैं। उनमें राजा आदि का वर्णन है । १०० राजा सातवाहन और सिंहलद्वीप की राज इसमें महाकाव्य के अनुसार जीवन के किया गया है। प्राचीन काव्यों में कथा लिए लीलावईकहा के कथा-वर्णन की कुछ सज्जन - दुर्जन, शरद ऋतु, हंस, चन्द्रमा, देश, जयंति ते सज्जरण - भाणुरो सया -दोसा विसन्ति संगमे वियारिगो जारण सुवण-संचया ॥ कहाणुबन्धा कमलायरा इव ॥१॥ सो जयउ जेरण सुया वि दुज्जरगा इह विरिणम्मिया भुवणे । रगतमेण विणा पावन्ति चन्द - किरणा वि परिहावं || २ || सज्ज - संगेण वि दुज्जरगस्स गहु कलुसिमा समोसरइ । ससि - मण्डल- मज्भः परिट्ठियो वि कसरगो च्चिय कुरंगो || ३ || तस्स तर एरण एवं प्रसार- मइरणा वि विरइयं सुराह । कोऊहले लीलावइ त्ति णामं कहा- रयणं ॥४॥ Jain Educationa International जह मियंक - सरि-कर-पहररण- दलिय तिमिर -करि-कुम्भे । विक्खित्त - रिक्ख-मुत्ताहलुज्जले सरय- रयणी ॥५॥ इमिणा सरण ससी सरिणा वि रिगसा रिसाए कुमुय-वरणं । कुमुय-वरण व पुलिगं पुलिरोग व सहइ हंस- उलं ||६|| For Personal and Private Use Only प्राकृत काव्य - मंजरी Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रणव-बिस-कसाय-संसुद्ध-कंठ-कल-मणोहरो णिसामेह । सरय-सिरि-चलण-उर-रामो इव हंस-संलावो ॥७॥ संचरइ सीयलायंत-सलिल-कल्लोल-संग-रिणव्ववियो । दर-दलिय-मालई-मुद्ध-मउल-गंधुद्ध रोप वणो ।।८।। एसा वि दस-दिसा-वह-वयण-विसेसावलि व्व सर-सलिले । विम्वल-तरंग-दोलंत-पायवा सहइ वणराई ।।६।। सासणमिव पुण्णाणं जम्मुप्पत्ति व्व सुह-समूहाणं । आयरिसो अायाराण सइ सुछेत्तं पिव गुणाणं ।।१०।। तत्थेरिसम्मि पयरे णीसेस-गुणावगूहिय-सरीरो। भुवरण-पवित्थरिय-जसो राया सालाहणो णाम ।।११।। जो सो अविग्गहो वि ह सव्वंगावयव-सुन्दरो सुहो। दुइंसगो वि लोयाण लोयणाणन्द-संजणणो ॥१२॥ कुवई वि वल्लहो पणइणीण तह रणयवरो वि साहसियो। पर-लोय-भीरुप्रो वि हु वीरेक्क-रसो तह च्चेय ।।१३।। सूरो वि ण सत्तासो सोमो वि कलंक-वज्जिो णिच्चं । भोई वि रण दोजीहो तुगो वि समीव-दिण्ण-फलो ॥१४॥ रिणय-तेय-पसाहिय-मंडलस्स ससिरणो व्व जस्स लोएण। अक्कंत-जयस्स जए पट्ठी रण परेहि सच्चविया ॥१५॥ हियए च्चेय विरायन्ति सुइर-परिचिंतिया वि सुकईण । जेण विणा दुहियाण व मणोरहा कव्व-विणिवेसा ॥१६॥ 000 * 'लीलावई' -सं०- डॉ० ए० एन० उपाध्ये, से उद्धत । गाथानुक्रम-१२, १३, १६, २२, २३, २५ से २८, ४८, ६४ से ६७, ६६ एवं ७२ । प्राकृत काव्य-मंजरी १०१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभ्यास १. शब्दार्थ : भारण, = सूर्य संगम = संगति भुवरण = संसार तम = अंधकार परिहाव = उत्कर्ष कलुसिमा= कालिमा कसरण - काला कुरंग = मृग तरण = पुत्र केसरि = सिंह पिसा = रात्रि विस = कमलनाल सिरि = लक्ष्मी कल्लोल = तरंग वयरण = मुख कुवइ = पृथ्वीपति अविग्गहो= युद्ध रहित तुगो = स्वाभिमानी २. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए : (क) शब्दरूप मूलशब्द विभक्ति वचन रिग सुयणा कसणो ससिणा .... .. वणराई संधिवाक्य विभक्ति संधिकार्य कहाणुबंधा ... + "" सासणमिव """"+"""" जम्मुप्पत्ति ....... ........ तत्थेरिसम्मि तत्थ+एरिसम्मि अ+ए=ए लोयणाणंद ....... ........ सतासो सत्त+आसो अ+ आ=आ ........ ............ . ........ .... ... .. .......... .... .... ... ........ विग्रह समासनाम समासपद चंदकिरणा सरयरयणी हंससंलावो कव्वविणिवेसा कलंकवज्जिओ .......... ...." + " " ....... ........ .... - +........ ....... .... कलंकेण+बज्जिओ ......... १०२ प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचन मूलक्रिया रिप साम आज्ञा म०पु. ए०व० क्रियारूप णिसामेह वियसन्त्रि कुदन्त अवगूहिय पवित्थरिय (3) अर्थ पहिचान युक्त फैला हुआ भू०० मूलक्रिया अवगृह पबित्थर प्रत्यय इ+2 इ+य भू . ३. वस्तुनिष्ठ प्रश्न : सही उत्तर का क्रमांक कोष्ठक में लिखिए: १. सज्जन की उपमा दी गयी है - (क) कमल से (ख) सूर्य से (ग) चन्द्रमा से (घ) चन्दन से [ ] २. 'लीलावई' कथा के रचनाकार हैं -- (क) विमलसूरि (ख) हालकवि (ग) कोऊहल (घ) प्रवरसेन ३. 'सूरो वि ण सत्तासो' का वास्तविक अर्थ है - (क) योद्धा होते हुए भी भय-युक्त नहीं (ख) सूर्य होते हुए भी भयभीत नहीं (ग) अंधा होते हुए भी डरा हुआ नहीं [ ] ४. लघुत्तरात्मक प्रश्न : प्रश्नों के उत्तर एक-एक वाक्य में लिखिए : १. सज्जन के साथ दुर्जन की उपस्थिति क्यों आवश्यक है ? २. शरद की रात्रि में चन्द्रमा और तारे कैसे लगते हैं ? ३. हंसों के कलरव की उपमा कवि ने किससे दी है ? ४, राजा के बिना कवियों की काव्य-रचना का क्या होता था ! ५. निबन्धात्मक प्रश्न एवं विशदीकरण : (क) शरद ऋतु का वर्णन अपने शब्दों में करिए । (ख) राजा की ४-५ विशेषताएँ लिखिए। (ग) गाथा नं० १, १० एवं १५ का अर्थ समझाकर लिखिए। प्राकृत काव्य-मंजरी १०३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-परिचय : पाठ २६ : जीवण-मुल्लं प्राकृत मुक्तक साहित्य में 'वज्जालग्गं' ग्रन्थ का महत्त्वपूर्ण स्थान है । इस ग्रन्थ की गाथाएँ व्यक्तिगत रसास्वादन के साथ-साथ लोक-मंगल की भावना से भरी हुई हैं । पुरुषार्थ, ज्ञान, चरित्र, गुण- गरिमा, संगति, मित्रता, स्नेह आदि अनेक जीवन-मूल्यों का उद्घाटन इस ग्रन्थ की गाथाओं से होता है । वज्जालग्गं के इसी महत्त्व को देखते हुए दर्शन के प्रोफेसर एवं प्राकृत के अध्येता डॉ० कमलचन्द सोगारगी ने 'वज्जालग्ग में जीवन-मूल्य भाग १' नामक पुस्तक में इस ग्रन्थ की सौ गाथाओं का मूल्यांकन प्रस्तुत किया है। उसी से इस पाठ की गाथाएँ चयनित की गयी हैं। इन गाथाओं में कहा गया है कि धैर्यशाली पुरुष अपने कार्य को कभी अधूरा नहीं छोड़ते । ज्ञान से बढ़कर कोई बन्धु नहीं है । चरित्र की महिमा सबसे बढ़कर है । गुणी व्यक्ति- हर प्रकार से आदर योग्य है, इत्यादि । १०४ तं मित्तं कायव्वं जं किर वसरणम्मि देसकालम्मि | आलिहिय-भित्ति- बाउल्लयं व न परंमुहं ठाइ ॥१॥ कीरइ समुद्दतरणं पविसिज्जइ हुयवहम्मि पज्जलिए । प्रायामिज्जइ मरणं नत्थि दुलंघं सिणेहस्स ||२|| एक्काई नवरि नेहो पयासि तिहुयगम्मि जोन्हाए । जा भिज्जइ झीणे ससहरम्मि वड्ढेइ वड्ढते ॥३॥ मे कह विकस्स वि केण विदिट्ठण होइ परिप्रोसो । कमलायराण रइणा किं कज्जं जेरण विसन्ति ||४|| सीलं वरं कुलाओ दालिद्दं भव्वयं च रोगाओ । विज्जा रज्जाउ वरं खमा वरं सुट्ठ वि तवा ||५|| सीलं वरं कुलाो कुलेण किं होइ विगयसीले । कमलाइ कद्दमे संभवन्ति न हु हुन्ति मलिणाई || ६ || Jain Educationa International For Personal and Private Use Only प्राकृत काव्य - मंजरी Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छन्दं जो अणुवट्टइ मम्म रक्खइ गुणे पयासेइ । सो नवरि माणुसारणं देवारण वि वल्लहो होइ ॥७॥ लवणसमो नत्स्थि रसो विनारण समो य बंधवो नत्थि । धम्मसमो वस्थि निहि कोहसमो वेरिप्रो नत्थि ।।५।। सिग्घं आरुह कज्जं पारद्ध मा कहं पि सिढिलेसू । पारद्ध सिढिलियाई कज्जाइं पुरणो न सिझन्ति ॥६॥ नमिऊण जं विढप्पइ खलचलरपं तिहयणं पि किं तेण । माणेण जं विढप्पइ तरणं पि वं निध्वुई कुरणइ ॥१०॥ हंसो मसारख मज्झे कामो अइ घसइ पंकयवरणम्मि । तह वि हु हंसो हंसो कामओ कामो चिय वरानो ॥११॥ सव्वायरेण रक्खह तं पुरिसं जत्थ जयसिरी वसइ । अत्थमिय चन्दबिबे ताराहि न कीरए जोण्हा ।।१२।। रायंगणम्मि परिसंठियस्स जह कुजरस्स माहप्पं । विझसिहरम्मि न तहा ठाणेसु गुणा विसन्ति ।।१३।। गुणहीणा जे पुरिसा कुलेण गव्वं वहन्ति ते मूढा । वंसुप्पन्नो वि धणू गुणरहिए नत्थि टंकारो ॥१४॥ बहुतरुवराण मज्झे चन्दणविडवो भुयंगदोसेण । छिज्झइ निरावराहो साहु व्व असाहुसंगेण ।।१५।। 000 'वज्जालग्गं में जीवन-मूल्य भाग १' -सं०- डॉ० कमलचन्द सोगाणी एवं 'वज्जीलग्गं' -सं0- प्रो० एम० बी० पटवर्धन, से उद्ध त । गाथानुक्रम-२५/६८, २७/७२.५ २८/७४, ३२/७६, ३५/८५, ३६/८६, ३८/८८, ३६/६०१, ४३/६२, ४५/१००, ६७/२८८, ७२/२६४, ८१/६७८, ८४/६८६, ६२/७३२ । प्राकृत काव्य-मंजरी १०५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभ्यास १. शब्दार्थ : = विपत्ति बाउल्लय= पुतला हुयवह = अग्नि भव्वय = अच्छा छंद = इच्छा लवरण = नमक मसारण = श्मसान कामो = कौआ कुंजर = हाथी ___ माहप्पं = महिमा विडव = शाखा साहु = भद्र व्यक्ति २. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए : (क) शब्दरूप मूलशब्द विभक्ति वसणम्मि मरण रइणा ........ परंमुह = विमुख कद्दम = कीचड़ निव्वुइ = सुख वरामो= बेचारा धरण, = धनुष असाहु = दुष्ट वचन लिग ............ ........ ........ : ........ कुलाओ ........ : कमलाइ ताराहि विच्छेद संधिकार्य संधिवाक्य कमलायर रायंगणम्मि निरावराहो वंसुप्पन्नो "" ........ +++ +......... ........ . . . . . . . . . . . . . . . . ........+ ... ........ ........ + (ग) समासनाम समासपद समुद्दतरणं खलचलणं तिहुयणं पंकयवणम्मि चंदणविडवो विग्रह ......."+ " ........ .......... तिहु+यणं ......." + """" ............ ... .... ............ L १०६ प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलक्रिया काल पुरुष वचन क्रियारूप ठाइ बढेइ सिज्झन्ति छिज्झइ रक्खह ......... ........ प्रत्यय यव्व कृदन्तरूप कायव्वं आलिहिय पयासिओ नमिऊरण पहिचान करना चाहिए वि०कृ० चित्रित भूकृ० व्यक्त किया है भू० कृ० झुककर सं०० मूलक्रिया का(कर) आलिह पयास __ नम इ+य इ+अ इ+ऊरण ३. वस्तुनिष्ठ प्रश्न : रका क्रमांक कोष्ठक में लिखिए : १. स्नेह व्यक्त किया जाता है - (क) सज्जन के द्वारा (ख) चापलूस व्यक्ति के द्वारा (ग) चन्द्रप्रकाश के द्वारा (घ) कमल द्वारा [ ] २. अपराधरहित भद्रपुरुषों को कष्ट दिया जाता है - (क) उनके गुणों के द्वारा (ख) दुष्टजनों की संगति के द्वारा (ग) उनकी निर्धनता के द्वारा (घ) मूर्ख राजा के द्वारा [ ] ४. लघुत्तरात्मक प्रश्न : प्रश्नों के उत्तर एक-एक वाक्य में लिखिए : .. १. कौन व्यक्ति मित्र बनाए जाने योग्य होता है ? २. किस व्यक्ति का हमेशा आदर करना चाहिए ? ३. गुण कहाँ पर खिलते हैं ? ५. निबन्धात्मक प्रश्न एवं विशदीकरण : (क) इस पाठ की प्रमुख शिक्षाओं को अपने शब्दों में लिखो। (ख) गाथा नं० ४, ७, ८ एवं १४ का अर्थ समझाकर लिखो। प्राकृत काव्य-मंजरी १०७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-परिचय : गाथा सत्तसई प्राकृत का मुक्तक काव्य है । इसके संकलनकर्ता महाकवि हाल हैं। उन्होंने अपने समय के कई प्राकृत काव्यों से चुनकर लगभग ७०० गाथाएँ इस ग्रन्थ में संकलित की हैं। इसे 'गाथाकोश' के नाम से भी जाना जाता है। गाथासप्तशती में प्रेम, सौन्दर्य, प्रकृति-चित्रण, ग्रामीण जीवन, सज्जन - दुर्जन वर्णन आदि अनेक विषयों की गाथाएँ हैं । गाथासप्तशती का काव्य-प्रेमियों के बीच बहुत आदर रहा है। पाठ २७ : गाहामाहुरी इस ग्रन्थ में कहा गया है कि दुष्ट व्यक्ति की मंत्री पानी में खींची गयी लकीर की तरह अस्थिर है । सज्जन व्यक्ति का स्वाभिमान आपत्ति में भी ऊँचा रहता है । सौन्दर्य वह है, जहाँ गुण हों । ज्ञान वह है, जो कर्त्तव्ययुक्त हो । इन्हीं विषयों से सम्बन्धित कुछ गाथाएँ प्रस्तुत पाठ में संकलित हैं । १०८ ते विरला सप्पुरिसा जाणं सिणेहो अहिष्णमुह राम्रो । अणुदिग्रहवड्ढमाणो रिणं व पुत्तेसु संकमइ ॥१॥ वसइ जहिं चेत्र खलो पोसिज्जन्तो सिरोहदाणे हि । त चेत्र आल दी व्व इरेण मइलेइ ||२|| होती व रिगष्फलच्चित्र धरणरिद्धी होइ किविरणपुरिसस्स । गिह्माग्रवसंतत्तस्स गिअअछाहि व्व पहिस्स ॥३॥ कीरन्ति व्वित्र गासइ उम्रए रेहव्व खलाणे मेत्ती । सा उण सुरणम्मि कथा अरणहा पाहाणरेहव्व ||४|| सुरण कुप्पs विश्र ग्रह कुप्पइ विप्पिनं ण चिन्तेइ । ग्रह चिन्तेइ रग जम्पर ग्रह जम्पइ लज्जित्रो होइ ||५|| सो प्रत्थो जो हत्थे तं मित्तं जं णिरन्तणं वसणे । तं रूअं जत्थ गुणा तं विष्णाणं जहिं धम्मो ॥ ६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only प्राकृत काव्य-मंजरी Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुरंगो च्चित्र होइ मणो मसिणो अन्तिमासु वि दसासु । प्रत्थमम्मि विरइणो किरणा उद्ध चित्र फुरन्ति ||७|| पोट्ट भरन्ति सउणावि माउमा अप्परणो अणुव्विग्गा । विलुद्धरणसहावा हुवन्ति जइ के वि सप्पुरिसा ||८|| दढरोसकलुसिस्स वि सुमरणस्स मुहाहिँ विप्पिकन्तो । राहुमुहम्म विससिणो किरणा अमयं विन मुन्ति || || मावि तहा दुम्मिज्जइ सज्जरगो विहवहीरणो । पडिकाउं असमत्यो माणिज्जन्तो जह परेण ||१०|| म विग्गा विहवम्मि अगव्विा भए धीरा । होन्ति प्रहिणसहावा समेसु विसमेसु सप्पुरिसा ॥ ११ ॥ जीहाइ कुन्तिपि भवन्ति हि अम्मि रिगव्वुई काउं । पीडिज्जन्ता वि रसं जगन्ति उच्छू कुलीणा च ।।१२।। सरए महद्धदाणं अन्ते सिसिराई वाहिरुहाई | जानाई कुविप्रसज्जरण - हि प्रसरिच्छ्राइं सलिलाई ||१३|| गिरसोत्तो त्ति भुगं महिसो जीहाइ लिहइ संतत्तो । महिसस्स कण्हवत्थरझरो त्ति सप्पो पिइ लालं ||१४|| थोपि ण णीसरई मज्भण्हे उह सरीरतल लुक्का । भए छाई वि पहि ता किं रण जेत्तिप्रमेत्तं तीरइ रिगव्वोढुं देसु तेत्ति अरणो वित्तपसा दुक्ख सहरणक्खमो 000 'गाथासप्तशती' -सं० २/ ३५, २/३६, ३ /७२, ६/४१, २/८६, ६/५१, प्राकृत काव्य - मंजरी Jain Educationa International वीसमसि ।। १५ ।। For Personal and Private Use Only पर । सव्वो ।। १६ ।। * डॉ० परमानन्द शास्त्री से उद्धृत । गाथानुक्रम - २ /१३, ३/५०, ३/५१, ३/८४, ३/८५, ४/१६, ४/२०, ४/८०, १/४६ एवं १ / ७१ | १०६ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभ्यास १. शब्दार्थ : मुहरा = प्रसन्नता दीअन = दीपक उप्रअ = पानी पाहारण - पत्थर मरासिण= स्वाभिमानी सउरण = पक्षी उच्छ. = ईख भुअंग = साँप सव्व = सभी छाइ = छाया किविरण = कंजूस विप्पिन = बुरा प्रारगण = मुख परगना = कृपा पहिम = राहगीर मूलशब्द विभक्ति लिग २. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए : (क) शब्दरूप पुत्तेसु पहिअस्स किरणा जीहाइ सप्पो पुण्णेहि जणं ............ ........ ............ ........ ....... ... " संधिकार्य (ख) संधिवाक्य गिह्माअव अरव्विग्गा विहलुद्धरण वाहिरुण्हाई विच्छेद ... ....+ "" ......... ...... .... ......... ... .... ........ .... ............... विग्रह समासनाम ... .... .... + समासपद अणुदिअह राहुमुहम्मि आअवभएण ... ........ ... + ...... ........ + प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ........... .... ......n ........ ........ .... .. ..... ..... ... ..... ............ कियारूप मूलक्रिया काल पचन संकमइ कुप्पइ .............. भरन्ति वीसमसि देसु कृदन्तरूप अर्थ पहिचान मूलक्रिया प्रत्यय पोसिज्जन्तो पोसण किया व०कृ० पोस इज्ज+न्त जाता हुआ (कर्मवाच्य) अवमारिणओ अपमानित भू०० अवमारण इ+अ रिणव्वोदु निर्वाह करने के लिए हे०० णिन्वोढ ३. वस्तुनिष्ठ प्रश्न : सही उत्तर का क्रमांक कोष्ठक में लिखिए : १. दुष्ट व्यक्ति किसकी तरह आधार स्थान को मलिन करता है - (क) चन्द्रमा को तरह (ख) दीपक की तरह (ग) म्यान की तरह (घ) कीचड़ की तरह [ ] २. धन वह काम आता है, जो होता है - (क) दूसरों के पास (ख) अपने हाथ में (म) जमीन में मड़ा हुआ (घ) उधार दिया हुआ ] ४. लघुत्तरात्मक प्रश्न : प्रश्नों के उत्तर एक-एक वाक्य में लिखिए : १ सज्जन और दुर्जन की मित्रता में क्या अन्तर है ? २. सज्जन पुरुषों का स्वभाव कैसा होता है ? ३. किसी पर कितना स्नेह करना चाहिए और क्यों ? ५. निबन्धात्मक प्रश्न एवं विशदीकरण : (क) इस पाठ की शिक्षाएँ अपने शब्दों में लिखिए। (ख) गाथा नं. ५, ८, १३ एवं १६ का अर्थ समझाकर लिखिए। प्राकृत काव्य-मंजरी १११ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ २८ : बुद्धिमतो रोहओ पाठ-परिचय : __प्राकृत कथा साहित्य में बुद्धि-परीक्षण से सम्बन्धित कई कथाएँ प्राप्त होती हैं । प्रस्तुत पाठ में उज्जयिनी के राजा ने नृत्याकर के पुत्र रोहत की बुद्धि की परीक्षा उसे अपना प्रधानमन्त्री बनाने के लिए ली है। यह कथा प्राकृत के कई ग्रन्थों में आयी है । यहाँ आख्यानमरिणकोश से इसे लिया गया है। इस ग्रन्थ का परिचय पहले दिया जा चुका है। नटपुत्र रोहत ने क्षिप्रा नदी की रेत पर उज्जयिनी नगरी का चित्र बनाया हुआ था। उसे देखकर राजा ने उसकी बुद्धि की कई परीक्षाएं लीं। रोहत ने अपने बुद्धि-कौशल से इन सबका समाधान किया तो उसे प्रधानमन्त्री बना दिया गया । तत्थ नियरूप-निज्जिय-पुरन्दरो दरिय-राय-निद्दलणो। समरंगण-जियसत्तू जियसत्त नाम नरनाहो ॥१॥ अह तीए पुरवरीए पच्चासन्न समत्थि वित्थिन्नो। नामेण सिलागामो गामो धण-धनपरिकलिओ ।।२।। तत्थ अस्थि नडो नाडय-वियक्खणो भरहरनामो मइमं । निय-बुद्धिलद्धसोहो रोहो नामेण तस्स सुप्रो ।।३।। चितेइ तो भरहो बालाणं पेच्छ केरिसुल्लावा । अह अन्नया य भरहो गो सपुत्तो तमुज्जेरिंग ।।४।। काऊरण तत्थ कयविक्कयाइ नियगाममणुपयट्टो सो। जा सिप्प-सरि-समीवे समागो ताव भरहेण ।।५।। भरिणयं रोहय! पुडिया वीसरिया मज्झ हट्टमज्झम्मि । चिट्ठ तुमं जाव अहं गिण्हित्ता पडिनियत्रोमि ।।६।। ११२ प्राकृत काव्य-मंजरो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इय भरिणय गए भरहे बालत्तणयो य रोहएण तो। सिप्प-सरि-बालुयाए विरिणम्मिया तेरण उज्जेणी ।।७॥ एथंतरम्मि राया बलरेणुभएण अग्गए होउं । तुरयारूढो जा एइ तत्थ रोहेण तो रुद्धो ८॥ हे आसवार, पुरो उज्जेणी-हट्टमग्ग-मज्मेण । जियसत्त राय-राउलमुल्लंघिय किह णु बच्चिहिसि ।।६।। ता विम्हइनो राया तं पुच्छइ भद्द. कत्थ उज्जेणी । अह रोहयो वि बालुय-विरिणम्मियं तस्स दसेइ ॥१०॥ इह ताव हट्टमग्गो इह राउलमेत्थ हत्थि-सालायो । इह पासाया इह मंदुरानो तो तं निएऊरण ॥११॥ तस्स मइ-विहव-रंजिय-हियो हियए विचितए राया। एस मम मंतिमंडल-सिरोमरिणतस्स जोगो त्ति ॥१२॥ परिभाविऊण एवं पुच्छइ तं वच्छ, कत्थ वत्थव्वो? कस्स सुप्रो? साहइ भरहसुनो हं सिलागामे ॥१३॥ तस्स वरबुद्धि-विहवं परिभावेन्तो गयो निवो नरि । सो वि समागयपिउणा समन्निनो नियय-गामम्मि ।।१४।। तब्बुद्धि-पगरिसेगं पमोय-परिपूरिनो पुहइपालो । अवरं खुद्दाएसेणं पेसिउं कुक्कुडं भरणइ ॥१५॥ जह जुज्झावह एवं असहायं रोहएण तो भणियं । दप्पण-पडिबिंबेणं जुज्झावह तंबचुडं ति ॥१६॥ आइसइ पुहइपालो पेसह बलिऊरण वालुयावरहं । जुन्नवरहं समप्पह पडिछंदकए भणइ रोहो ।।१७।। प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रह संपेसइ राया मयपायं करिवरं भरगावइ य । निच्चं पि गय पवित्ती कहियव्वा मरण - परिहीणा ||१८|| ११४ ते विपइवासरं पि हु कहेंति रायस्स हत्थिवृत्तंतं । अह अन्नया गइंदे मए भरणावर भरहपुत्तो ||१६|| देव, गइंदो न चरइ, न चलइ नो ससइ न वि य नीससइ । न पियइ न नियइ नवरं चिट्ठइ निच्चेट्ठ-संठारणो ।।२०।। तो पुहइवई पभरणइ रे रे, तमणु जंपन्ति ते वि सामी एवं किं भूयो भरिणयं पेसवह कूवयं महुरपाणियं निययं । हुत्त मत्तो देव ! कूवप्रो पामरत्तणो ||२२|| अम्हच्चन तो तं पेससु नायरयकूवियं निययं । जेरण आगच्छइ तम्मग्गलग्गप्रो सामिय ! सयहो ।।२३॥ करिवरो मत्रो ? वज्जरइ नो म्हे ।। २१ ।। अवरमकंडे वणखण्डमेत्थ पुव्वाए तं पि पच्छिम | कायव्वं तेरण तयं पि गाममुच्चालिऊण कयं ||२४|| अग्गिं सूरं च विणा वि पायसं सिज्झवेह पट्ठिविए । खुद्द एसो उक्कुरुडिया निप्फाइया खीरी ।।२५।। सन्वत्थ विकेरण कयं ? ति रोहयो उत्तरम्मि वत्तव्वे । रंजिय-हियो वाहरइ अन्नया एउ मह पासे ॥ २६॥ तप्पभिइ पक्खवाओ रन्नो तम्मि महं समुप्पन्नो । संठाविप्रो य सव्वेसिमुवरि मंती मइगुणेण ॥ २७॥ * 000 * 'आक्खानकमणिकोस' सं०- मुनि पुण्यविजय से उद्धृत । गाथानुक्रम - आख्यानक १ गाथा - १०, १४, १५, २३-२४, २५ से ३४, ४५,४६, ५० से ५६ एवं ६२ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only प्राकृत काव्य - मंजरी Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विच्छेद ........ .. .... ............ .... अभ्यास १. शब्दार्थ : पुरन्दर = इन्द्र नरनाह = राजा समरंगण = युद्धभूमि पच्चासन्न = समीप वित्थिन = फैला हुआ नाडय = नाटक वियक्खरण = कुशल तो = तब प्रासवार = घुड़सवार बालुय = रेत मंदुरा = अश्वशाला वत्थव्व = निवासी तंबचूड = मुरगा वरह = रस्सी कूवयं = कुआ पायस = खीर अन्नमा = एक बार मह = मेरे २. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए : संधिवाक्य संधिकार्य केरिसुल्लावा ......"+ ....." तुरुयारूढो ......"+........ राउलमेत्थ ... ..+........ ३. वस्तुनिष्ठ प्रश्न : १. रोहत ने रेत पर चित्र बनाया - (क) पिता का (ख) राजा का (ग) उज्जैनी नगरी का (घ) सेना का [ ] ... २. रोहत ने रेत की रस्सी की समस्या हल की - (क) रस्सी बनाकर (ख) नमूने के लिए रस्सी मंगाकर (ग) रेत को पीसकर (घ) जूट की रस्सी भेजकर [ ] ४. लघुत्तरात्मक प्रश्न : १. रोहत ने रेत पर चित्र में क्या-क्या बनाया था ? २. हाथी के मर जाने पर उसकी सूचना राजा को कैसे दी गयी ? ३. राजा ने रोहत के लिए क्या किया ? ५. निबन्धात्मक प्रश्न एवं विशदीकरण : (क) रोहत और राजा की बातचीत अपने शब्दों में लिखिए। (ख) रोहत द्वारा हल की गयी २-३ समस्याएँ लिखिए। (ग) गाथा नं० १२, २५ एवं २६ का अर्थ समझाकर लिखिए। प्राकृत काव्य-मंजरी ११५ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ २६ : जीवण-ववहारो पाठ-परिचय : प्राकृत का प्राचीन साहित्य अर्धमागधी प्राकृत एवं शौरसेनी प्राकृत में भी उपलब्ध है। इन दोनों का संकलन-ग्रन्थ एक तो 'समणसुत्तं' है, जिसमें से कुछ गाथाएँ 'सिक्खानीई' नामक पाठ में पहले प्रस्तुत की गयो हैं। दूसरा संकलन-ग्रन्थ अर्हत्प्रवचन है, जिसका चयन दर्शन और आगम ग्रन्थों के प्रसिद्ध विद्वान स्व० ५० चैनसुखदास न्यायतीर्थ ने किया था। इस ग्रन्थ में कुल १६ पाठ हैं, जिनमें जीवन को उन्नत करने वाली प्राकृत गाथाओं का संकलन है। उसी में से प्रस्तुत पाठ की गाथाएँ ली गयी हैं। ज्ञान का प्रकाश सर्वव्यापी है। विनय का फल सबका कल्याण है। हित कारी और संयत वचन मनुष्य को सुखी करते हैं। सज्जन व्यक्ति की संगति प्रतिष्ठा देती है और दुर्जन की संगति मूल स्वभाव को बदल देती है । गुण कहने से नहीं, अपने आप प्रगट होते हैं और आचरण से ही उनका विकास होता है। क्रोध और मान को त्यागने से जीवन को सार्थक किया जा सकता है, आदि जीवन-व्यवहारों का निर्देश प्रस्तुत पाठ में है। णाणुज्जोवो जोवो रणाणुज्जोवस्स पत्थि पडिघादो। दीवेइ खेत्तमप्पं सूरो गाणं जगमसेसं ॥१॥ थेवं थेवं पेच्छह धम्मं करेह जइ ता महानईग्रो बिन्दूहि बहुं न सक्केह । समुद्दभूयारो ॥२॥ विणएण विप्पहूस्स हवदि सिक्खा रिणरत्थिया सव्वा । विणो सिक्खाए फलं विणयफलं सव्वकल्लाणं ॥३॥ जल-चंदण-ससि-मुत्ता-चंदमणी तह णरस्स रिणव्वाणं । ण करंति कुणइ जह अत्थज्जुयं हिय-मधुर-मिद-वयणं ॥४॥ प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुसूममगंधमिव जहा देवयसेसत्ति कीरदे सीसे । तह सुयणमझवासी वि दुज्जणो पूइप्रो होइ ।।५।। दुज्जरणसंसग्गीए पजहदि रिणयगं गुणं खु सुजणो वि । सीयलभावं उदयं जह पजहदि अग्गिजोएण ॥६।। वायाए अकहन्ता सुजणे चरिदेहि कहियगा होन्ति । विकहितगा या सगुणे पुरिसा लोगम्मि उवरीव ।।७।। संतो हि गुणा अकहितयस्स पुरिसस्स ण वि य णस्संति । अकहितस्स वि जह गहवइणो जगविस्सुदो तेजो ।।८।। अप्पपसंसं परिहरह सदा मा होह जसविणासयरा। अप्पाणं थोवन्तो तणलहुदो होदि हु जणम्मि ॥६।। वायाए जं कहणं गुणाण तं रणासणं हवे तेसि । होदि हु चरिदेण गुणाण कहणमुब्भासणं तेसिं ॥१०॥ किच्चा परस्स णिन्दं जो अप्पाणं ठवेदुमिच्छेज्ज । सो इच्छदि आरोग्गं परम्मि कडुअोसहे पीए ।।११।। सुठ्ठ वि पियो मुहुत्तेण होदि वेसो जणस्स कोषेण । पधिदो वि जसो पस्सदि कुद्धस्स अकज्जकरणेण ।।१२।। माणी विस्सो सव्वस्स होदि कलह-भय-वेर-दुक्खारिण।। पावदि मारणी णियदं इह-परलोए य अवमारणं ।।१३।। समणस्स जणस्स पिनो णरो अमारणी सदा हवदि लोए। ' गाणं जसं च अत्थं लभदि सकज्जं च साहेदि ।।१४।।* ००० * 'अर्हत्प्रवचन' -सं0- पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ, से उद्ध त । गाथानुक्रम-१६/४७, १६/१४, १६/५५, १२/१२, १०/८, १०/११, ६/१, ६/३, ६/४, ६/७, ६/१२, ७/३५, ७/३६ एवं ७/३७ । प्राकृत काव्य-मंजरी ११७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगं = संसार विण= विनय चरिद = आचरण वेस = शत्रु रिणयदं= निश्चित प्रस्थ = धन वचन लिग . . . . . . . . . . . अभ्यास १. शब्दार्थ : अप्पं = थोड़ा खेत्तं = क्षेत्र . असेसं = सम्पूर्ण सिक्खा - शिक्षा सोस = सिर वाया = वाणी गहवई = सूर्य पर = दूसरा प्रकज्ज = अनुचित करण = आचरण सयरण = स्वजन जस = यश २. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए : (क) शब्दरूप मूलशब्द विभक्ति महानईओ बिन्दुहि सिक्खाए गुरणं गहवइणो कोण संधिवाक्य विच्छेद गारगुज्जोको ...... ........ खेत्तमप्पं जगमसेसं कुसुममगंधमिव कहणमुब्भासणं ........ ठवेदुमिच्छेज्ज ............ ............ ........ ............ ........ ............ ........ ........ ... संधिकार्य + + .... ............ + + + विग्रह समासनाम + समासपद विरणयफलं दुज्जरणसंसग्गी सम्बकल्लारणं .... ... .... .... + ......... ११८ प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (घ) क्रियारूप दीवेइ मूलक्रिया ............ पेच्छह ........ ........ हवदि www.... "m.... .......more ........ ............ ......rary ........ ....reso.... .... ........ पजहदि होदि गस्सदि होह कृदन्तरूप अकहंता ठवेदु पधिदो अर्थ प्रत्यय त पहिचान न कहते हुए व०० स्थापित करने के लिए हे०कृ० प्रसिद्ध भू०० मूलक्रिया कह व पघ ए+दु [ ] ३. वस्तुनिष्ठ प्रश्न : सही उत्तर का क्रमांक कोष्ठक में लिखिए: १. सारे जग को प्रकाशित करता है - (क) दीपक (ख) ज्ञान (ग) सूर्य (4) चन्द्रमा २. सभी शिक्षा निरर्थक हो जाती है - (क) क्रोधी शिष्य की (ख) रोगी शिष्य की (ग) विनय से रहित शिष्य की (घ) गरीव शिष्य की ४. लघुत्तरात्मक प्रश्न : प्रश्नों के उत्तर एक-एक वाक्य में लिखिए : १. दुर्जन की संगति से सज्जन के गुण कसे बदल जाते हैं ? २. गुणों का वास्तविक प्रकाशन किससे होता है ? ३. क्रोध करने से क्या नुकसान होता है ? ५. निबन्धात्मक प्रश्न एवं विशदीकरण : (क) पाठ का सार अपने शब्दों में लिखिए । . (ख) गाथा नं० २, ४, ६ एवं १३ का अर्थ समझाकर लिखिए । प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 30 : कवि-अणुभूई पाठ-परिचय : प्राकृत के महाकाव्यों में गउडवहो का प्रमुख स्थान है। महाकवि वाक्पतिराज ने ई० सन् ७६० के लगभग इस महाकाव्य की रचना की थी। इसे ऐतिहासिक काव्य भी कहा जाता है। इस काव्य में यशोवर्मा की विजय के वर्णन के अतिरिक्त जीवन के अन्य पक्षों का भी वर्णन है । गउडवहो में प्राप्त वाक्पतिराज की लोक-अनुभूतियों को प्रोफेसर डॉ० कमलचन्द सोगाणी ने अपनी पुस्तक वाक्पतिराज की लोकानुभूति में संग्रहीत किया है । उन्हीं गाथाओं में से इस पाठ की गाथाएँ चयनित की गयी हैं । - इन गाथाओं में कहा गया है कि कवि की वाणी में सभी तत्त्व विद्यमान हैं । उसी से वह गौरव प्राप्त करता है। काव्यतत्त्व के रसिक को सुख-दुख बराबर होते हैं । निन्दा और प्रशंसा में वह विचलित नहीं होता। दूसरों के गुणों को ग्रहण करना और उनके कल्याण में प्रवृत्त होना ही जीवन की सार्थकता है। मनुष्य का व्यवहार उसके गुणों को प्रगट करने वाला होता है, इत्यादि। इह ते जन्ति कइणो जग्रमिणमो जाण सप्रल-परिणामं । वापासु ठिग्रं दीसइ अामोअ-घणं व तुच्छं व ।।१।। रिणअाएच्चिन वाआए अत्तणो गारवं णिवेसन्ता। जे एन्ति पसंसंच्चिा जन्ति इह ते महा-कइणो ।।२।। दोग्गच्चम्मि वि सोक्खाई ताण विहवे वि होन्ति दुक्खाई। कव्व-परमत्थ-रसिप्राइं जाण जाअन्ति हिअाइं ।।३।। सोहेइ सुहावेइ अ उवहुज्जन्तो लवो वि लच्छीए । देवी सरस्सई उण असमग्गा कि पि विणडेइ ।।४।। लग्गिहिइ ण वा सुप्रणे वयरिणज्जं दुज्जणेहि भण्णंतं । ताण पुण तं सुअगाववाअ-दोसेण संघडइ ॥५॥ १२० प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाण असमेहि विहिया जाअइ णिन्दा समा सलाहा वि । रिणन्दा वि तेहिं विहिमा रण तारण मण्णे किलामेइ ॥६॥ बहनो सामण्णा-मइत्तणेण ताणं परिग्गहे लोगो। कामं गया पसिद्धि सामण्ण-कई अप्रोच्चेअ ।।७।। हरइ अणू वि पर-गुणो गरुअम्मि वि णिग्र-गुरणे ण संतोसो । सीलस्स विवेअस्स अ सारमियं एत्तिनं चेअ॥८।। इअरे वि फुरन्ति मुणा गुरूण पडमं कउत्तमासंगा। अग्गे सेलग्ग-गमा इंदु-मऊहा इव महीए · in णिवाडताण सिवं सप्रलं चित्र सिवरें तहा ताण । रिणव्वडइ कि पि जह ते वि अप्परमा विम्हअमुवेन्ति ॥१०॥ माहप्पे गुरप-कज्जम्मि अगुण-कज्जे णिबद्ध-माहप्पा । विवरीनं उत्पत्ति गुणाण इच्छन्ति कावुरिसा ।।११।। जह जह बग्घन्ति गुणा जह जह दोसा अ संपइ फलन्ति । अगुणायरेण तह-तह गुण-सुण्णं होहिइ जय पि ।।१२।। साहीण-सज्जणा वि हु गीअ-पसंगे रमन्ति काउरिसा। सा इर लीला जं काम-धारणं सुलह-रअरपारण ॥१३॥ ववहोरेच्चित्र छायं रिणएह लोअस्स किं व हिएण । तेउग्गमो मरगीण वि जो बाहिं सो ण भंगम्मि ॥१४॥' 000 * 'वाक्पतिराज की लोकानुभूति' -सं०- डॉ. कमलचन्द सोगाणी (की पाण्डुलिपि) एवं 'गउडवहो' -सं0- प्रो० एन० जी० सूरु, से उद्ध त । गाथानुक्रम-१/६२, २/६३, ३/६४, ४/६८, ५/७०, ८/७३, ६/७५, १०/७६, ११/७७, १२/७५, ४१/८६४, ४५/६०२, ५८/६१७ एवं ८४/६६३ । प्राकृत काव्य-मंजरी १२१ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभ्यास १. शब्दार्थ : ... ........ ............ ........ .... ............ .... ........ .... .. .... सप्रल = सभी परिणाम = अभिव्यक्ति जन = जग घणं = पूर्ण तुच्छं = तिरस्कारयोग्य गारव = गौरव दोग्गच्च = निर्धनता असमग्ग = अपूर्ण वयरिणज्ज= निन्दा सलाहा = प्रशंसा मऊह = किरण सिव : कल्याण काम = कांच सुलह = प्राप्त छाया = प्रतिबिम्ब २. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए : शब्दरूप मूलशब्द विभक्ति वचन लिंग जाण कइणो लच्छीए हिअआइं महीए गुणाण मरणोण सा संधिवाक्य विच्छेद संधिकार्य जअमिणमो ....."+......" सारमिरणं ........ .... सुअगाववाअ तेउग्गमो """"+ .... विम्हअमुवेन्ति """"+....... (ग) समासपद समासनाम इंदुमऊहा """""+........ गुणकग्जम्मि ...."+.... कावधारणं का+धारणं द्वि० त. ........... .... ....... .... ............ .. .... विग्रह १२२ प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (घ) क्रियारूप दीसइ जअन्ति विडे लग्गिहिद फुरन्ति होहि रिगएह (ङ) कृदन्तरूप fuaint हुज्जत भण्णत ३. वस्तुनिष्ठ प्रश्न : ४. लघुत्तरात्मक प्रश्न : मूलक्रिया ... ***** प्राकृत काव्य - मंजरी Jain Educationa International काल ५. निबन्धात्मक प्रश्न एवं विशदीकरण : .. रिअ अर्थ पहिचान स्थापित करते हुए व० कृ० उपभोग किया व० कृ० कही जाती हुई व० कृ० सही उत्तर का क्रमांक कोष्ठक में लिखिए : १. निर्धनता में सुख और वैभव में दुख प्राप्त करते हैं (क) राजा लोग (ख) दार्शनिक (ग) काव्य तत्त्व के रसिक (घ) साधु २. सामान्य बुद्धि के कारण प्रसिद्ध होते हैं (क) सामान्य लोग ( ख ) (ग) महाकवि (घ) 99.0 प्रश्नों के उत्तर एक-एक वाक्य में लिखिए: १. लक्ष्मी और सरस्वती में क्या अन्तर है ? २ शील और विवेक का सार क्या है ? ३. अगुणों का आदर करने से क्या होगा ? पुरुष **** *** ***** For Personal and Private Use Only उवहुज्ज भण्ण मूलक्रिया वेस सामान्य कवि निर्गुण व्यक्ति .... - (क) कवि के अनुभवों को अपने शब्दों में लिखिए । (ख) गाथा नं० १०, १२ एवं १४ का अर्थ समझाकर लिखिए । बचन ****........ 1000 .... ******* *********... *** ***edes ************ ****** प्रत्यय न्त न्त न्त [ ] [ ] १२३ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 39 : पाइय-अहिलेहो पाठ-परिचय : भारतवर्ष में लिखित सामग्री के सबसे प्राचीन अवशेष शिलालेख हैं। उपलब्ध शिलालेखी साहित्य में सम्राट अशोक के शिलालेख सबसे प्राचीन हैं, जो प्राकृत (गद्य) में लिखे गये हैं। उसके बाद सम्राट खारवेल, सातवाहन राजाओं, पहलव नरेशों आदि ने प्राकृत भाषा का उपयोग शिलालेखों, मुद्राओं आदि में किया है। उसी परम्परा में प्रतिहार वंश के राजा 'कक्कुक' का प्राकृत शिलालेख जोधपुर से ३० किलोमीटर उत्तर की ओर घटयाल नामक गाँव में प्राप्त हुआ है। इसे वि. सं० ६१८ (ई• सन् ८६१) में लिखाया गया था। इस शिलालेख में राजा कक्कुक ने जनता के हित के लिए जो कार्य किये थे, उनका उल्लेख है। प्राकृत भाषा एवं साहित्य की दृष्टि से भी राजस्थान के इस प्राकृत शिलालेख का महत्त्व है। पूरे शिलालेख में १ से २३ गाथाएँ हैं। उनमें से ६ से १८ गाथाएँ प्रस्तुत पाठ में उद्धत हैं। सिरि भिल्लुप्रस्स तणुप्रो सिरिकक्को गुरुगुणेहि गारविप्रो । अस्स वि कक्कुन नामो दुल्लहदेवीए उप्पणो ॥६॥ ईसि विनासं हसिग्रं महुरं भजिअं पलोइअ सोम्म । णमय जस्स ण दीरणं रोसो थेप्रो थिरा मेत्ती ॥७॥ रणो जंपिनं ण हसिग्रंण कयं ण पलोइअंण संभरिअं। ण थियं परिन्भमिश्र जेण जणे कज्ज-परिहीणं ।।८॥ सुत्था दुत्थ वि पया अहमा तह उत्तिमा वि सोक्खेण । बणरिण व जेण धरिआ णिच्चं रिणय मंडले सव्वा ॥६॥ उवरोह रामअच्छर लोहेहि इ गायवज्जिजं जेण । ग कमो दोण्ह विसेसो बवहारे कवि मणयं पि ॥१०॥ १२४ प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिलवर दिण्णाणुज्जं जेरण जरण य रंजिऊरण सयलं पि । रिणमच्छरे जरिणश्रं दुट्ठारण वि दंडरिट्ठवरणं ||११|| धरिद्ध समिद्धारण वि पउराणं निप्रकरस्स अब्भहि । लक्ख सयं च सरिसन्तरणं च तह जेरण दिट्ठाई ॥ १२ ॥ रणव- जोव्वरण - रूपसाहिए। सिंगार-गुण-गरुक्केण । रिगज्जमलज्ज जेरण जणे णेय संचरियं ||१३|| जरणवय बालाग गुरु तरुरणारण सही तह गयवयाण तरण व्व । इय सुचरिएहि णिच्चं जेण जणो पालिओ सव्वो ।। १४ ।। जेरण णमंतेरण सया सम्माणं गुणथुई कुरते | जंपते य ललिश्रं दिण्णं परणईण धरण - निवहं ||१५|| 1 मरु- माउ-वल्ल-तमणी - परिका-मज्ज-गुज्जरत्तासु जणि जेन जगाणं सच्चरित्रगुणेहि अणुराहो ॥१६॥ गहिऊण गोहरणाई गिरिम्मि जालाउलाओ पल्ली । जणि जेण विसमे वऊरणारणय - मंडले पयडं ॥ १७ ॥ मायन्द-महुविन्देहिं । भूमिकया जेरण 112=11 वरिस-ससु प्रणवसुं अट्ठारसमग्गलेसु चेतम्मि | क्खते विहुहत्थे बुहवारे धवल बीए 112811 सिरि कक्कुरण हट्ट महाजणं विप्प रोहिंसक गा रिवेसि 000 लुप्पलदलगन्धा रम्मा वरइच्छु पण्णच्छण्ण एसा प्राकृत काव्य - मंजरी पयइ वरिण बहुलं । कित्ति - विड्डी * 'जर्नल ऑफ द रायल एशियाटिक सोसाइटी' (१८६५) - मुंशी देवीप्रसाद, पृष्ठ ५१३ एवं 'प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास' - डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री, से उद्धृत । Jain Educationa International ||२०||* For Personal and Private Use Only १२५ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभ्यास १. शब्दार्थ : तरण प्र = पुत्र रोस = क्रोध थेग्र = क्षणिक सुत्थ = सुखी दुत्थ = दुखी पया = प्रजा मंडल = राज्य रामप्रच्छर = राग-द्वेष, ईर्ष्या दोण्ह = भेदभाव दिअवर= सज्जन पउर = नागरिक अब्भहिनं = अधिक थुइ = स्तुति गोहण= गोधन पण्ण = पत्ता पयइ = सामान्य ज्ञान विड्डी= वृद्धि २. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए : (क) शब्दरूप भूलशब्द विभक्ति वचन गुणेहिं जस्स मंडले पउराणं पणईण गिरिम्मि लिंग ........ .... .... ........ . ...... ............ ........ ........ .... ... .... re. .... .. ........ मेत्ती विसमे ............ ........ संधिकायं विच्छेद ...'+' .. ... ............ संधिवाक्य रिणज्जमलज्ज पीलुप्पल समासपद गायवज्जिजं धरणनिवहं गुणथुई दलगन्धा विग्रह समासनाम गायेरण+वज्जिजं + .... ............ + ................. ................ + प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलक्रिया काल वचन रगम क्रियारूप रगमय कृदन्तरूप उप्परको जंपिअं (इ) ए०व० प्रत्यय अर्थ उत्पन्न हुआ कहा गया पुरुष म०पु० मूलकिया उप्परण जंप पहिचान भू.कृ. भू०० अ इ+अ हसि ........ ........... ...... ........ .. . . संभरि धरिआ पालिओ पालन किया गया भू०० णमंतेण नमस्कार करते हुए भू०० फुरंतरण पाल रगम इ+अ न्त ... .... ३. वस्तुनिष्ठ प्रश्न : सही उत्तर का क्रमांक कोष्ठक में लिखिए : १. राजा कक्कुक का क्रोध था - (क) स्थायी (ख) दुखदायी (ग) क्षणिक (घ) भयंकर [] २. उस राजा ने जनता में नहीं फैलने दिया - (क) बीमारी को (ख) निन्दा और निर्लज्जता को (ग) गरीबी को (घ) शत्रुओं को [ ] ४. लवुत्तरात्मक प्रश्न : प्रश्नों के उत्तर एक-एक वाक्य में लिखिए : १. राजा कक्कुक किसका पुत्र था ? २. यह शिलालेख कहाँ और कब लिखवाया गया है ? ३. कक्कुक राजा बच्चों, युवकों और वृद्धों के लिए क्या था ? ५. निबन्धात्मक प्रश्न एवं विशदीकरण : शिलालेख में उल्लिखित राजा के कार्यों को लिखिए। (ख) गाथा नं० १०, ११ एवं १२ का अर्थ समझाकर लिखिए । प्राकृत काव्य-मंजरी १२७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भाषा एवं साहित्य [क] प्राकृत भाषा भारत की प्राचीन भाषाओं में प्राकृत भाषा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भाषाविदों ने भारत-ईरानी भाषा के परिचय के अन्तर्गत भारतीय आर्य शाखा-परिवार का विवेचन किया है। प्राकृत इसी भाषा-परिवार की एक आर्य-भाषा है। भारतीय भाषाओं के विकासक्रम में भारत की प्रायः सभी भाषाओं के साथ किसी न किसी रूप में प्राकृत का सम्बन्ध बना हुआ वैदिक भाषा प्राचीन आर्य-भाषा है। उसका विकास तत्कालीन लोक भाषाओं से हुआ है। प्राकृत एवं वैदिक भाषा में विद्वान् कई समानताएँ स्वीकार करते हैं । अतः ज्ञात होता है कि वैदिक भाषा और प्राकृत के विकसित होने में कोई एक समान धरातल रहा है। किसी जनभाषा के समान तत्त्वों पर ही इन दोनों भाषाओं का भवन निर्मित हुआ है। जन-भाषा से विकसित होने के कारण और जनसामान्य की भाषा बने रहने के कारण इसे प्राकृत भाषा कहा गया है । मातृभाषा: प्राकृत की आदिम अवस्था का साहित्य या उसका बोलचाल वाला स्वरूप तो हमारे सामने नहीं है, किन्तु वह जन-जन तक पैठी हुई थी। 'महावोर, बुद्ध तथा उनके चारों ओर दूर-दूर तक के विशाल जन-समूह को मातृभाषा के रूप में प्राकृत उपलब्ध हुई। इसीलिए महावीर और बुद्ध ने जनता के सांस्कृतिक उत्थान के लिए प्राकृत भाषा का उपयोग अपने उपदेशों में किया। उन्होंने इसी प्राकृत भाषा के माध्यम से तत्कालीन समाज के १२८ प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभिन्न क्षेत्रों में क्रान्ति की ध्वजा लहरायी थी । जिस प्रकार वैदिक भाषा को प्रार्य संस्कृति की भाषा होने का गौरव प्राप्त है उसी प्रकार प्राकृत भाषा को श्रागम-भाषा और आर्य भाषा होने की प्रतिष्ठा प्राप्त है । * राज्यभाषा : प्राकृत जन भाषा के रूप में इतनी प्रतिष्ठित थी कि उसे सम्राट अशोक के समय में राज्य भाषा होने का गौरव भी प्राप्त हुआ है और उसकी यह प्रतिष्ठा सैकड़ों वर्षों तक आये बढ़ी है । अशोक के शिलालेखों के प्रतिरिक्त देश के अन्य नरेशों ने भी प्राकृत में लेख एवं मुद्राएँ अंकित करवायीं । ई० पू० ३०० से लेकर ४०० ई० इन सात सौ वर्षों में लगभग दो हजार लेख प्राकृत में लिखे गये हैं । यह सामग्री प्राकृत भाषा के विकासक्रम एवं महत्त्व के लिए ही उपयोगी नहीं है, अपितु भारतीय संस्कृति के इतिहास के लिए भी महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है । अभिव्यक्ति का माध्यम : I प्राकृत भाषा क्रमशः विकास को प्राप्त हुई है । वैदिक युग में वह लोक-भाषा थी । उसमें रूपों की बहुलता एवं सरलीकरण की प्रवृत्ति थी । महावीर युग तक आते-आते प्राकृत ने अपने को इतना समृद्ध और सहज किया कि वह अध्यात्म और सदाचार की भाषा बन सकी । ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में प्राकृत भाषा गाँवों की झोंपड़ियों से राजमहलों की सभाओं तक आदर प्राप्त करने लगी थी । वह समाज में अभिव्यक्ति का * द्रष्टव्य- 'प्राकृत - शिक्षण की दिशाएँ' - डॉ० कमलचन्द सोगालो एवं डॉ० प्रेम सुमन जैन का लेख ( प्राकृत एवं जैनागम विभाग, संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी द्वारा १६८१ में आयोजित यू० जी० सी० सेमिनार में पठित ) । प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only १२६ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सशक्त माध्यम चुन ली गयी थी। महाकवि हाल ने अपनी गाथासप्तशती द्वारा प्राकृत को ग्रामीण जीवन और सौन्दर्य-चेतना की प्रतिनिधि भाषा बना दिया था। प्राकृत भाषा के प्रति इस जनाकर्षण के कारण कालिदास आदि महाकवियों ने अपने नाटक ग्रन्थों में प्राकृत भाषा बोलने वाले पात्रों को प्रमुख स्थान दिया है। अभिज्ञानशाकुन्तलं की ऋषिकन्या शकुन्तला, नाटककार भास की राजकुमारी वासवदत्ता, शूद्रक की नगरवधू बसन्तसेना, भवभूति की महासती सीता, राजा के मित्र, कर्मचारी आदि प्रायः अधिकांश नाटक के पात्र प्राकृत भाषा का प्रयोग करते देखे जाते हैं । इससे स्पष्ट है कि प्राकृत जन-सामान्य की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित थी। वह लोगों के सामान्य जीवन को अभिव्यक्त करती थी। समाज के सभी वर्गों द्वारा स्वीकृत भाषा प्राकृत थी। काव्य-भाषा : लोक-भाषा प्राकृत को काव्य की भाषा बनने का भी सौभाग्य प्राप्त है । प्राकृत में जो आगम-ग्रन्थ, व्याख्या साहित्य, कथा एवं चरित-ग्रन्थ आदि लखे गये हैं, उनमें काव्यात्मक सौन्दर्य और मधुर रसात्मकता का समावेश है । इसे प्राकृत ने २३०० वर्षों के जीवनकाल में निरन्तर बनाये रखा है। भारतीय काव्य-शास्त्रियों ने भी सहजता और मधुरता के कारण प्राकृत की सैकड़ों गाथाओं को अपने ग्रन्थों में उद्धरण के रूप में सुरक्षित रखा है। इस तरह प्राकृत ने देश की चिन्तनधारा, सदाचार और काव्य जगत् को निरन्तर अनुप्राणित किया है। अतः प्राकृत भारतीय संस्कृति की संवाहक भाषा है । प्राकृत ने अपने को किसी घेरे में कैद नहीं किया। इसके पास जो था उसे वह जन-जन तक बिखेरती रही, और जन समुदाय में जो १३० प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ था उसे ग्रहण करती रही। इस तरह प्राकृत भाषा सर्वग्राह्य और सार्वभौमिक भाषा है। विकास के चरण: प्राकृत भाषा के स्वरूप को प्रमुख रूप से तीन अवस्थानों में देखा जा सकता है। वैदिक युग से महावीर युग के पूर्व तक के समय में जनभाषा के रूप में जो भाषा प्रचलित थी उसे प्रथम स्तरीय प्राकृत कहा जा सकता है, जिसके कुछ तत्त्व वैदिक भाषा में प्राप्त होते हैं। महावीर युग से ईसा की द्वितीय शताब्दी तक आगम ग्रन्थों, शिलालेखों एवं नाटकों आदि में प्रयुक्त प्राकृत भाषा को द्वितीय स्तरीय प्राकृत नाम दिया जा सकता है। और तीसरी शताब्दी के बाद ईसा की छठी शताब्दी तक प्रचलित एवं साहित्य में प्रयुक्त प्राकृत को तृतीय स्तरीय प्राकृत कह सकते हैं। उसके बाद देश की क्षेत्रीय भाषाओं के साथ-साथ प्राकृत का विकास होता रहा है। प्रादि युग : द्वितीय स्तरीय प्राकृत के प्रयोग एवं काल की दृष्टि से तीन भेद किये जा सकते हैं— (क) आदि युग (ख) मध्य युग एवं (ग) अपभ्रंश युग। प्रथम युग की प्राकृत के प्रमुख पांच रूप प्राप्त होते हैं - १. प्रार्ष प्राकृत -- महावीर और बुद्ध के उपदेशों की भाषाएँ-अर्धमागधी, शौरसेनी तथा पालि । २. शिलालेखी प्राकृत-अशोक, खारवेल एवं अन्य राजाओं के लेखों की प्राकृत भाषा ३. निया प्राकृत - निया प्रदेश (चीनी तुर्किस्तान) से प्राप्त लेखों की भाषा, जो प्राकृत से मिलती-जुलती है। प्राकृत काव्य-मंजरी १३१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. धम्मपद - प्राकृत भाषा में लिखा हुआ धम्मपद प्राकृत भाषा के एक नये रूप को प्रकट करता है। ५. अश्क्योष - नाटककार अश्वघोष ने अपने नाटकों में जिस प्राकृत का प्रयोग किया है, वह अर्धमागधी, शोरसेनी, मागधी आदि का मिला-जुला रूप है । मध्य युग : ईसा की दूसरी शताब्दी से छठी शताब्दी तक प्राकृत भाषा का प्रयोग निरन्तर बढ़ता रहा । अतः इसे प्राकृत भाषा और साहित्य का समृद्ध युग कहा गया है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में इस समय प्राकृत भाषा का प्रयोग हुआ है । काव्य-लेखन की भाषा को सामान्य प्राकृत कहा गया है। क्योंकि इसमें प्राकृत भाषा के प्रयोग में प्राय: एकरूपता प्राप्त होती है। इस सामान्य प्राकृत को महाराष्ट्री प्राकृत कहा गया है। इस समय में मागधी और पैशाची प्राकृतों का प्रयोग भी साहित्य में हुअा। प्राकृत वैयाकरणों ने इन तीनों प्राकृतों के लक्षण अपने ग्रन्थों में स्पष्ट किये हैं। महाराष्ट्री प्राकृत : ___ मध्य युग में प्राकृत का जितना अधिक विकास हुआ, उतनी ही उसमें विविधता आयी। किन्तु साहित्य में प्रयोग बढ़ जाने के कारण विभिन्न प्राकृतें महाराष्ट्री प्राकृत के रूप में एकरूपता को ग्रहण करने लगीं। महाराष्ट्री प्राकृत के कुछ नियम निश्चित हो गये। उन्हीं के अनुसार कवियों ने अपने ग्रन्यों में महाराष्ट्री प्राकृत का प्रयोग किया है। प्राकृत के अधिकांश काव्य-ग्रन्थ महाराष्ट्री प्राकृत में लिखे गये हैं । पहली शताब्दी से वर्तमान युग तक इन दो हजार वर्षों में कई ग्रन्थ लिखे गये हैं, जो कई विषयों पर हैं । प्रस्तुत पुस्तक में भी इसी महाराष्ट्री प्राकृत की सामान्य व्याकरण एवं प्राकृत के १३२ प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ दिये गये हैं। महाराष्ट्र प्रान्त की जन-बोली से विकसित होने के कारण इस प्राकृत को महाराष्ट्री प्राकृत कहा जाता है। मराठी भाषा से इसका सम्बन्ध है। अपभ्रंश युग: साहित्य के लिए एक महाराष्ट्री प्राकृत भाषा तय हो जाने से प्राकृत भाषा में स्थिरता तो आयी, किन्तु उसका जन-जीवन से सम्बन्ध दिनों दिन घटता चला गया । वह साहित्य की भाषा बनकर रह गयी । अतः जन-बोली का स्वरूप इस प्राकृत से कुछ भिन्नता लिए हुए प्रचलित होने लगा, जिसे विद्वानों ने अपभ्रश भाषा नाम दिया है। यह प्रवृत्ति लगभग ६-७ वीं शताब्दी में गतिशील हुई। यहाँ से प्राकृत भाषा के विकास की तीसरी अवस्था प्रारम्भ हुई । उसे अपभ्रंश युग कहा गया है । अपभ्रंश भाषा प्राकृत और हिन्दी भाषा को परस्पर जोड़ने वाली कड़ी है। वह आधुनिक आर्य भाषाओं (राजस्थानी, गुजराती, मराठी आदि) की पूर्ववर्ती अवस्था है। अपभ्रंश भाषा का महत्त्व प्राकृत और आधुनिक भारतीय भाषाओं के आपसी सम्बन्ध को जानने के लिए आवश्यक है। प्राधुनिक भाषाएँ: भारतीय आधुनिक भाषाओं का जन्म उन विभिन्न लोक भाषाओं से हुआ है, जो प्राकृत व अपभ्रश से प्रभावित थीं। इन भाषाओं की व्याकरणात्मक संरचना और काव्यात्मक विधाओं का अधिकांश भाग प्राकृत की प्रवृत्तियों पर आधारित है। इसके अतिरिक्त शब्द-समूह की समानता भी ध्यान देने योग्य है। जन-भाषा हिन्दी भी प्राचीन जन-प्राकृत से कई अर्थों में सम्बन्ध रखती है। शब्द एवं क्रियारूपों की दोनों में समानता के साथ-२ सहजता और मधुरता के गुण भी देखने को मिलते हैं । यथा - प्राकृत काव्य-मंजरी १३३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत और हिन्दी : प्राकृत उक्खल कहारो खड्डा चोक्खं डाली पोट्टली सलोणा कड्ढ हिन्दी ओखली कहार खड्डा चोखा डाली पोटली सलोना काढ़ना चूकना देखना प्राकृत उल्लुट्ट कोइला चाउल डोरो भल्ल पत्तल बड्डा हिन्दी उलटा कोयला चाँवल डोरा भला पतला बड़ा कूदना चुक्क छूटना भुल्ल उड़ना देक्ख उड्ड बुज्झ चमक्क भूलना कूटना डसना लुकना बूझना डंस चमकना लुक्क ཟླ इस प्रकार प्राकृत भाषा का विकास किसी क्षेत्र या काल विशेष में पाकर रुका नहीं है । अपितु प्राकृत ने प्रत्येक समय की बहुप्रचलित जन-भाषा के अनुरूप अपने स्वरूप को ढाल लिया है। हर युग की भाषा और उसके साहित्य के विकास में प्राकृत ने अपना योगदान किया है। यही कारण है कि प्राकृत देश को इन सभी भाषाओं के साथ अपना सम्बन्ध कायम रख सकी है। अतः प्राकृत भाषा के अध्ययन एवं शिक्षण से देश की विभिन्न भाषाओं के प्रचार-प्रसार को बल मिलता है। देश की अखण्डता और चिन्तन की समन्वयात्मक प्रवृत्ति प्राकृत भाषा के माध्यम दृढ़ की जा सकती प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ख] प्राकृत काव्य साहित्य की रूपरेखा प्राकृत भाषा में काव्य-रचना प्राचीन समय से ही होती रही है। आगम-ग्रन्थों एवं शिलालेखों में अनेक काव्य-तत्त्वों का प्रयोग हुआ है। प्राकृत भाषा के कथा-साहित्य एवं चरित ग्रन्थों में भी कई काव्यात्मक रचनाएँ भी उपलब्ध हैं। पादलिप्त की तरंगवतीकथा तथा विमलसूरि के पउमचरियं में कई काव्य-चित्र पाठक का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हैं। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, श्लेष आदि अलंकारों का प्रयोग इसमें हुआ है। उत्प्रेक्षा का एक दृश्य दृष्टव्य है-- संध्याकालीन कृष्ण वर्ण वाले अन्धकार से युक्त गगन सभी दिशाओं को कलुषित कर रहा है। यह तो दुर्जन का स्वभाव है, जो सज्जनों के उज्ज्वल चरित्र पर कालिख पोतता है - उच्छरइ तमो गयरणो मइलन्तो दिसिवहे कसिरणवणो । सज्जणचरिउज्जोयं नज्जइ ता दुज्जण सहावो ॥ -पउमचरियं २-१०० इसी तरह वसुदेवहिण्डी, समराइच्चकहा, कुवलयमाला, सुरसुन्दरीचरियं आदि अनेक प्राकृत कथा व चरित-ग्रन्थों में प्राकृत-काव्य के विविध रूप देखने को मिल सकते हैं । इन ग्रन्थों में काव्य का दिग्दर्शन कराना मुख्य उद्देश्य नहीं है, अपितु कथा एवं चरित विशेष को विकसित करना है । किन्तु प्राकृत साहित्य में कुछ इस प्रकार के भी ग्रन्थ हैं, जिन्हें विशुद्ध रूप से काव्य ग्रन्थ कहा जा सकता है। प्राकृत चूकि ललित एवं सुकुमार भाषा रही है, अतः उस में काव्यगुण साहित्य की आत्मा के रूप में प्रतिष्ठित हैं। प्राकृत के प्रसिद्ध कवि हाल, प्रवरसेन, वाक्पतिराज, कोऊहल आदि की काव्य रचनाएँ इस बात की साक्षी हैं। रसमयी प्राकृत काव्य के जो ग्रन्थ आज उपलब्ध हैं, उन्हें तीन भागों प्राकृत काव्य-मंजरी १३५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में विभक्त किया जा सकता हैं : (१) मुक्तक काव्य (२) खण्ड-काव्य एवं (३) महाकाव्य । प्राकृत काव्य के इन तीनों प्रकार के ग्रन्थों का परिचय एवं मूल्यांकन प्राकृत साहित्य के इतिहास ग्रन्थों में किया गया है । इन ग्रन्थों के सम्पदकों ने भी उनके महत्त्व आदि पर प्रकाश डाला है । कुछ प्रमुख प्राकृत काव्य ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय यहाँ प्रस्तुत है । मुक्तक काव्य : मुक्तक काव्य में प्रत्येक पद्य रसानुभूति कराने में समर्थ एवं स्वतन्त्र होता है । इस दृष्टि से मुक्तक काव्य की रचना भारतीय साहित्य में बहुत पहले से होती रही है । प्राकृत साहित्य में यद्यपि सुभाषित के रूप में कई गाथाएँ विभिन्न ग्रन्थों में प्राप्त होती हैं; किन्तु व्यवस्थित मुक्तक काव्य के रूप में प्राकृत के दो ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं -- ( १ ) गाथासप्तशती एवं (२) वज्जालग्गं । गाथासप्तशती :- प्राकृत का यह सर्व प्रथम मुक्तककोश है। इसमें अनेक कवि और कवयत्रियों की चुनी हुई सात सौ गाथाओं का संकलन है । यह संकलन लगभग प्रथम शताब्दी में कविवत्सल हाल ने लगभग एक करोड़ गाथाओं में से चुनकर तैयार किया है । यथा सत्त सत्ताई कइवच्छलेर कोडीन मज्झप्रारम्मि । हा लेख विरइना खि सालंकाराणं गाहाणं ॥ - गाथा. १ / ३ गाथासप्तशती की गाथाओं की प्रशंसा अनेक प्राचीन कवियों ने की है । बाणभट्ट ने इस ग्रन्थ को गाथाकोश कहा है । इस ग्रन्थ का स्वरूप मुक्तक काव्य ग्रन्थों की परम्परा में अपना विशेष स्थान रखता है । इसमें गाथाओं का चयन करके उन्हें सौ-सौ के समूह में गुफित किया गया है । १३६ Jain Educationa International -- For Personal and Private Use Only प्राकृत काव्य-मंजरो Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सात सौ की संख्या के आधार पर इसका नाम गाथासप्तशती रखा गया है। इस ग्रन्थ में किसी एक ही विषय की उक्तियां नहीं हैं। अपितु शृगार, नोति, प्रकृतिचित्रण, सज्जन-दुर्जन के स्वभाव, सुभाषित आदि अनेक विषयों से सम्बन्धित गाथाएँ हैं। अधिकतर लोक-जीवन के विविध चित्रों की अभिव्यक्तियाँ इन गाथाओं के द्वारा होती हैं । नायक-नायिकाओं की विशेष भावनाओं और चेष्टाओं का चित्रण भी इस ग्रन्थ की गाथाएँ करती हैं। वज्जालग्गं :- प्राकृत का दूसरा मुक्तक-काव्य वज्जालग्गं है। कवि जयवल्लभ ने इस ग्रन्थ का संकलन किया है। इसमें अनेक प्राकृत कवियों की सुभाषित गाथाएँ संकलित हैं । कुल गाथाएँ ७६५ हैं, जो ६६ वज्जात्रों में विषय की दृष्टि से विभक्त हैं। यहाँ 'वज्जा' शब्द विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । वज्जा देशी शब्द है, जिसका अर्थ है- अधिकार या प्रस्ताव । एक विषय से सम्बन्धित गाथाएँ एक वज्जा के अन्तर्गत संकलित की गई है। जैसे वज्जा नं. ४ का नाम है- 'सज्जणवज्जा'। इसमें कुल १७ गाथाएँ एक साथ हैं, जिनमें सज्जन व्यक्ति के सम्बन्ध में ही कुछ कहा गया हैं। वज्जालग्गं गाथासप्तशती से कई अर्थों में विशिष्ट है । इसमें विषय की विविधता है। शृगार एवं सौन्दर्य का चित्रण ही जीवन में सब कुछ नहीं है। व्यक्ति की अपेक्षा समाज के हित का चिंतन उदारता का द्योतक है। इस मुक्तक-काव्य में साहस, उत्साह, न ति, प्रेम, सुगृहणी, ( ऋतु, कर्मवाद आदि अनेक विषयों से सम्बन्धित गाथाएँ हैं। विभिन्न प्रकार के पशु, पुष्प एवं सरोवर, दीपक, वस्त्र आदि उपयोगी वस्तुओं के गुण-दोषों का विवेचन भी इस ग्रन्थ में हुआ है। अतः यह काव्य मानव को लोकमङ्गल की ओर प्रेरित करता है। आदर्श गृहणी, अच्छी नागरिकता की जननी होती है । यह काव्य हमें बतलाता है कि गृहस्वामिनी को कैसा होना प्राकृत काव्य-मंजरी १३७ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहिए | वह कब गृह-लक्ष्मी कहलाती है । यथा खण्डकाव्य : प्राकृत में खण्डकाव्य कम ही लिखे गये हैं। क्योंकि कवियों की मुख्य प्रवृत्ति जीवन को सम्पूर्णता से चित्रित करना रहा है । कथा एवं चरित ग्रन्थों के द्वारा उन्होंने कई बड़े-बड़े ग्रन्थ प्राकृत में लिखे हैं । किन्तु प्राकृत में कुछ खण्डकाव्य भी उपलब्ध हैं, जिनमें मानव जीवन के किसी एक मार्मिक पक्ष की अनुभूति को पूर्णता के साथ व्यक्त किया गया है । १७ वीं शताब्दी के निम्न प्राकृत खण्डकाव्य उपलब्ध हैं । भुजइ भुजियसेसं सुप्पइ सुत्तम्मि परिय सयले । पढमं चेय विबुज्झइ घरस्स लच्छी न सा घरिरणी ॥ कंसवहो :- श्रीमद्भागवत के आधार पर मालावर प्रदेश के निवासी ग्रन्थ की रचना की थी । विद्वान् थे । इनकी कई श्री रामपारिंणवाद ने सन् १६०७ के लगभग इस कवि प्राकृत, संस्कृत और मलयालम के प्रसिद्ध रचनाएँ इन भाषाओं में प्राप्त हैं । कंसवहो ( कंसवध ) में चार सर्ग एवं २३३ पद्य हैं । इस ग्रन्थ के कथानक में उद्धव, श्री कृष्ण और बलराम को धनुषयज्ञ के बहाने गोकुल से मथुरा ले जाता है । वहाँ श्रीकृष्ण कंस का वध करते हैं, जिसका वर्णन कवि ने बहुत हो प्रभावक ढंग से किया है । यह एक सरस काव्य है, जिसमें लोक-जीवन, वीरता और प्रेमतत्त्व का निरूपण हुआ है । १३८ उसारिरुद्ध :- यह खण्डकाव्य भी रामपाणिवाद द्वारा रचित है । इसमें बाणासुर की कन्या उषा का श्रीकृष्ण के पौत अनिरुद्ध के साथ विवाह होने की घटना वरिणत है । प्रेम काव्य के रूप में इसका चित्रण हुआ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only प्राकृत काव्य - मंजरो Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। अत: इस काव्य में शृगारिकता अधिक है। राजशेखर की कर्पूरमंजरी एवं अन्य काव्यों का भी इस पर प्रभाव परिलक्षित होता है । प्रबन्धकाव्य की दृष्टि से यह काव्य उपयुक्त है। इसकी कथावस्तु सरस है । ___ कुम्मापुत्तचरियं :- प्राकृत के चरित ग्रन्थों में कुछ ऐसे काव्य हैं, जिन्हें कथानक की दृष्टि से खण्डकाव्य कहा जा सकता है। कुम्मापुत्तचरियं इसी प्रकार का खण्डकाव्य है। लगभग १६ वीं शताब्दी में जिनमाणिक्य के शिष्य अनंतहंस ने इस ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ में कुल १६८ गाथाएँ प्राप्त हैं । कुम्मापुत्तचरियं में राजा महेन्द्रसिंह और उनकी रानी कूर्मा के पुत्र धर्मदेव के जीवन की कथा वणित है। प्रारम्भ में दुर्लभकुमार नामक राजपुत्र को भद्रमुखी नामक यक्षिणी अपने महल में ले जाती है, और बाद में एक महात्मा के द्वारा उस कुमार के पूर्व-जन्म का वृतान्त कहा जाता है । इस ग्रन्थ में दान, शोल, तप और भाव-शुद्धि के महत्त्व को प्रतिपादित किया गया है। इसी प्रसंग में कई छोटे-छोटे उदाहरण भी प्रस्तुत किए गये हैं। मनुष्य-जन्म की सार्थकता बतलाते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार असावधानी से हाथ में रखा हुआ रत्न समुद्र में गिर जाने पर फिर नहीं मिलता है, उसी प्रकार व्यर्थ के कामों में मनुष्य-जन्म को व्यतीत कर देने पर अच्छे कार्य करने के लिए दुबारा मनुष्य-जन्म नहीं मिलता है । इस ग्रन्थ की भाषा बहुत सरल है, और संवाद-शैली में कथा को आगे बढ़ाया गया है। महाकाव्य : महाकाव्य में जीवन की सम्पूर्णता को विभिन्न आयामों द्वारा उद्घाटित किया जाता है। प्राकृत में रसात्मक महाकाव्य कम ही लिखे गये हैं। किन्तु जो महाकाव्य उपलब्ध हैं, वे अपनी विशेषताओं के कारण प्राकृत काव्य-मंजरी १३६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकाव्य के क्षेत्र में अपनी अमिट छाप छोड़ते हैं। उनकी काव्यात्मकता और प्रौढ़ता के कारण उन्हें प्राकृत के शास्त्रीय महाकाव्य कहा जा सकता है। इस रसमयता के कारण वे प्राकृत के अन्य कथा एवं चरित ग्रन्थों से अपना भिन्न स्थान रखते हैं। ऐसे प्राकृत के उत्कृष्ट महाकाव्य हैं :- (१) सेतुबन्ध, (२) गउडवहो, (३) लीलावईकहा एवं,(४) द्वयाश्रयकाव्य । प्राकृत के ये चारों महाकाव्य ईसा की ४-५ वीं शताब्दी से १२ वीं शताब्दी तक को प्राकृत कविता का प्रतिनिधित्व करते हैं। सेतुबन्ध (रावणवहो) :- प्राकृत का यह प्रथम शास्त्रीय महाकाव्य है। इसमें राम कथा के एक अंश को प्रौढ़ काव्यात्मक शैली में महाकवि प्रवरसेन ने प्रस्तुत किया है । वाल्मीकि रामायण के युद्धकाण्ड की कथावस्तु सेतुबन्ध के कथानक का प्राधार है। इस महाकाव्य में मुख्य रूप से दो घटनाएँ हैं :सेतुबन्ध और रावण वध । अतः इन दोनों प्रसुख घटनाओं के आधार पर इसका नाम 'सेतुबन्ध' अथवा 'रावणवहो' प्रचलित हुआ है। टीकाकार रामदास भूपति ने इसे 'रामसेतु' भी कहा है। महाकवि ने सेतु-रचना के वर्णन में ही अधिक उत्साह दिखाया है। अत: 'सेतुबन्ध इसका सार्थक नाम है। 'रावणवध' को इस काव्य का फल कहा जा सकता है। सेतुबन्ध महाकाव्य में कुल १२६१ गाथाएँ प्राप्त होती हैं, जो १५ आश्वासों में विभक्त हैं । इसकी भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है। आश्वासों के अन्त में 'पवरसेण विरइए' पद प्राप्त होता है । अतः इसके रचयिता महा कवि प्रवरसेन हैं। गउडवहो :- प्राकृत के महाकाव्यों में 'गउडवहो' का महत्त्वपूर्ण स्थान है । लगभग ई० सन् ७६० में महाकवि वाक्पतिराज ने गउडवहो की रचना की थी। वाकपतिराज कन्नौज के राजा यशोवर्मा के आश्रय में रहते थे । प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्होंने इस काव्य में यशोवर्मा के द्वारा गौड़देश (मगध) के किसी रोजा के वध किये जाने का वर्णन किया है। इसीलिए इसका नाम 'गउडवध' रखा है । इस दृष्टि से यह एक ऐतिहासिक काव्य भी है। 'गउडवहो' में प्रारम्भ में विभिन्न देवी-देवताओं को ६१ गाथाओं से नमस्कार किया गया है और इसके बाद ६८ गाथा तक वाक्पतिराज ने महाकवियों और उनके काव्य के स्वरूप पर प्रकाश डाला है। इस प्रसंग में उन्होंने प्राकृत भाषा और प्राकृत काव्य के महत्त्व को भी स्पष्ट किया है। इसके बाद कवि ने महाकाव्य के नायक यशोवर्मा के जीवन का वर्णन किया है । प्रसंग के अनुसार इस काव्य में प्रकृति-चित्रण, विजय-यात्रा का वर्णन तथा वस्तुवर्णन आदि किये गये हैं। इन वर्णनों से ज्ञात होता है कि कवि ने लोक को बहुत सूक्ष्मता से देखा था। अतः उनकी अनुभूतियां व्यापक थीं। ग्रन्थ में अनेक अलंकारों का प्रयोग किया गया है। श्यामल शरीर वाले कृष्ण पीताम्बर पहिने हुए दिन और रात्रि के मिलन-स्थल सायंकाल के समान प्रतीत होते हैं, इस दृश्य को कवि ने इस प्रकार कहा है तं णमह पीय-वसरणं जो वहइ सहाव-सामलं-च्छायं । दिप्रस-रिणसा-लय-रिणग्गम-विहाय-सबलं पिव सरीरं ।। लीलावईकहा :- लगभग ६ वीं शताब्दी में महाकवि कोऊहल ने 'लीलावईकहा' नामक महाकाव्य की रचना की है । यह प्राकृत का महाकाव्य एवं कथा-ग्रन्थ दोनों है। इस ग्रन्थ में प्रतिष्ठान नगर के राजा सातवाहन एवं सिंहलद्वीप की राजकुमारी लीलावई के प्रेम की कथा वर्णित है। बीच में कई अवान्तर कथाएँ हैं। इस महाकाव्य से ज्ञात होता है कि प्रेमीप्रेमिकाएँ अपने प्रेम में दृढ़ होते थे और हर तरह की परीक्षाओं में खरे प्राकृत काव्य-मंजरी १४१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उतरते थे। तभी समाज उनके विवाह की स्वीकृति देता था। राजाओं के जीवन-चरित का इसमें काव्यात्मक वर्णन है। यह महाकाव्य काव्यशास्त्रीय दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। इसमें उपमा उत्प्रेक्षा, रूपक, समासोक्ति आदि अलंकारों का व्यापक प्रयोग है। शृगार और वीर रस का इसमें मनोहर चित्रण हुआ है। इन महाकाव्यों के अतिरिक्त प्राकृत में आचार्य हेमचन्द्र द्वारा रचित 'द्वयाश्रयकाव्य' भी प्रसिद्ध है। इसमें प्राकृत व्याकरण के नियमों को स्पष्ट किया गया है। कुमारपाल राजा का जीवन भी इस काव्य में वर्णित है। इसी तरह श्री कृष्णलीला शुककवि ने 'सिरिचिंधकव्व' नामक महाकाव्य प्राकृत में लिखा है, जिसका प्रत्येक सर्ग 'श्री' शब्द से अंकित है। लगभग १३ वीं शताब्दी में इसे लिखा गया है । इस प्रकार प्राकृत में महाकाव्यों की एक सशक्त परम्परा है। चरित-काव्य : प्राकृत काव्य के अन्तर्गत कुछ ऐसे भी काव्य ग्रन्थ हैं; जिनमें महा पुरुषों के जीवन-चरित वरिणत हैं। ये ग्रन्थ पद्य में लिखे गये हैं। इन्हें उपदेशात्मक काव्य-ग्रन्थ कहा जा सकता है। ऐसे चरितकाव्य ईसा की तीसरी शताब्दी से १५-१६ वीं शताब्दी तक लिखे जाते रहे हैं। विमलसूरि का 'पउमचरियं', धनेश्वरसूरि का 'सुरसुन्दरीचरियं', नेमिचन्द्रसूरि का 'महावीर चरियं' तथा देवेन्द्रसूरि का 'सुदंसणाचरियं' आदि प्रमुख चरितकाव्य हैं। इन चरितकाव्यों में कथा एवं चरित के साथ-साथ प्राकृत काव्य का स्वरूप भी प्रकट किया गया है । इनका काव्यात्मक सौन्दर्य मनोहर है। कथा-काव्य: प्राकृत में कई कथा-ग्रन्थ लिखे गये हैं। उनमें से कुछ गद्य में एवं १४२ प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ पद्य में हैं। पद्य में लिखे गये प्राकृत के कथा-काव्य काव्यात्मिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हैं । पादलिप्तसूरि ने 'तरंगवतीकथा', जिनेश्वरसूरि ने “निर्वाणलीलावतोकथा', सोमप्रभसूरि ने 'कुमारपालप्रतिबोध', अाम्रदेव सूरि ने 'पाख्यानमणिकोशवृत्ति' तथा रत्नशेखरसूरि ने 'सिरिसिरिवालक हा' आदि कथा-काव्य लिखे हैं। ये कथा-काब्य ईसा की प्रथम शताब्दी से १५ वीं शताब्दी तक लिखे जाते रहे हैं। इन ग्रन्थों में कथातत्त्व एवं काव्यतत्त्व दोनों का समन्वय दृष्टिगोचर होता है । __ इस प्रकार प्राकृत काव्य-साहित्य की विभिन्न प्रवृत्तियाँ हैं । मुक्तक काव्य जीवन के विभिन्न अनुभवों से परिचित कराते हैं। खण्डकाव्य चरित नायकों के विशिष्ट जीवन का चित्र प्रस्तुत करते हैं । महाकाव्यों में जीवन के विभिन्न अनुभवों और वस्तुजगत् का काव्यात्मक वर्णन प्राप्त होता है । चरितकाव्य महापुरुषों के प्रेरणादायक चरितों की काव्यात्मक अनुभूति देते हैं । कथा-काव्य कल्पना और सौन्दर्य का समन्वित आनन्द प्रदान करते हैं । प्राकृत काव्य-साहित्य की ये सब विधाएँ भारतीय साहित्य के भण्डार को समृद्ध करतो हैं । 000 प्राकृत काव्य-मंजरी १४३ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International सर्वनाम चार्ट २२8 एकवचन : पु० स्त्री० स्त्रीलिंग | नपुंसकलिंग इम इमो इमा इमा इम 44. A. 2 तुमं इम इम इमेण ताए इमाए इमेण तुमए तुज्झ मज्झ । | ताअ इमस्स इमाओ इमाअ इमत्तो इमस्स इमाओ ममाओ तुमाओ ताओ तत्तो ताओ ष० । मझ तस्स ता इमाअ तस्स इमस्स For Personal and Private Use Only तुज्झ तुम्हम्मि इमस्स इमम्मि स० | अम्हम्मि तम्मि ताए इमाए तम्मि इमम्मि परिशिष्ट बहुवचन इमाओ तारिण तेहि प्राकृत काव्य-मंजरी प्र० | अम्हे तुम्हे द्वि० अम्हे तुम्हे अम्हेहि तुम्हेहि अम्हाण तुम्हाण ताण अम्हाहितो | तुम्हाहितो | ताहितो अम्हाण | तुम्हाण | ताण । | अम्हेसु । तुम्हेसु । तेसु ताओ इमे ताओ इमेहि ताहि इमारण ताण इमाहितो । ताहितो इमारण ताण | इमेसु तासु इमाओ ताणि इमाहि इमाण तारण इमाहितो ताहिंतो इमाण ताण इमासु | तेसु इमाणि इमारिण इमेहि इमारण | इमाहित्तो | इमारण इमेसु Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International - प्राकृत काव्य-मंजरी साह धेरण. | जुवई . | पुरिसं LCH जुवई घेणु घेणए चेरणत्ता साहुणो धेगए For Personal and Private Use Only संज्ञाशब्द चार्ट एकवचन : पुल्लिग शब्द स्त्रीलिंग शब्द अकारान्त । इकारान्त उकारान्त । प्राकारान्त । इकारान्त | ईकारान्त उकारान्त ऊकारान्त शब्द | पुरिस सुधि बाला जुवइ प्र० | पुरिसो सुधी बाला घेणू सुधिं बालं पुरिसेण सुधिणा साहुणा बालाए जुवईए नईए च० | पुरिसस्स सुधिणो साहुणो बालाअ जुवईआ नईआ | बहूए पं० | पुरिसत्तो सुधित्तो साहुत्तो बालत्तो जुवइत्तो नइत्तो बहुत्तो ष० | पुरिसस्स सुधिणो बालाअ | जुवईआ नईआ स० पुरिसे सुधिम्मि साहुम्मि बालाए | जुवईए नईए घेसाए सं० | पुरिसो सुधी साह बाला जुवई बहुवचन : प्र० | पुरिसा सुधिरणो साहुणो बालाओ जुवईओ नईओ घेणूओ बहूओ द्वि० पुरिसा सुधिरणो साहुणो बालाओ जुवईओ नईओ घेणूओ बहूओ तृ पुरिसेहि । सुधीहि साहूहि जुवईहिनईहि धेहि पुरिसाण सुधीण साहूण बालारण जुवईण नईण घेणूण बहूरण पुरिसाहितो सुधीहितो साहूहिंतो बालाहिंतो जुवईहितो नईहितो घेणूहितो बहूहितो | पुरिसाण सुधीरण साहूण बालाग जुवईण नईण घेणूण बहूण पुरिसेसु सुधीसु साहुसु बालासु जुवईसु नईसु बहूसु परिसा । सुधिरणो साहुणो | बालाओ । जुवईओ नईओ घेगूओ बहूओ | नइ घेणु बालाहि घेणूसू k Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International 388 क्रियारूप चार्ट एकवचन वर्तमान काल भूतकाल । भविष्यकाल इच्छा या आज्ञा | सम्बन्ध/हेत्वर्थ कृदन्त । पुरुष | अ.क्रिया आ.क्रिया अ.क्रिया आ.क्रिया | अ.क्रिया आ.क्रिया अ.क्रिया आ.क्रिया अ. क्रिया | आ. क्रिया नम दा नम | दा | नम | दा नम | दा | नम। प्रथम नमामि | दामि । | नमोअ | दाही नमिहिमि दाहिमि | नममु | दामु । | नमिऊरण दाऊरण मध्यम नमसि | दासि | नमोअ | दाही नमिहिसि| दाहिसि | नमहि । दाहि नमिउं दाउं अन्य | नमइ नमइ । दाइ । नमी दाही | नमिहिइ | दाहिइ / नमउ दाउ For Personal and Private Use Only बहुवचन नमिऊरण दाऊण प्रथम नमामो | दामो | नमी | दाही नमिहामो दाहामो नममो दामो मध्यम नमित्था दाइत्था नमीअ | दाही नमिहित्था दाहित्था नमह दाह अन्य | नमन्ति | दान्ति | नमीअ | दाही नमिहिन्ति दाहिन्ति | नमन्तु | दान्तु नमिउं दाउ प्राकृत काव्य-मंजरी Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International प्राकृत काव्य-मंजरी कृदन्त विशेषरण चार्ट एकवचन प्रथमा विक्ति बहुवचन मू.क्रि. व प्रत्यय | पुल्लिग | स्त्रीलिंग नपुंसकलिंग पुल्लिग | स्त्रीलिंग काल नपुंसकलिंग For Personal and Private Use Only पा व० का० | पढ+अन्त | पढन्तो पढन्ती | पढन्तं पढन्ता | पढन्तीओ | पढन्तारिण पढ+माण | पढमाणो | पढमाणी | पढमाणं | पढमाणा | पढमाणीओ | पढमारणारिण भू० का० पढ+ +अ | पढिओ पढिआ पढिअं पढिआ पढिआओ पढिआणि भ० का० पढ+इ+स्सन्त पढिस्सन्तो | पढिस्सन्ती | पढिस्सन्तं | पढिस्सन्ता | पढिस्सन्तीओ | पढिस्सन्तारिण यो००[क] | पढ+अणीअ | पढणीओ | पढणीआ | पढणीअं | पढणीआ | पढणीआओ | पढणीआणि वि.कृ० [ख] | पढ+ए+अव्व पढेअन्वो । पढेअव्वा | पढेअव्वं पढेअव्वा पढेअन्वाओ पढेअव्वारिण १४७ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी अनुवाद पाठ ११:प्राकत काव्य १. प्राकृत काव्य के लिए नमस्कार है और (उसके लिए भी), जिसके द्वारा प्राकृत काव्य रचा गया हैं । उनको भी हम नमस्कार करते हैं, जो (प्राकृत कान्य को) पढ़कर (उसे) समझते हैं । २. (सरल) देशी शब्दों से युक्त, मधुर अक्षरों एवं छन्द से रचित, मनोहर, स्पष्ट, विस्तीर्ण एवं प्रकट अर्थवाला प्राकृत-काव्य (सब लोगों के द्वारा) पढ़ने योग्य ३. सुगन्धित एवं शीतल जल से, चतुर व्यक्तियों के वचनों से और उसी तरह प्राकृत काव्य में जो आनन्द (रस) उत्पन्न होता है, (उससे हम कभी) संतोष को प्राप्त नहीं होते हैं (नहीं अघाते हैं)। ४. नये अर्थ की प्राप्ति, अगाध मधुरता, काव्यतत्त्व की समृद्धि, सरलता एवं संसार के प्रारम्भ से अब तक को काव्य-रचना, यह (सब) प्राकृत में (है) । ५. सभी भाषाएँ इसी (जन-बोली प्राकृत) से निकलती है और इसी को प्राप्त होती हैं (भाषा से फिर बोली बन जाती हैं)। जैसे- जल (बादल के रूप में) समुद्र से निकलते हैं और समुद्र को ही (नदियों के रूप में) आते हैं । ६. नटिल अर्थ से रहित और देशी (शब्दों वाला), मधुर अक्षरों से रचित, मनोहर प्राकृत काव्य संसार में किसके हृदय को अच्छा नहीं लगता है ? 000 १४८ प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १२ : शिक्षा-विवेक १. उस प्रकार के सुन्दर, स्वस्थ निवासियों वाले किसी सन्निवेस (नगर) में सिद्ध नामक किसी (व्यक्ति) के पिता के लिए प्रिय दो पुत्र (थे)। २. उस (पिता) के द्वारा उन्हें कुछ सूत्र पढ़ाये गये, किन्तु वह (पिता) विचार करता है कि (यदि) ये कुछ निमित्त (शास्त्र) जान जाते हैं तो (कुछ) धन प्राप्त हो जाता। ३. तब पिता के द्वारा किसी नैमित्तकशास्त्र के जानकार को समर्पित कर दिये गए (वे पुत्र) (उससे) सीखते हैं। किन्तु एक (पुत्र) के लिए (वह) शिक्षा अच्छी तरह प्राप्त होती है। ४. और दूसरे के लिए अविनय-भाव के कारण उस प्रकार नहीं (प्राप्त होती है) । इसके बाद किसी एक दिन वे (दोनों) जंगल में लकड़ी लेने के लिए भेजे गये। ५. मार्ग में जाते हुए उनके द्वारा हाथी के जैसे पैर देखे गये। एक ने (अबिनीत शिष्य ) कहा-'हे भाई! देखो, यह हाथी गया है।' ६. दूसरे (विनीत शिष्य) ने कहा-'यह हथिनी है, (उसकी) शारीरिक-क्रिया से जानी गयी है और (वह) कानी है, (क्योंकि) एक ही किनारे में चरने (पत्तियाँ खाने) से जानी गयी है। ७. और भी (उस हथिनी के) ऊपर सुन्दर स्त्री है।' यह कैसे जान गया ? 'बृक्षों पर लाल धागों के लगने से यह ज्ञात हुआ है।' ८. उस (कथन) के विश्वास के लिए इच्छुक वे दोनों जब उसी मार्ग से जाते हैं तब जैसा उन्होंने कहा था (वह) सब तालाब के किनारे (पहुँचने पर) देखा गया (सत्य प्रमाणित हो जाता है)। ९. इसी समय में छाया में विश्राम करते हुए उनके पास में सिर पर जल भरे हुए घड़े को रखे हुए एक बृद्धा (बूढ़ी भौरत) आयी। प्राकृत काव्य-मंजरी १४९ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०-११. पुत्र के समान आयु से युक्त (उनको) देखकर पुत्र के स्नेह की उत्सुकता से विदेश में स्थित अपने पुत्र की जानकारी पूछने वाली (उस वृद्धा) का घड़ा टूट गया। और पानी (सरोवर के) पानी में मिल गया। जब तक वह वृद्धा उससे दुखी मनवाली और चिन्ता से युक्त होती है तभी एक (अविनीत शिष्य) ने कहा - १२ 'यदि निमित्तशास्त्र का यह वचन- 'उससे उत्पन्न उसी में मिल जाता है, सत्य है तो हे भद्र, तुम्हारा पुत्र मर गया है। व्यर्थ में दुख करने से क्या (फायदा)? १३. दुसरे (विनीत शिष्य) ने कहा- 'निमित्तशास्त्र में प्राप्त यह वाणी (सही ढंग से) मिलायी हुई नहीं है। इसलिए हे भद्रे ! तुम्हारा पुत्र जीवित है । घर में जाकर देखो।' १४. उस (पुत्र) को (घर में) देखकर आभूषणों और रुपयों के साथ (वह वृद्धा) एक क्षण में वापस आ गयी। (गहने-रुपये) समर्पित कर संतुष्ट (वह वृद्धा) आनन्दित होकर अपने घर चली गयी। १५. तब (एक) भाई के द्वारा पूछा गया- 'हे भाई! कहो न, यह (कथन) विपरीत (कैसे) हो गया ?' दूसरे ने कहा- 'यह सत्य है- उससे उत्पन्न उसी में (मिलता १६. पानी पानी में मिल गया, मिट्टी से बना हुआ घड़ा (उसी में) मिल गया। __अतः यह स्पष्ट (सरल) मार्ग है कि माता में पुत्र मिलता है। १७. इसलिए तुम खेद मत करो और (अपने) गुरु के सम्बन्ध में भी वैर धारण मत करो । गुरु लोग भी जीव (व्यक्ति) में (उसकी) योग्यता के अनुसार ही गुणों की स्थापना करते हैं। 000 पाठ १३ : राजकुमारों की बुद्धि-परीक्षा १. इसके बाद एक बार कभी रात्रि के अन्तिम पहर में सुखपूर्वक जगा हुआ राजा (प्रसेनजित) इस प्रकार सोचने लगा - १५. प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. 'मेरे राजकुमारों के बीच में कौन (राजकुमार) चूड़ामणि से सुशोभित फण के अग्रभाग वाले महानाग शेष की तरह पृथ्वी की धुरा को धारण करने में समर्थ होगा?' ३. ऐसा सोचकर हाथी, घोड़े, शस्त्र, रथ आदि से भरे हुए सम्पूर्ण पुराने शस्त्रागार को उसने चारों दिशाओं से आग लगवा दी। ४. उस अग्नि की भयंकर ज्वाला को देखकर राजा राजकुमारों को कहता है - 'अरे राजकुमारो! (इस आग में से) जो (कुमार) जो कुछ भी प्राप्त करता है वह सब उसे दे दिया जायगा।' ५. राजा के आदेश को सुनकर राजकुमार तड़-तड़ की आवाज करते हुए, जलते हुए बांसों के उस घर में घुसकर हाथी आदि को निकाल लेते हैं । ६. किन्तु राजकुमार श्रेणिक के द्वारा जलते हुए उस मकान के भीतर प्रवेशकर शीघ्र ही चतुरता से बिम्ब नामक जयढक्का (नगाड़ा) प्राप्त कर ली गयी। ७. दूसरे राजकुमार मजाक में उपहास करते हुए हाथ में ली हुई (उस) बिम्ब (नगाड़ा) वाले श्रेणिक को 'बिम्बसार' कहते हैं । ८. इसको देखकर राजा ने सोचा- 'श्रेणिक के द्वारा अच्छा किया गया है जो कि राज्य के इस प्रथम अंग जयढक्का को प्राप्त किया गया।' ९. इसके बाद (कभी) एक बार राजकुमारों के पराक्रम, त्याग की परीक्षा करने के लिए राजा पकवान बनवाकर अपने कुमारों को भोजन करवाता है । १०. पकवान परोसकर राजा के द्वारा कुत्तों के झुण्ड को (वहाँ) बुलवाया गया। दूसरे (राजकुमार) उनको आता हुआ देखकर भाग गये। ११. किन्तु कुमार श्रेणिक दोनों बगलों में स्थित दूसरे राजकुमारों की थालियों को लेकर कुत्तों के लिए फेंक देता है और भय से रहित मनवाला (वह) स्वयं की थाली जीमता रहता है। प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. उस वृतान्त को देखकर आनन्दित हुआ राजा सोचता हैं- 'यह (श्रेणिक) उदार है और वीर है (तथा) मेरे अन्य राजकुमार कायर हैं ।' १३. किसी दूसरे अवसर पर राजकुमारों की बुद्धि की परीक्षा करने के लिए (राजा) गिने हुए लड्डुओं की टोकरियों और पानी के कलशों को सीलबन्द करा देता हैं । १४. तब उन (राजकुमारों) को बुलवाकर कहता है- 'हे पुत्र! अपनी बुद्धि के वैभव से सील तोड़कर लड्डुओं को खाओ और पानी को भी पिओ।' १५. ऐसा कहे गये अपनी बुद्धि के घमण्डी वे (राजकुमार) आय को न प्राप्त करते हुए भूख-प्यास से सूखे शरीर वाले (होकर) दीनता को प्राप्त हुए । १६. किन्तु श्रेणिक कुमार के द्वारा कलशों से झरती हुई बूदों के जल को लेकर और टोकरियों को हिलाकर (उनसे गिरी हुई) लड्डुओं की चूरी से भोजन कर लिया गया। १७. श्रेणिक की बुद्धि के वैभव को इस प्रकार सुनकर आश्चर्य युक्त महाराजा सोचता है कि राज्याभिषेक के लिए यह (श्रेणिक) योग्य है । 000 पाठ १४ : सज्जन-स्वरूप १. शुद्ध स्वभाव वाला सज्जन (व्यक्ति) दुर्जन व्यक्ति के द्वारा मलिन किया जाता हुआ भी राख के द्वारा (मले जाते हुए) दर्पण की तरह और अधिक निर्मल (स्वच्छ) होता है। यह सत्कार्य किया गया, जो ब्रह्मा के द्वारा संसार में सज्जन (लोग) बनाये गये। (क्योंकि वे सज्जन) दर्शन किये जाने पर दुख को हरण करते हैं (एवं) बातचीत करते हुए (वे) सभी सुखों को प्रदान करते हैं । ३. न दूसरों पर हँसते हैं, न अपनी प्रशंसा करते हैं (और) सदा प्रिय बोलते हैं, यह सज्जन लोगों का स्वभाव है । उन (सज्जन) पुरुषों को बार-बार नमस्कार । १५२ प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. सज्जन व्यक्ति के अनेक गुणों से क्या? दो(गुण) ही पर्याप्त हैं- बिजली की तरह (उनका क्षणिक) क्रोध एवं पत्थर की लकीर की तरह (उनकी) मित्रता । ५. प्रलय में पर्वत विचलित हो जाते हैं एवं समुद्र भी मर्यादा को त्याग देते हैं (किन्तु) उस (आपत्ति) समय में भी सज्जन व्यक्ति (अपनी) प्रतिज्ञा को शिथिल नहीं करते हैं। ६. यद्यपि ब्रह्मा के द्वारा सज्जन व्यक्ति चन्दन के वृक्ष की तरह फल-रहित (धन रहित) बनाये गये हैं। फिर भी (वे) अपने शरीर से (भी) लोगों का परोपकार करते हैं। ७. सूर्य कहाँ उगता है ? (और) कमल के वन कहाँ विकसित होते हैं ? संसार में सज्जन लोगों का स्नेह (उनसे) दूर रहने वालों के लिए भी कम नहीं होता है । ८. सज्जन पुरुषों के हृदय विशाल वृक्षों की शाखाओं की तरह फल-समृद्धि (वैभव) में अच्छी तरह नम्र (और) फल (धन) के अभाव में ऊँचे (स्वाभिमानी) होते हैं। ६. सज्जन पुरुषों का कार्यरूपी वृक्ष (उनके) हृदय में पैदा हुआ, वहाँ पर ही बढ़ा और लोक में प्रकट नहीं हुआ। (वह केवल) फलों (परिणाम) के द्वारा देखा जाता है। १०. सज्जन लोग स्पष्ट रूप से दूसरों के कार्य में तल्लीन और अपने कार्य के प्रति उदासीन होते हैं । (जैसे) चन्द्रमा पृथ्वी को सफेद करता है, (किन्तु) अपनी कालिमा को नहीं मिटाता है। ११. सत्य बोलने वाले, प्रतिज्ञा को पूरा करने वाले, बड़े कार्यों के भार को वहन करने बाले धैर्यशाली, प्रसन्नमुख सज्जन लोग चिरकाल तक जीवित रहने वाले हों। 000 प्राकृत काव्य-मंजरी १५३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १५ : सफल मनुष्य-जन्म १. किसी एक श्रेष्ठ नगर में कलाओं में कुशल कोई (एक) व्यापारी था। (वह) गुरुओं के पास में रत्न-परीक्षा ग्रन्थ का अभ्यास करता है। २. इसके बाद किसी एक दिन वह व्यापारी सोचता है कि अन्य रत्नों से क्या ? मणियों में शिरोमणि, सोचने मात्र से धन देने वाला चिन्तामणि (रत्न) है। ३. तब से वह उसके लिए अनेक स्थानों में खानों को खोदता है। फिर भी विभिन्न उपायों को करने से भी वह चिन्तामरिण उसे प्राप्त नहीं होता है। ४. किसी ने (उसे) कहा- 'जहाज पर चढ़कर रत्नद्वीप में जाओ। वहाँ आशपुरी देवी है । (वह) तुम्हें इच्छित (फल) देगी।' ५. वहाँ रत्नद्वीप में इक्कीस दिनों में पहुंचा हुआ वह उस देवी की आराधना करता है। संतुष्ट हुई वह (देवी) इस प्रकार (उसे) कहती है - ६. 'हे भद्र ! तुम्हारे द्वारा आज मैं किस कार्य से पूजी गयी हूँ ?' वह कहता है 'हे देवि! यह प्रयत्न चिन्तामणि रत्न के लिए है।' ७. तब उस (संतुष्ट) देवी के द्वारा उस रत्न-व्यापारी को चिन्तामणि रत्न दे दिया गया। संतुष्ट हुआ वह (व्यापारी) अपने घर जाने के लिए जहाज पर चढ़ गया। ८. जहाज के एक स्थान पर बैठा हुआ (वह) व्यापारी जब समुद्र के बीच में आया तभी पूर्व दिशा में पूर्णिमा का चाँद निकल आया। ६. उस चाँद को देखकर वह व्यापारी अपने मन में सोचता है- 'चिन्तामणि रत्न का प्रकाश अधिक है अथवा चन्द्रमा का ?' १५४ प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०, ऐसा सोचकर (वह) अपनी हथेली में चिन्तामणि रत्न को लेकर आँख से बार बार रत्न और चन्द्रमा का निरीक्षण करता है । ११. और उसके दुर्भाग्य से इस प्रकार देखते हुए हथेली-प्रदेश से अत्यन्त छोटा और चमकदार वह रत्न समुद्र में गिर गया। १२. उस (व्यापारी) के द्वारा बार-बार खोजे जाने पर भी समुद्र के बीच में गिरा हुआ समस्त रत्नों का शिरोमणि (वह) चिन्तामरिण क्या किसी प्रकार प्राप्त हो सकता है ? (नहीं)। १३ उसी प्रकार बहुत प्रकार के सैकड़ों जन्मों में भ्रमण के द्वारा किसी-किसी प्रकार से प्राप्त मनुष्य-जन्म को जीव असावधानी (प्रमाद) से परवश होकर क्षणमात्र में खो देता है। 000 पाठ १६ : मनुष्य की कृतघ्नता १. एक आदमी था। (एक बार) वह लकड़ी के लिए जंगल को गया और उसके द्वारा (वहाँ) सिंह देखा गया । उस (शेर) के भय से (वह आदमी) वृक्ष पर चढ़ गया। २-३. उस ऊँचे वृक्ष पर (पहले से) चढी हुई एक बन्दरिया को देखकर भय को प्राप्त शरीर वाला वह (आदमी) सोचता है- दोनों के बीच में (मैं) घिर गया (हूँ) । 'यह एक तरफ व्याघ्र एवं दूसरी तरफ भरी हुई नदी' नामक विकट न्याय हो गया है ।' तभी बन्दरिया के द्वारा वह कहा गया- 'हे पुत्र! डरो मत और काँपो मत ।' ४. (इससे) वह आश्वस्त हो गया । वृक्ष के नीचे (वह) सिंह ठहर जाता है। रात्रि हुई । तब (वह) आदमी और (वह) बन्दरिया नींद लेने लगते हैं । प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. बन्दरिया ने उसे कहा- 'मेरी गोद में सिर रखकर सो जाओ।' उस (आदर्मी) के द्वारा यही किया गया। (तब) सिंह उस बन्दरिया से कहता है। ६-७. 'मैं अत्यन्त भूख से युक्त हूँ। मनुष्य को (नीचे) छोड़ दो। मैं तुम्हारा अच्छा मित्र हो जाऊँगा और कभी तुम्हें उपकृत कर दूंगा । तुम एक कृतज्ञता-रहित खराब आदमी की क्यों रक्षा कर रही हो ?' तब बन्दरिया ने कहा- 'मैं शरणागत को नहीं देती हूँ। ८. (तब) बहुत से प्रतिकूल बचन कहकर (वहाँ पर) स्थित (वह) सिंह भी दुखी हो गया । और (तभी) जगा हुआ वह वनचर (आदमी) कहता है-- 'हे अम्बे! (बन्दरिया, अब) तुम सो जाओ।' १-१०. उसकी गोद में सिर रखकर वह बन्दरिया भी सो गयी। (तब) सिंह कहता है- 'हे मनुष्य! मुझे यह बन्दरिया दे दो। इसको खाकर मैं चला जाऊँगा। तुम्हारा भी रास्ता (साफ) हो जायेगा।' यह सुनकर उस मनुष्य के द्वारा गोद से वह बन्दरिया (नीचे) फेंक दी गयो । ११. किन्तु वह बन्दरिया (अपनी) चतुरता से एक डाली में लटक गयीं। तब वह कहती है- (हे मनुष्य!) 'तुम्हारे मनुष्य-जन्म ओर मनुष्य की कृतघ्नता के लिए धिक्कार है।' १२. (प्रातःकाल) उस मार्ग से बहुत बड़ा काफला (यात्रिओं का समूह) निकला। उसकी आवाज से सिंह वहाँ से भाग गया और वह वनचर (आदमी) घर को चला गया। 000 पाठ १७, नगर-वर्णन १. (वह नगर) शत्रुओं को भय पैदा करने वाले विशाल किले से घिरा हुआ, सुन्दर, रमणीक मकर-तोरणों, गोपुरों और दरवाजों से युक्त (था)। प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २-३. अत्यन्त हरे-भरे उपवनों से सुशोभित समीप भाग वाले, बरामदों और झरोखों से युक्त, श्रेष्ठ चित्रों से युक्त, अनेक मंजिलों वाले, बर्फ की तरह सफेद, मानों नगरवासियों के यश के खंभों की तरह, भवनों से वह नगर हमेशा अत्यन्त रमणीय (रहता था)। ४-५ वहाँ अन्य-अन्य देशों से आये हुए व्यापार-कला में निपुण व्यापारी लोगों से उस नगर के निवासियों के द्वारा प्रतिदिन किये जाते हुए व्यापार से तथा बहुमूल्य सैंकड़ों किरानों से भरे हुए अन्त-भाग वाले अनेक बाजारों से (वह नगर) सुशोभित था। ६. ऊँचे मकर-तोरणों पर पवन से उड़ती हुई सफेद ध्वजाओं से बढ़ी हुई सुन्दरता वाले देव-मंदिरों से सुशोभित, सुन्दर प्रदेश वाला (वह नगर था)। ७. (वह नगर) श्वेत कमल के समूह से सुशोभित अनेक विशाल सरोवरों से और सीढ़ियों द्वारा सरलता से उतरने योग्य हजारों वापियों से (युक्त था)। ८. (वह नगर) श्रेष्ठ तिराहे, चौराहे, चौक, बगीचे, उद्यान, दीपिका आदि के द्वारा पद-पद पर देवताओं के भी मन को हरण करने वाला था। ६. समस्त नगरों में प्रधान एवं नगर के गुणों से युक्त देवताओं के नगर की आशंका उत्पन्न करने वाला (वह) श्री हस्तिनापुर नामक नगर था। १०. जहाँ पर प्रिय बोलने वाले, धार्मिक क्रियाओं में लीन, चतुरता, त्याग और भोगों से युक्त तथा कलाओं में कुशल लोग रहते थे। ११. जिस नगर में नाना प्रकार के प्रयोजनों से प्रेरित इधर-उधर नित्य घूमते हुए जन-समुदाय से राज-मार्ग कठिनता से चलने वाले हो गये थे। १२. जहाँ पर करोड़ों पताकाओं से पूरा आकाश-मार्ग ढक जाने से गर्मी के दिनों में भी लोग सूर्य की किरणों के ताप को अनुभव नहीं करते थे। प्राकृत काव्य-मंजरी १५७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. जिस नगर में घरों की दीवारों पर रखी हुई मणियों की किरणों से हमेशा अंधकार नष्ट हो जाने पर लोग बीती हुई रात्रि को नहीं जानते थे । १४. जिस नगर की सुन्दरता को देखने के लिए आये हुए देवता कौतूहल से आकर्षित मनवाले होकर निनिमेष (पलकों को न झुकाने वाले) नयनों वाले हो गए। १५. धवल-गृहों के शिखरों पर लगी हुई पवन से प्रेरित पताकाएँ मानों सूर्य के सारथी को अत्यन्त ऊँचे जाने के लिए संकेत करती हैं। १६. जिस नगर में पाद-प्रहार नाट्यभूमि में, दण्ड ध्वज-पताकाओं में और शीर्ष छेदन ज्वार आदि धान्य में ही दिखायी देता है। (अर्थात् किसी व्यक्ति को लात मारने, दण्ड देने, सिर काटने आदि को सजा नहीं दी जाती थी)। 000 पाठ १८: समुद्र-गमन १. इसके बाद किसी एक समय में रात्रि व्यतीत होने पर समुद्रदत्त विचार करता है-- 'जो पिता के द्वारा कमाई हुई लक्ष्मी का उपभोग करता है वह अधम (निम्न) चरित्र वाला है। २. उसके बढ़ने से क्या, बुद्धि से अथवा उसके गुण-समूह से क्या (लाभ) ?, जो कमाने में समर्थ होता हुआ भी पिता के द्वारा अर्जित धन को खाता है। ३. हाथ जोड़े हुए वह (समुद्र दत्त) माता एवं पिता के चरणों में नमनकर निवेदन करता है- 'मैं जल-मार्ग से बहुत-सा धन कमाकर आऊँगा।' ४. वे भी कहते हैं- 'हे पुत्र! हमारे घर में भी विपुल लक्ष्मी है । अतः हे पुत्र! तुम प्रतिदिन अपनी इच्छा से इसको ही भोगो। ५. तुम सैकड़ों उपायों से प्राप्त एक मात्र ही हमारे पुत्र हो। सुखों से पालन किये गये तुम्हारे जैसों के लिए समुद्र-मार्ग किला (कठिन) है।' १५८ प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. उसके बाद उत्साह से आनन्दित शरीर वाले समुद्रदत्त ने कहा- 'सरल अथवा कठिन (कार्य) धैर्यशाली पुरुषों के लिए क्या (बाधा) करता है ?' ७. 'पूर्वज व्यक्तियों के द्वारा कमाये हुए धन आदि को कोन (व्यक्ति) इच्छा से खर्च नहीं करता है ? किन्तु जो स्वयं के द्वारा अजित (धन का) उपभोग करते हैं वे उत्तम पुरुष कोई (विरले) ही होते हैं।' ८. 'अधिक कहने से क्या, जैसे-तैसे (भी हो) मुझे अवश्य जाना है।' उस प्रकार के निश्चय को जानकर उनके (माता-पिता) द्वारा किसी-किसी प्रकार से (उसे) भेज दिया गया। ६. समुद्र की पूजा करके, माता-पिता के चरणों में नमनकर एवं उनके द्वारा आशीष दिया हुआ (वह) सेठ-पुत्र जहाज में चढ़ गया। १०. वणिक्-पुत्रों के साथ, अनेक चतुर मित्रों सहित (वह समुद्रदत्त) अनुकूल पवन के द्वारा (किसी) एक द्वीप में पहुँचा । ११. वहीं पर ही बेचने योग्य माल को मन में इच्छित लाभ द्वारा बेचकर (एवं ) नये (माल) को लेकर उस समुद्रदत्त द्वारा (घर की ओर) जहाज रवाना कर दिया गया। १२. जब तक कुछ रास्ते को (वह जहाज) गया तभी कालिया हवा उठी, बादल हो गये एवं दुष्ट व्यक्ति की तरह (तेज) आवाज से मेघ गरजा । १३. गरीबी से दुखी व्यक्ति के मन की तरह जैसे ही जहाज डोलता है, मल्लाह लोग शीघ्र ही नीचे लंगर डाल देते हैं। १४. आकुल-व्याकुल हृदयवाला (वह समुद्रदत्त) जब तक विशाल पाल को फैलाता है और जब तक बहुत सी आयुलताओं (मृत्यु से बचने के उपायों) को फैलाता है१५, तभी समुद्र के बीच में वह जहाज इच्छित रहस्य की तरह नष्ट हो गया । कोई (वहीं) मर गया तो कोई फलक (लकड़ी के पाटिये) को प्राप्त कर (समुद्र) पार हो गया। प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. वह सेठ-पुत्र भी फलक को प्राप्त कर प्रियतम (मित्र) की तरह (उसका) सहारा ले लेता है और तैरता हुआ किसी-किसी प्रकार से गिरावर्त नामक पर्वत पर पहुँचता है। (और वह सोचता है-) १७. 'पुरुषों के लिए आपत्ति ही कसौटी की तुलना को धारण करती हैं । इस (आपत्ति __ रूपी कसौटी) पर खरा उतरा हुआ जो (व्यक्ति) है, वास्तव में वही स्वर्ण की तरह खरा (शुद्ध) है। ००० पाठ १६ : गुरु-उपदेश १. हे (मानव) ! जीवों को मत मारो, (उन पर) दया करो, सज्जनों को अप मानित मत करो, क्रोधी मत होओ और दुष्टों में मित्रता मत रखो। २. कुल का घमण्ड मत करो, दूर से ही धन के मद को त्याग दो, पाप में मत डूबो ज्ञान के प्रति वास्तविक रूप से सम्मान करो। ३. दूसरे दुखी लोगों पर मत हँसो, हमेंशा ही दीनों पर दया करो, सदा बड़ों की पूजा करो तथा इष्ट देवताओं की वन्दना करो। ४. परिजनों का सम्मान करो, प्रेमीजनों के प्रति उपेक्षा मत करो, मित्रजनों का अनुमोदन करो, यही सज्जनों का स्पष्ट (सरल) मार्ग है।' ५. अनुकम्पा से रहित मत होओ, धूर्त (और) कृपा से रहित मत बनो, किन्तुसंतोष करो, घमण्ड में स्थित मत होओ, (अपितु) दान में तत्पर बनो । ६. किसी की भी निन्दा मत करो, अपने गुणों को ग्रहण करने में संयमी होओ, अपनो प्रशंसा मत करो यदि निर्मल यश चाहते हो तो। ७. दूसरे के कार्य की निन्दा मत करो, अपने कार्य में वज्र के बने हुए की तरह (दृढ़) होओ (तथा) सम्पत्ति में नम्र होओ, यदि अपनी शोभा चाहते हो तो। १६० प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. यदि संसार में अच्छेपन की ध्वजा लेकर (चलना) चाहते हो तो लोगों को कडुआ मत बोलो और (उनके द्वारा) कडुआ बोले जाने पर भी मधुर (वचन) बोलो। ६. मजाक के द्वारा भी मर्म-वेधक और व्यर्थ के वचन मत बोलो। सच कहता हूँ- संसार में इससे (बड़ा कोई) दुर्भाग्य नहीं है। १०. 'हे राजन! शास्त्रों में, विद्वानों के वचनों में एवं धर्म में व्यसन (अभ्यास ) तथा कलाओं में पुनरुक्त (बार-बार कथन) करो तब सज्जनों के बीच में गिनने के योग्य होओगे। ११. लोगों के दोष मात्र को मत ग्रहण करो, '(उनके) विरले गुणों को भी प्रकाशित करो। (क्योंकि) लोक में घोंघों को प्रचुरता वाला समुद्र भी रत्नों की खान (रत्नाकर) कहा जाता है। १२. जब तक (साहसी ) पुरुष (कार्यों की तरफ अपना) हृदय (ध्यान) नहीं देते हैं तभी तक कार्य पूरे नहीं होते हैं। किन्तु (उनके द्वारा कार्यों के प्रति) हृदय लगाचे से ही बड़े कार्य भी पूर्ण कर लिये जाते हैं । १३. बर्फ की तरह शीतल एवं चन्द्रमा की तरह निर्मल सज्जन व्यक्ति पद-पद पर विचलित किये जाने पर भी उसके कारण से कोमल मृणाल के समान (अपने) स्वेहतन्तु को नहीं उखाड़ता है। १४. निर्मल (चरित्र वाले) सज्जन पुरुषों के हृदय में थोड़ा भी अपमान क्षोभ उत्पन्न करता है । देखो, हवा से हलका धूलि का कण भी आँख को दुखाता है। 000 प्राकृत काध्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ २० ; शिक्षा-नोति* १. जैसे एक दीपक से सैकड़ों दीपक जलते हैं और वह दीपक ( भी ) जलता है ( वैसे ही ) दीपक के समान आचार्य (स्वयं ज्ञान से ) प्रकाशित होते हैं तथा दूसरे को प्रकाशित करते हैं । २. जिस की गुरु में भक्ति नहीं ( है ) तथा ( जिसका गुरु के प्रति ) अतिशय आदर नहीं ( है, और ) गौरव - भाव नहीं ( है ) तथा ( जिसको गुरु से ) भय नहीं ( है ), और प्रेम नहीं है, उसका गुरु के सान्निध्य में रहने से क्या लाभ ? ३. अविनीत के अनर्थ ( होता है) और विनीत के समृद्धि ( होती है ), जिसके द्वारा यह दोनों प्रकार से जाना हुआ ( है ), वह विनय को ग्रहण करता है । ४. ५. अच्छा तो जिन ( इन ) पाँच अहंकार से, क्रोध से, प्रमाद से, आलस्य के साथ सुख नहीं ( रहता है), निद्रा के साथ विद्या ( संभव ) नहीं (होती है), आसक्ति के साथ वैराग्य ( घटित ) नहीं ( होता है, तथा ) जीवहिंसा के साथ दयालुता नहीं ( ठहरती है) । ―― कारणों से शिक्षा प्राप्त नहीं की जाती है। रोग से तथा आलस्य से । ६. हे मनुष्यो ! तुम (सब) निरन्तर जागो ( कर्तव्यों के प्रति सजग रहो ), जागते हुए (व्यक्ति) की प्रतिभा बढ़ती है, जो (व्यक्ति) सोता है ( कर्त्तव्य के प्रति उदासीन है) वह सुखी नहीं होता है, जो सदा जागता है, वह सुखी होता है । ७. थोड़ा-सा ऋण, थोड़ा-सा घाव, थोड़ी-सी अग्नि और थोड़ी-सी कषाय ( दुष्प्रवृत्ति भी ) तुम्हारे द्वारा विश्वास किये जाने योग्य नहीं है, क्योंकि थोड़ासा भी वह बहुत ही होता है । यह अनुवाद 'समरणसुत्तं - चयनिका ' डॉ० कमलचन्द सोगाणी की पुस्तक ( पाण्डुलिपि) से लिया गया है । यह पुस्तक शीघ्र ही प्रकाश्य है । १६२ Jain Educationa International - For Personal and Private Use Only प्राकृत काव्य - मंजरी Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. क्रोध प्रेम को नष्ट करता है, अहंकार विनय का नाशक (होता है), कपट मित्रों को दूर करता है, लोभ सब (गुणों का) विनाशक (होता है) । ६. (व्यक्ति) क्षमा से क्रोध को नष्ट करे, विनय से ज्ञान को जोते, सरलता से कपट को तथा संतोष से लोभ को जीते। १०. ज्ञानपूर्वक अथवा अज्ञानपूर्वक अनुचित कार्य को करने वाला (व्यक्ति) अपने को तुरन्त रोके (और फिर) वह उसको दुबारा न करे । ११. जो (व्यक्ति) कुटिल (बात) नहीं सोचता है, कुटिल (कार्य) नहीं करता है, कुटिल (वचन) नहीं बोलता है तथा (जो) अपने दोष को नहीं छिपाता है, उसके आर्जव धर्म होता है । (जीवन में सरलता होती है)। १२. सत्य (बोलने) में तप होता है, सत्य (बोलने) में संयम होता है तथा शेष (अन्य) सद्गुण भी (पालित होते हैं)। १३ क्रियाहीन ज्ञान निकम्मा (होता है तथा) अज्ञान से (की हुई) क्रिया भी निकम्मी (होती है । प्रसिद्ध है कि) देखता हुआ (भी) लंगड़ा (व्यक्ति) और दौड़ता हुआ (भी) अन्धा व्यक्ति (आपस के बिना सहयोग के आग में) भस्म हुआ। १४ (आचार्य ऐसा) कहते हैं- (कि ज्ञान और क्रिया का) संयोग सिद्ध होने पर फल (प्राप्त होता है) क्योंकि (ज्ञान अथवा क्रियारूपी) एक पहिए से (कर्त्तव्य रूपी) रथ नहीं चलता है। (समझो) अन्धा और लंगड़ा वे दोनों जंगल में इकट्ठ मिलकर जुड़े हुए (आग से बचकर) नगर में गये । १५. चरित्रहीन (व्यक्ति) के द्वारा अति अधिक रूप से भी पढ़ा हुआ श्रुत क्या (प्रयोजन) सिद्ध करेगा? जैसे अन्धे (व्यक्ति) के द्वारा जलाए गए भी लाखों, करोड़ों दीपक (उसके लिए क्या प्रयोजन सिद्ध करेंगे ?) 000 प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ २१ : कुशल पत्र १. वसन्तपुर नगर में न्यायप्रिय लोगों में मौरव का स्थानरूप, अच्छे व्यवहार वाला नयसार नामक नगर-सेठ रहता था। २-३. एक बार 'मेरे कुटुम्ब के पद के लिए उपयुक्त (पुत्र) कौन होगा।' इस चिन्ता से वह सेठ (अपने) तीनों पुत्रों की परीक्षा के लिए अपने स्वजन-बन्धुओं को और प्रमुख नागरिक जनों को (अपने) घर में निमन्त्रण देकर (तथा) विधिपूर्वक भोजन कराकर उनके समक्ष कहता है ४. 'मेरे इन तीनों पुत्रों में कुटुम्ब-पद के लिए योग्य कौन है?' (उसके द्वारा) ऐसा कहने पर उन्होंने कहा- 'तुम ही विशेष रूप से जानते हो- कौन योग्य है ।' ५. 'यदि ऐसा है तो आपके समक्ष ही मैं (इनकी) परीक्षा करता हूँ।' ऐसा कहकर नागरिकों के समक्ष (उसने) उन तीनों पुत्रों को बुलवाया। ६. प्रत्येक प्रत्येक (पुत्र) को सोने की लाख मुद्राएँ देकर व्यापार (करने) के लिए इनको उनके ही समक्ष विदेशों में भेज दिया। ७-८. तब उन पुत्रों में से एक पुत्र के द्वारा विचार किया गया- 'हमारे यह पिता धर्मप्रिय, अच्छा आचरण करने वाले और प्रायः दूरदर्शी हैं । प्राण-त्याग होने पर भी हमारे ऊपर कभी भी विपरीत नहीं सोचते हैं। अतः निश्चित ही यह (व्यापार को भेजना) किसी भी कारण (उद्देश्य) से होना चाहिए।' ६.. इस प्रकार सोचकर उस (पुत्र) के द्वारा अपनी बुद्धि से किसी प्रकार से वैसा व्यापार किया गया कि जिससे वर्ष के अन्त में वह (मूल पूजी) बढ़ा कर एक करोड़ कर ली गयी। १०. दूसरे पुत्र के द्वारा यह सोचा गया कि 'मेरे पिता का पर्याप्त धन है । इसलिए कष्टों के जाल में (व्यापार में) अपने को व्यर्थ ही क्यों डालू?' १६४ प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. यदि सब कुछ ही मौज (खर्च) करलू तो वहाँ जाकर कैसे मुँह दिखाऊँगा ? इसलिए मूलधन को सुरक्षित रखकर शेष ( मुनाफा आदि) को खा डालता हूँ । अधिक क्या सोचना ? ' १२. तीसरे अयोग्य पुत्र के द्वारा अपने मन में विचार किया गया कि - 'करोड़ों का स्वामी मेरा पिता बुढ़ापे के दोषों से युक्त हो गया है । जैसे कि - १३. बुढ़ापे में मनुष्यों के प्रायः तृष्णा, लज्जा का नाश, भय की बहुलता. विपरीत बोलना आदि दोष उत्पन्न हो जाते हैं । १४. अन्यथा वैभव ( सम्पन्न ) होते हुए ( हमारे पिता ) हम लोगों को विदेश में क्यों भेजते ?' ऐसा सोचकर वर्ष के अन्त तक ( उसने ) सब धन खा डाला (खर्च कर दिया ) । १५-१६. अपने निश्चित समय पर सभी ( स्वजन) और वे वणिक् - पुत्र एकत्र हुए । फिर से उसी प्रकार सेठ के द्वारा भोजन आदि को कराकर स्वजन आदि के सामने प्रथम पुत्र को कुटुम्ब - पद पर दूसरे (पुत्र) को तीसरे (पुत्र) को खेती आदि कार्यों में लगा दिया गया । भाण्डार - पद पर और पाठ २२ : साहसी प्रगडदत्त १. किसी एक दिन घोड़े पर चढ़ा हुआ वह राजपुत्र ( अगडदत्त ) बाहर के मार्ग से जा रहा था। तभी नगर में कोलाहल हो गया । २. समुद्र की तरह क्या चला ? अथवा क्या भयंकर अग्नि जल उठी ? क्या शत्रु की सेना आ गयी ? अथवा क्या बिजली का दण्ड (वज्रपात ) गिर पड़ा है ? 000 ३. इसी बीच में अचानक आश्चर्य मन वाले कुमार के द्वारा सांकल सहित खम्भे को उखाड़कर आता हुआ पागल मद हाथी देखा गया । प्राकृत काव्य - मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only १६५ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. महावत से रहित, सूड के सामने आने वालों को मारता हुआ, मुख के सामने चलते हुए काल की तरह, अकारण क्रोधी, ५. पैर में बंधी हुई रस्सी को तोड़ता हुआ, भवनों, बाजारों और मंदिरों को चूर्ण करता हुआ प्रचंड वह हाथी क्षणमात्र में कुमार के सामने पहुँच गया। ६. उस प्रकार के रूप को धारण करने वाले उस हाथी और कुमार को देखकर नागरिक लोगों के द्वारा गंभीर स्वर से कहा गया- 'हाथी के रास्ते से हट जाओ। हट जाओ।' ७. सुन्दर गति से गमन करने वाले अपने घोड़े को छोड़कर कुमार के द्वारा इन्द्र के हाथी ऐरावत के समान वह हाथी . ललकारा गया । ८. कुमार के शब्द को सुनकर मद-जल के प्रवाह को झराने वाला, क्रुद्ध यमराज की तरह वह हाथी कुमार की तरफ शीघ्र दौड़ा। ६. किन्तु प्रसन्नचित्त कुमार के द्वारा दुपट्टे को लपेटकर (उसे) दौड़ते हुए हाथी की सूड़ के सामने फेंका गया। १०. क्रोध से धम-घमाता हुआ (वह हाथी) दाँत से (कुमार पर) प्रहार करता है और वह कुमार उस हाथी के पिछले भाग पर दृढ़ मुष्टि के प्रहार से चोट करता है। ११, तब (वह हाथी) पलटता है, दौड़ता है, चलता है, लड़खड़ाता है तथा झुक जाता है। क्रोध से धम-धमाता हुआ वह चक्र-भ्रमण की तरह घूमता है। १२. अति बहुत समय तक उस श्रेष्ठ हाथी को (कई चक्कर) खिलवाकर अपने वश में करके (वह कुमार) तभी उसके कन्धे पर चढ़ गया। १३. और नगर के सभी लोगों के लिए मनोहर उस गज-क्रीडा को अन्तःपुर(रनिवास) के साथ राजा ने देखा। प्राकृत काव्य-मंजरो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४-१५. वह राजा हाथी के कन्धे पर स्थित इन्द्र की तरह उस कुमार को देखकर अपने परिजनों को पूछता है- 'गुणों का खजाना, तेज से सूर्य एवं सौम्यता से चन्द्रमा की तरह, सभी कलाओं की प्राप्ति में कुशल, बुद्धिमान, वीर एवं रूपवान यह बालक (राजकुमार) कौन है ?' (उसे मेरे पास लाओ) । ६१. मयूर को कौन चित्रित करता है और राजहंसों की गति को कौन बनाता है ? कौन कमलों की सुगन्ध को तथा अच्छे कुल में उत्पन्न व्यक्ति की विनय को (कौन बनाता है)? १७. गुच्छों के भार से धान्य के पौधे, पानी से मेघ, फलों के भार से वृक्षों के शिखर और विनय से सज्जन पुरुष झुक (नम्र) जाते हैं, किन्तु किसी के भय से नहीं झुकते हैं। 000 पाठ २३ : अहिंसा-क्षमा १. अहिंसा-संयम-तपरूप धर्म सर्वोच्च कल्याण (होता है) । किसका मन सदा धर्म में (लीन है? ), उस (ब्यक्ति) को देव भी नमस्कार करते हैं । २, जैसे जगत् में मेरुपर्वत से ऊँचा (कुछ) नहीं (हैं, ओर) आकाश से विस्तृत (भी कुछ) नहीं है, वैसे ही अहिंसा के समान (जगत् में श्रेष्ठ एवं व्यापक) धर्म नहीं है, (यह तुम) जानो। ३. सब ही जीव जीने की इच्छा करते हैं मरने की नहीं, इसलिए संयत व्यक्ति उस पीड़ादायक प्राणवध का परित्याग करते हैं। ४. जैसे तुम्हारे (अपने) लिए दुःख प्रिय नहीं है, इसी प्रकार (दूसरे) सब जीवों के लिए जानकर उचित रूप से सब (जीवों) से स्नेह करो (तथा) अपने से तुलना के द्वारा (उनके प्रति) सहानुभूति (रखो)। प्राकृत काव्य-मंजरी १६७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. ६. अहिंसा ही सभी आश्रमों का हृदय और सभी शास्त्रों का उत्पत्ति-स्थान (आधार), सभी व्रतों का सार (तथा) सभी गुणों का समूह ( है ) । ७. ८. जीव का घात खुद का घात (होता है), जीव के लिए दया खुद के लिए होती हैं उस कारण से आत्म-स्वरूप को चाहने वालों (महापुरुषों) के द्वारा सब जीवों की हिंसा छोड़ी हुई ( है ) । E. जो महापापी (व्यक्ति) क्षण मात्र के सुख के लिए जीवों को मारते हैं, वे राख ( प्राप्ति) के लिए हरिचन्दन के वन समूह को जलाते हैं । भूसे के समान ( सारहीन) उन करोड़ों पदों (शिक्षा- वाक्यों) को पढ़ लेने से क्या लाभ ( है ), जो इतना ( भी ) नहीं जाना ( कि) दूसरे के लिए पीड़ा नही करनी ( पहुँचानी) चाहिए । मरण के भय से डरे हुए जीवों की जो निरन्तर रक्षा की जाती है, उसे सभी दानों में सिरमौर अभयदान जानो । १०. जो दयायुक्त मनुष्य हमेशा जीवों के लिए अभय-दान देता है उस (व्यक्ति) के लिए इस जीवलोक में कहीं से भी भय उत्पन्न नहीं होता है । ११. क्षमा ( गुण) से रहित (अन्य ) सभी गुण सौभाग्य को प्राप्त नहीं होते हैं । जैसे - तारक समुदाय से युक्त ( भी ) रात्रि कलायुक्त चन्द्रमा के बिना ( शोभा को प्राप्त नहीं होती है) । १२. (मैं) सब जीवों को क्षमा करता हूँ, सब जीव मुझको क्षमा करें, मेरी सब प्राणियों से मित्रता [ है ], किसी से मेरा वैर नहीं है । * गाथा नं ० १ से ५ एवं १२ का अनुवाद 'समरणसुत्तं - चयनिका ' गाणी की पाण्डुलिपि से लिया गया है । १६८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only 000 डॉ० कमलचन्द प्राकृत काव्य - मंजरी Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ २४ : अहिंसक बाहुबली १. तक्षशिला में हमेशा से राजा भरत का विरोधी महान् बाहुबली (था) । वह उसकी आज्ञा के अनुसार सदा (उसे) प्रणाम नहीं करता था। २-३. इसके बाद उसके ऊपर क्रोधी चक्रधर भरत) सम्पूर्ण साधनों से युक्त (तथा) समस्त सेना के साथ शीघ्र गति वाला (वह) नगर से निकला। 'जय' शब्द के उद्घोष की कलकल की आवाज (से युक्त) वह भरत तक्षशिला पुर को पहुँचा । (और) उसी क्षण युद्ध के लिए तैयार हो गया। ४. महान् बाहुबली भी आये हुए भरत राजा को सुनकर सुभटों के बड़े समूह के साथ तक्षशिला से निकला। ५. बल के घमण्ड से गर्वित (तथा) बजते हुए रणवाद्यों वाली दोनों सेनाओं का, नाचते हुए धड़ों से दर्शनीय भीषण मरण प्रारम्भ हुआ। ६. और (तब) बाहुबली के द्वारा भरत (को) कहा गया- 'लोगों के वध से क्या लाभ ? युद्धभूमि के बीच में (हम) दोनों का दृष्टि एवं मुष्टि द्वारा ही युद्ध हो जाय।' ७. तब इस प्रकार कहने मात्र पर (वे) दृष्टि-युद्ध लड़ने लगे। और चक्षु का प्रसार पहले भग्न करने वाला (पलक झपकाने वाला) भरत (बाहुबली के द्वारा) जीत लिया गया। ८-६. फिर अत्यन्त दर्प को धारण करने वाले, एक दूसरे की भुजाओं में गुथे हुए, चंचल पैरों की तीव्र गति से और हथेलियों को चतुराई से लड़ाने वाले, आधी (चमकी हुई) बिजली की जोत के बन्धन की तरह मारने के लिए उठे हुए हाथों के विपरीत दांव-पेंच को बनाने वाले, न टूटने (झुकने) वाले (वे दोनों) महापुरुष आमने-सामने होकर [मुष्टि] युद्ध करते हैं । १०. इस प्रकार (दूसरे) युद्ध में भी भुजाओं के बली (बाहुबली) द्वारा राजा भरत प्राकृत काव्य-मंजरी १६६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीत लिये गये । तब अत्यन्त क्रोधी (भरत) उस (बाहुबली) के वध के लिए ( उसके ऊपर) चक्र - रत्न को छोड़ता है । ११. जाकर ( बाहुबली को मारने में असमर्थ सुदर्शन ( चक्र भरत के पास ) वापस लौट गया । उसी क्षण बाहुबली को वैराग्य उत्पन्न हो गया । १२. (बाहुबली) कहता है- 'आश्चर्य है, ( दुष्प्रवृत्तियों) के वशीभूत पुरुष बिना अाज ( अनिष्ट) करते हैं । १३. ( जैसे व्यक्ति) राख के लिए चन्दन और डोरे के लिए मोती को नष्ट करते हैं, वैसे ही मानव-भोगों में मूढ मनुष्य (जीवन की ) श्रेष्ठ उपलब्धियों को (तुच्छ वस्तुओं के लिए) नाश करते हैं । ३. जो विषयों में लोभी (और) कषायों विरोध (वर) के भी एक दूसरे का पाठ २५ : कथा - वर्णन १. वे चिन्तनशील सज्जनरूपी सूर्य सदा उत्कर्ष को प्राप्त करते हैं, जिनके संसर्ग में अच्छे अक्षर-समूह वाले ( एवं ) दोष से रहित कथा - काव्य कमल-समूह की तरह विकसित होते हैं । दूसरा अर्थ : आकाश में विचरण करने वाले वे सूर्य सदा विजयी होते हैं, जिनके संसर्ग में अच्छे पत्तों के समूह वाले, रात्रि को न देखने वाले कमलवन विकसित होते हैं । २. वह विजयी हो, जिसके द्वारा सज्जनों की तरह दुर्जन भी इस लोक में बनाये गये हैं; (क्योंकि) अंधकार के बिना चन्द्रमा की किरणें भी गुणोत्कर्ष को नहीं पाती हैं। 000 १७० सज्जन की संगति से भी निश्चय ही दुर्जन की कालिमा (दुष्टता) दूर नहीं होती है । (क्योंकि) चन्द्रमण्डल के बीच में रहने वाला मृग भी काला ही ( है ) | Jain Educationa International For Personal and Private Use Only प्राकृत काव्य - मंजरी Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, उस (भूषण भट्ट) के तुच्छ बुद्धिवाले भी पुत्र कोऊहल के द्वारा यह लीलावई नामक (काव्य) रचा गया है । (उस) कथा-रत्न को सुनो - ५. चन्द्ररूपी सिंह के किरणरूपी अस्त्र (पंजे) से विदारित अंधकार रूपी हाथी के कुम्भस्थल पर फैले हुए नक्षत्ररूपो मुक्ताफल के प्रकाश वाली शरद ऋतु की रात्रि में (उस कथारत्न को सुनो-) ६. इस शरद से चन्द्रमा, चन्द्रमा से भी रात्रि, रात्रि से कुमुदवन, कुमुदवन से भी नदी-तट और नदी-तट से हंस-समूह शोभित होता है । नये कमलनाल के कषैलेपन से विशोधित कंठ से निकले हुए मनोहर (स्वरवाले एवं) शरदरूपी लक्ष्मी के चरणों के नूपरों की आवाज की तरह हंसों का कलरव सुनो। ८, शीतलता से युक्त जल की तरंग के सम्पर्क से ठण्डा किया गया, (और) अर्द्ध विकसित मालती (पुष्प) की सुन्दर कली की सुगन्ध से उत्कृष्ट पवन बह रहा ९. दश दिशारूपी बन्धुओं के मुख पर तिलक-पंक्ति की तरह सरोवर के जल में स्वच्छ तरंगों में हिलते हुए वृक्षों वाली यह वनराजि भी शोभित हो रही है । १०, पुण्य (पवित्र आचरण) के शासन की तरह, सुख-समूहों की जन्म-उत्पत्ति की तरह, आचारों का आदर्श (तथा) सदा गुणों के लिए अच्छे क्षेत्र की तरह (वह देश था)। ११. इस प्रकार के उस (प्रतिष्ठान) नगर में समस्त गुणों से व्याप्त शरीरवाला (एवं) संसार में अच्छी तरह विस्तृत यशवाला सातवाहन राजा (था)। १२. जो वह (राजा) शरीर से रहित होते हुए भी समस्त अंगों व अवयवों से सुन्दर, सुभग (था) अर्थात् युद्धरहित होते हुए भी अमात्य आदि सभी राज्यागों से युक्त प्राकृत काव्य-मंजरी १७१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौभाग्यशाली था ) । कुरूप (दुर्लभ दर्शन वाला) होते हुए भी ( वह) लोगों नयनों के लिए आनन्द उत्पन्न करने वाला था । १३ कुपति ( पृथ्वीपति) होते हुए भी ( वह राजा ) प्रियाओं दूसरों के सामने झुका हुआ ( नीति युक्त होता हुआ ) भी (परलोक से भयभीत ) भी वीर तथा शत्रुओं से डरा हुआ दान आदि में वीर ) था । १४. सूर्य (वीर) होते हुए भी सात अश्वों वाला ( भययुक्त) नहीं ( था ) । चन्द्रमा (कीर्ति युक्त) होते हुए भी नित्य कलंक से रहित ( था ) । सर्प ( भोगी) होते हुए भी दो जीभवाला (दुर्जन) नहीं ( था ) । ऊँचा ( स्वाभिमानी ) होते हुए भी समीप से (सेवकों को) फल देने वाला था । १५. जगत् में अपने तेज से संसार को आक्रान्त करने वाले एवं सुशोभित मंडलवाले चन्द्रमा की तरह जिस राजा की शत्रु लोगों के द्वारा पीठ ( कभी ) नहीं देखी गयी । लिए प्रिय था तथा ( वह ) साहसी था । रस से युक्त (धर्मं, १६. जिस राजा के बिना अच्छे कवियों की चिरकाल से सोची गयी काव्य- कल्पनाएँ दुखी -जनों के मनोरथों की तरह हृदय में ही स्थिर रहती हैं ( अर्थात् पूरी नहीं होती हैं) । पाठ २६ : जीवन-मूल्य १. वह मित्र बनाए जाने योग्य होता है, जो निश्चय ही ( किसी भी ) स्थान पर ( तथा किसी भी ) समय में विपत्ति पड़ने पर दीवाल पर चित्रित पुतले की तरह विमुख नहीं रहता है। १७२ * यह अनुवाद ' वज्जालग्गं में जीवन-मूल्य भाग १' डॉ० कमलचन्द सोगाणी की पुस्तक ( पाण्डुलिपि) से लिया गया है। उनकी यह पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य है । Jain Educationa International 000 For Personal and Private Use Only प्राकृत काव्य-मंजरी Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. स्नेह के लिए (इस जगत् में कुछ भी) अलंघनीय (कठिन) नहीं हैं; समुद्र पार किया जाता है, प्रज्वलित अग्नि में (भी) प्रवेश किया जाता है (तथा मरण) (भी) दिया जाता है (स्वीकार किया जाता है)। ३. तीनों लोकों में केवल अकेले चन्द्र-प्रकाश के द्वारा स्नेह व्यक्त किया जाता है (क्योंकि) जो (वह प्रकाश) क्षीण चन्द्रमा में क्षीण होता है (और) बढ़ते हुए (चन्द्रमा) में बढ़ता है। ४. किसी तरह किसी भी (स्नेही) के लिए किसी भी (स्नेही) के द्वारा देख लिये जाने से परितोष (आनन्द) होता है। इसी प्रकार सूर्य से कमल-समूहों का (स्नेह के अतिरिक्त और) क्या प्रयोजन, जिससे (वे) खिलते हैं ? ५. कुल से शील (चरित्र) श्रेष्ठतर है; तथा रोग से निर्धनता (अधिक) अच्छी है। राज्य से विद्या श्रेस्ठतर है; तथा अच्छे (श्रेष्ठ) तप से क्षमा श्रेष्ठतर है। ६. (उच्च) कुल से शील (चरित्र) उत्तम होता है, विनष्टशील के होने पर (उच्च) कुल के द्वारा क्या लाभ होता है ? कमल कीचड़ में पैदा होते हैं, किन्तु मलिन नहीं होते हैं। ७. जो (योग्य व्यक्ति की) इच्छा का अनुसरण करता है, (उसके) मर्म (गुप्त बात) , का रक्षण करता है, (उसके) गुणों को प्रकाशित करता है, वह न केवल मनुष्यों का, (किन्तु) देवताओं का भी प्रिय होता है। ८. लवण के समान रस नहीं है, ज्ञान के समान बन्धु नहीं है, धर्म के समान निधि नहीं है. और क्रोध के समान वैरी नहीं है । ९.. कार्य तेजी से करो, प्रारम्भ किये गए कार्य को किसी तरह भी शिथिल मत करो (क्योंकि) प्रारम्भ किये गए (तथा) फिर शिथिल किये गए कार्य सिद्ध (पूरे) नहीं होते हैं। १०. खल-चरण में झुककर जो त्रिभुवन भी उपार्जित किया जाता है, उससे क्या प्राकृत काव्य-मंजरी १७३ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाम ? सम्मान से जो तृण भी उपार्जित किया जाता हैं, वह सुख उत्पन्न करता है। ११. यदि हंस मसाण (मरघट) के मध्य में रहता है (और) कौआ कमल-समूह में रहता है, तो भी निश्चित ही हंस, हंस है और बेचारा कौआ, कौआ ही (है)। १२. जहाँ जय-लक्ष्मी रहती है, उस पुरुष की पूर्ण आदर से रक्षा करो। (क्योंकि) चन्द्र-बिंब के अस्त होने पर तारों द्वारा प्रकाश नहीं किया जाता है। १३. जिस तरह राजा के आँगन में स्थित हाथी की महिमा (होती है, किन्तु) विन्ध्य __पर्वत के शिखर पर (स्थित हाथी की महिमा) नहीं (होती है), उसी तरह (उचित) स्थानों पर गुण खिलते हैं। १४. जो पुरुष गुणहीन हैं, वे मूढ़ (ही) कुल के कारण गर्व धारण करते हैं । (ठीक ही है) बांस से उत्पन्न धनुष भी रस्सी (गुण) से रहित होने पर टंकार वाला नहीं (होता है)। १५. बहुत बड़े वृक्षों के बीच में सर्प-दोष के कारण चन्दन की शाखा काट दी जाती है, जैसे अपराध रहित भद्र पुरुष दुष्ट-संग के कारण (कष्ट दिया जाता है)। 000 पाठ २७ : गाथा-माधुरी १. वे सज्जन पुरुष विरले (दुर्लभ) हैं, जिनका स्नेह मुख की प्रसन्नता को नष्ट न करता हुआ (एवं) ऋण की तरह दिनों-दिन बढ़ता हुआ पुत्रों में संक्रान्त (प्राप्त) होता है। २. स्नेह प्रदान के द्वारा पोषण किया जाता हुआ (भी) दुष्ट व्यक्ति जहाँ पर ही रहता है उस ही (आधार) स्थान को शीघ्रता से मलिन कर देता है, जैसे तेल १७४ प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से जलाया जाता हुआ (भी) दीपक अपने आधार (स्थान) को काला कर देता है। . ३. गरमी की धूप से तपे हुए राहगीर के लिए अपनी छाया के समान, कंजूस आदमी की धन-समृद्धि होती हुई भी निष्फल ही (न होने के बराबर) होती ४. दुष्ट व्यक्ति में की जाती हुई ही मैत्री पानी में (खींची जाती हुई) लकीर की तरह नष्ट हो जाती है। किन्तु सज्जन (व्यक्ति) में की हुई वह ( मैत्री) पत्थर की लकीर की तरह अमिट (हो जाती है) । ५. सज्जन (प्रथम तो) क्रोधित ही नही होता है, यदि क्रोधित होता है (तो) बुरा नहीं सोचता है। यदि (बुरा) सोचता है (तो बुरा) कहता नहीं हैं (और) यदि कहता है (तो उसके लिए) लज्जित होता है । धन बह, जो हाथ में (हो), मित्र वह जो आपत्ति में (भी) अन्तर न लाये, वह सौन्दर्य (है). जहाँ गुण (हों और) वह विवेकपूर्वक ज्ञान है, जहाँ चरित्र हो। ७. अन्तिम अवस्थाओं (संकट की घड़ियों) में भी स्वाभिमानी (व्यक्ति) का हृदय ऊँचा ही रहता है। अस्त होने के समय में भी सूरज की किरणें ऊपर की ओर ही चमकती हैं । ८. हे माता! पक्षी भी परेशान हुए बिना अपना पेट भर लेते हैं। किन्तु आपत्तिग्रस्त (लोगों) का उद्धार करने वाले सज्जन व्यक्ति कोई-कोई ही होते हैं। ६. अधिक क्रोध से कलुषित भी सज्जन के मुखों से (बातों से) अप्रिय (वचन) कहाँ से (निकलेंगे)? राहु के मुख में भी चन्द्रमा की किरणें अमृत को छोड़ती हैं। १०. वैभव से हीन सज्जन (व्यक्ति) अपमानित हुआ भी उस प्रकार से खिन्न नहीं प्राकृत काव्य-मंजरी १७५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है, जिस प्रकार कि दूसरे से सम्मानित किया जाता हुआ भी (सम्मान का) बदला चुकाने के लिए असमर्थ होने से (दुःखी होता है)। ११. सज्जन पुरुष आपत्ति में घबराहट-रहित, सम्पत्ति में गर्व-रहित, भय में धैर्यशाली (और) अनुकूल (तथा) प्रतिकूल (परिस्थितियों) में एक समान स्वभाव वाले होते हैं। १२. ईख और कुलीन व्यक्ति पीड़ित किये जाने पर (दबाने पर) भी रस (आनन्द) .. उत्पन्न करते हैं । (वे) जिह्वा में प्रिय (स्वाद, वचन) करते हैं (तथा) हृदय · में शान्ति (शीतलता) करने के लिए होते हैं। १३ शरद ऋतु में बड़े तालाबों के जल क्रोधित सज्जनों के हृदयों के समान बाहर से गरम और अन्दर से शीतल हो गये हैं। १४. (गर्मी से) संतप्त भैसा सांप को पहाड़ी झरना है, ऐसा (समझकर) जीभ से चांट रहा है (और) सांप भैंसे की लार को काले पत्थर का झरना है, ऐसा (समझता हुआ) पी रहा है। १५. हे पथिक ! देखो दोपहर में छाया भी धूप के भय से शरीर के नीचे छिपी हुई (है और) तनिक भी (बाहर) नहीं निकल रही है, तो (तुम भी) विश्राम क्यों नहीं कर लेते हो। १६. उतना ही प्रेम दो (करो), जितना मात्र निभाना संभव हो । सभी व्यक्ति प्रेम या कृपा (प्रसाद) के कम होने से (उत्पन्न) दुःख को सहन करने में समर्थ नहीं ००० प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ २८ : बुद्धिमान रोहत १. वहाँ (उज्जैनी) में अपने रूप से इन्द्र को जीतने वाला, घमण्डी राजाओं का दलन करने बाला, युद्ध में शत्रुओं को जीतने वाला जितशत्रु नामक राजा (है)। २. और उस श्रेष्ठ नगरी के समीप में फैला हुआ, धन-धान्य से युक्त शिलाग्राम नामक (एक) गाँव है। ३. वहाँ नाटकों में कुशल, बुद्धिमान भरत नामक नट है। उसके अपनी बुद्धि से प्राप्त शोभा वाला रोहत नामक पुत्र है। ४. तब भरत सोचता है- देखो, बालकों को कैसी बातचीत (होती है)? और उसके बाद एक दिन पुत्र के साथ भरत उस उज्जैनी को गया। ५-६. वहाँ क्रय-विक्रय आदि करके अपने गाँव की तरफ आता हुआ वह (भरत) जब क्षिप्रा नदी के पास में पहुंचा तब उसने कहा- 'हे रोहत! बाजार के बीच में मेरी (एक सामान की) पुड़िया भूल गयी है । तुम ठहरो, जब तक मैं (उसे) लेकर वापिस लौटता हूँ। ७. ऐसा कहकर भरत के चले जाने पर तब बालकपने से उस रोहत के द्वारा क्षिप्रा नदी की रेत पर उज्जैनी (चित्र में) बना दी गयी। ८. इसी समय में सेना की धूलि के भय से आगे होकर घोड़े पर चढ़ा हुआ राजा जैसे ही वहाँ (चित्र के पास) आता है, तब रोहत के द्वारा वह रोका गया। १. 'हे घुड़सवार! उज्जनी के बाजार-मार्ग के बीच से जितशत्रु राजा के राजकुल को लांघकर आगे कैसे जा रहे हो ?' १०. तब आश्चर्यचकित राजा उससे पूछता है- 'हे भद्र! कहाँ है (यहाँ) उज्जैनो ?' तब रोहत रेत पर बनी हुई (उज्जैनी) उसे दिखाता है - प्राकृत काव्य-मंजरी १७७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११-१२. यहाँ बाजार-मार्ग, यहाँ राजकुल, यहाँ हस्तिशाला, यहाँ महल, यहाँ अश्व शाला (है)। तब उसे देखकर उसके बुद्धि-वैभव से प्रसन्न हृदयवाला राजा मन में सोचता है- 'यह (रोहत) मेरे मन्त्रिमण्डल के शिरोमरिण पद के (महा मन्त्री) योग्य है । ऐसा - १३. सोचकर उसको इस प्रकार पूछता है- 'हे पुत्र! कहाँ के रहने वाले, किसके पुत्र हो ?' (वह) कहता है- 'मैं शिलाग्राम में भरत का पुत्र हूं।' १४. उसकी श्रेष्ठ बुद्धि के वैभव को जानते हुए राजा नगर को गया। वह (रोहत) भी (वापिस) आये हुए पिता के द्वारा अपने गाँव में ले जाया गया । १५. उसकी बुद्धि की श्रेष्ठता द्वारा आनन्द से भरा हुआ राजा एक बार क्षुद्र ___ (बनावटी) आदेश के द्वारा (रोहत के पास, एक) मुर्गे को भेजकर कहता है १६, "कि इस अकेले (मुर्गे) का लड़वाओ ।' तब रोहत ने कहा- (उपाय बताया) कि उस मुर्गे को दर्पण में (उसके) प्रतिबिम्ब से लड़वाओ। १७. राजा आदेश देता है कि- 'रेत की रस्सी बंटकर भेजो।' रोहत कहता है___'नमूने के लिए पुरानी (रेत की) रस्सी को भेज दो।' १८. इसके बाद राजा लगभग मरे हुए हाथी को भेजता है और कहलवाता है कि " (इसकी) मृत्यु के समाचार के अतिरिक्त प्रतिदिन ही (मुझे) हाथो का समाचार कहा जाना चाहिए।' १६. वे (गाँव वाले) भी प्रतिदिन ही राजा को हाथी का वृतान्त कहते हैं । किन्तु एक दिन हाथी के मर जाने पर भरतपुत्र (रोहत) कहलवाता है २०. 'हे राजन! हाथी न चरता है, न चलता है, न साँस लेता है और न निश्वाँस ___ लेता है, न पीता है, न देखता है, केवल (उसका) निश्चेष्ट शरीर स्थित है।' १७८ प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. तो राजा कहता हैं- 'अरे क्या हाथी मर गया?' तब वे कहते हैं कि _ 'स्वामी, (आप) ऐसा कह रहे हैं, हम नहीं।' २२-२३. राजा ने कहा- 'अपने मीठे पानी के कुए को भिजवाओ।' (उन्होंने कहा) 'हे देव! आपके समक्ष हमारा कुआ अज्ञानी है। अत: आप अपने नगर के (चतुर) कुए को भेजें, जिससे हे स्वामी! जिज्ञासु (हमारा कुआ) उसके मार्ग के पीछे लगा हुआ (आपके पास) आ जायेगा।' २४. किसी अन्य समय में- 'यहाँ जो (गाँव के पश्चिम में) वन-खण्ड है उसे पश्चिम से पूर्व दिशा में कर देना चाहिये।' (राजा के द्वारा ऐसा कहे जाने पर) उस रोहत के द्वारा गाँव को उजाड़कर (वन के पश्चिम में वसाकर) वह भी कर दिया गया। २५. 'अग्नि एवं सूर्य के बिना भी खीर पकवाओ।' ऐसा क्षुद्र आदेश भेजे जाने पर (उस रोहत द्वारा) घूरे (को गर्मी) से खीर बनायी गयी । २६. 'यह सब कुछ किसके द्वारा किया गया।' ऐसा पूछने पर 'रोहत ने किया ऐसा उत्तर में कहे जाने पर प्रसन्न मनवाले राजा ने एक दिन बुलवाया (कि वह) मेरे पास आए। २७. उस समय से राजा को उस रोहत में बहुत पक्षपात (प्रेम) हो गया। और बुद्धिगुण के द्वारा सबके ऊपर (उसे) मन्त्री स्थापित कर दिया गया । 000 पाठ २६ : जीवन-व्यवहार १. ज्ञान का प्रकाश (ही सच्चा) प्रकाश (है । क्योंकि) ज्ञान के प्रकाश की (कोई) रुकावट नहीं है । सूरज थोड़े क्षेत्र को प्रकाशित करता है, (किन्तु) ज्ञान पूरे संसार को। प्राकृत काव्य-मंजरी १७९ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. यदि अधिक न कर सको तो थोड़ा-थोड़ा ही धर्म करो। बूंद-बूंद से समुद्र बन जाने वाली महानदियों को देखो । ३. विनय से रहित व्यक्ति की सारी शिक्षा निरर्थक हो जाती है । विनय शिक्षा का फल है (और) विनय का फल सबका कल्याण है । ४. ५. ६. 19. जल, चन्दन, चन्द्रमा, मुक्ताफल, चन्द्रमणि (आदि) मनुष्य को उस प्रकार सुखी नहीं करते हैं, जिस प्रकार अर्थयुक्त, हितकारी, मधुर और संयत वचन ( सुखी करते हैं ) । जिस प्रकार गंधरहित पुष्प भी देवता का प्रसाद है, ऐसा मानकर सिर पर रख लिया जाता है उसी प्रकार सज्जन लोगों के बीच रहने वाला दुर्जन भी पूज्यनीय हो जाता है । दुर्जन की संगति से सज्जन भी निश्चय ही अपने गुरण को छोड़ देता है । जैसे जल अग्नि के संयोग से ( अपने ) शीतल स्वभाव को छोड़ देता है । ܘܕ सज्जन लोग ( अपने गुणों को) वाणी से न कहते हुए कार्यों से प्रकट करने वाले होते हैं और अपने गुणों को न कहते हुए वे मनुष्य-लोक में ऊपर उठे हुए हैं। ८. नहीं कहने वाले भी मनुष्य के विद्यमान गुण नष्ट नहीं होते हैं । जैसे (अपने तेज का) बखान न करने वाले सूरज का तेज संसार में प्रसिद्ध है । ६. आत्म-प्रशंसा को हमेशा ( के लिए) छोड़ दो, (अपने ) यश के विनाश करने बाले मत बनो। क्योंकि अपनी प्रशंसा करता हुआ मनुष्य लोगों में तिनके के समान हल्का हो जाता है । १०. वचन से ( अपने ) गुणों को जो कहना है, वह उन गुणों का नाश करना होता है और आचरण से गुणों का प्रकट करना उनका विकास करना होता है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only प्राकृत काव्य - मंजरी Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. जो (व्यक्ति) दूसरे को निन्दाकर अपने को (गुणवानों में) स्थापित करने की इच्छा करता है, वह दूसरों के द्वारा कड़वी औषधि पी लेने पर (स्वयं) आरोग्य चाहता है। १२ क्रोध से मनुष्य का अत्यन्त प्यारा व्यक्ति भी मुहूर्त (क्षण) भर में शत्रु हो जाता है। क्रोधी व्यक्ति के अनुचित आचरण से अत्यन्त प्रसिद्ध उसका यश भी नष्ट हो जाता है। १३. घमण्डी व्यक्ति सबका वैरी हो जाता है। मानी व्यक्ति इस लोक और परलोक में कलह, भय, वैर, दुःख और अपमान को अवश्य ही प्राप्त करता है। १४. अभिमान से रहित मनुष्य संसार में स्वजन और जन-सामान्य (सभी) को सदा प्रिय होता है और ज्ञान, यश, धन (आदि) को प्राप्त करता है तथा अपने कार्य को सिद्ध कर लेता ००० पाठ ३० : कवि-मनुभूति १. इस लोक में वे कवि जीतते हैं (सफल होते हैं), जिनकी वाणियों (काव्यों) में ___ सफल अभिव्यक्ति विद्यमान (है। और इसलिए) यह जगत् या तो हर्ष से पूर्ण या तिरस्कार योग्य देखा जाता है । २. स्वकीय वाणी के द्वारा ही निज के गौरव को स्थापित करते हुए जो निश्चय ही प्रशंसा प्राप्त करते हैं, वे महाकवि इस लोक में जीतते हैं (सफल होते हैं)। • यह अनुवाद 'वाक्पतिराज की लोकानुभूति' - डॉ. कमलचन्द सोगाणी की पुस्तक (पाण्डुलिपि) से लिया गया है। उनकी यह पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य है। प्राकृत काव्य-मंजरी १८१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. जिनके हृदय काव्यतत्त्व के रसिक होते हैं, उन (व्यक्तियों) के लिए निर्धनता में भी (कई प्रकार के) सुख होते हैं (तथा) वैभव में भी (कई प्रकार के) दुःख ४. लक्ष्मी की थोड़ी मात्रा भी उपभोग की जाती हुई शोभती है तथा सुखी करती है, किन्तु किंचित् भी अपूर्ण देवी सरस्वती (अधूरी विद्या) उपहास करती है । ५. दुर्जनों द्वारा कही हुई निन्दा सज्जनों को लगेगी अथवा नहीं लगेगी (कहा नहीं जा सकता), किन्तु वह (निन्दा) सज्जनों की निन्दा (से उत्पन्न) दोष के कारण उन (दुर्जनों) को (ही) घटित हो जाती है। जिनके लिए असमान (व्यक्तियों) के द्वारा की गई प्रशंसा भी निन्दा के समान होती है, उनके मन को उन (असमान व्यक्तियों) के द्वारा की गई निन्दा भी खिन्न नहीं करती है। ७. अत्यधिक लोग सामान्य मतित्त्व के कारण उन (सामान्य कवियों) के ग्रहण (सम्मान) में प्रसन्नता पूर्वक (तत्पर रहते हैं)। इसलिए ही सामान्य कवि प्रसिद्धि को प्राप्त हुए। दूसरे का छोटा गुण भी (महान् व्यक्ति को) प्रसन्न करता है, (किन्तु) उसे अपने बड़े गुण में भी संतोष नहीं (होता है)। शील और विवेक का यह, इतना ही सार है। ६. महापुरुषों के गुण सामान्य (व्यक्तियों) में भी प्रकट होते हैं, (किन्तु उनके गुणों द्वारा) सर्व प्रथम उत्तम आत्माएँ ग्रहण की गयी (हैं), जैसे चन्द्रमा की किरणे पहले पर्वत के ऊपर के भाग पर रुकी, (फिर) धरती पर। १०. (स्व- पर के) कल्याण को सिद्ध करते हुए (मनुष्यों) के लिए समग्र (लोक) ही अधिक कल्याणकारी (हो जाता है)। उनके लिए कुछ इस प्रकार सिद्ध होता है, जिससे वे स्वयं भी आश्चर्य को प्राप्त करते हैं । १८२ प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. (वास्तव में) महिमा में (और) गुणों के फल में (सम्बन्ध है, किन्तु) दुष्ट पुरुष (जो सोचते हैं कि) अगुणों के फल के द्वारा महिमाएँ बन्धी हुई (हैं; वे) __ गुणों (के अन्दर) ने विपरीत उत्पत्ति को चाहते हैं। १२. जैसे-जैसे इस समय सुरण शोभायमान नहीं होंगे तथा जैसे-जैसे (इस समय) दोष फलेगे, वैसे-वैसे जगत् भी अगुणों के आदर से गुण-शून्य हो जायगा । १३. आश्चर्य ! दुष्ट पुरुष नीच संगति में ही प्रसन्न होते हैं, (यद्यपि) सज्जन (उनके) निकट (होते हैं), वह निश्चय ही (दुर्जनों की) स्वेच्छाचारिता है कि रत्नों के सुलभ होने पर (भी उनके द्वारा) काँच ग्रहण किया जाता है। १४. व्यवहार से ही मनुष्य के स्वाभाविक रंगरूप को देखो, (उसके) हृदय से क्या? मणियों के भी प्रकाश का उद्भव जो बाहर की ओर से (होता है) वह (उनके ) टूटने पर (भीतर से) नहीं (होता है)। 000 पाठ ३१ : प्राकृत अभिलेख ६. इस श्रीभिल्लुक (राजा का) और दुर्लभ देवी (रानी) का महान् गुणों से गौरव शाली, शोभायुक्त कक्कुक नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। मन्द विकसित मुस्कान वाले, मधुर बोलने वाले, देखने में सौम्य, विनम्र (और) दीनतारहित जिस (कक्कुक) का क्रोध क्षणिक (और) मैत्री स्थिर (रहने वाली थी)। ८. जनता के कार्य (लोकहित) के अलावा (अन्य व्यर्थ के कार्यों में) जिस (राजा) के द्वारा (कभी ) म बोला गया, न (कुछ) किया गया, न देखा गया, न याद किया गया, न (कहीं) ठहरा गया (और) न (कहीं) भ्रमण किया गया । प्राकृत काव्य-मंजरी १८३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ &, माता की तरह जिस (राजा) के द्वारा अपने राज्य में सुखी, दुखी, निम्न वर्ग तथा श्रेष्ठवर्ग वाली सभी प्रजा सदा सुखपूर्वक धारण (पालन) की गयी । १०. जिस (राजा) के द्वारा न्यायवर्जित विरोध, विघ्न, रागद्वेष, ईर्ष्या, लोभ आदि के द्वारा कभी भी न्याय निपटाने में भेद-भाव विशेष नहीं किया गया । ११. जिस (राजा) के द्वारा सज्जन लोगों को आदर ( देकर ) तथा समस्त जनता को संतुष्ट कर अपनी ईर्ष्या से उत्पन्न दुष्ट लोगों के लिए कठोर दण्ड ( की व्यवस्था की गयी । १२ जिस (राजा) के द्वारा धन ऋद्धि से समृद्ध नागरिकों के लिए भी अपने राजस्व की (आय से अधिक सैंकड़ों, लाखों (रुपये) बांटे जाते हुए देखा गया है । १३, नव-यौवन, रूप-प्रसाधन और श्रृंगार-गुण की अधिकता से युक्त भी जिस (राजा) के द्वारा जनपद के लोगों में ( अपने प्रति ) निन्दा और निर्लज्जता को नहीं फैलने दिया गया । १४. ( वह कक्कुक राजा) बच्चों के लिए गुरु, युवकों के लिए मित्र तथा वयोवृद्धों के लिए पुत्र के समान ( था ) । जिसके द्वारा इस प्रकार के सुचरितों से हमेशा सभी जनता का पालन किया गया । १५. जिस (राजा) के द्वारा नमन करते हुए, सद्गुणों की प्रशंसा करते हुए और मधुर वाणी बोलते हुए (आश्रित ) प्रणयीजनों को सदा धन- समूह और सम्मान दिया गया । १६. मारवाड़, बल्लतमरणी से घिरे हुए मध्य गुजरात आदि राजा) के द्वारा अपने सच्चरित गुणों से जनता के दिया गया था । १८४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only (देशों) में जिस ( कक्कुक लिए अनुराग उत्पन्न कर प्राकृत काव्य - मंजरी Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ पर्वत में आग लगाकर और पल्लियों (बस्तियों) से गोधन लेकर जिसके द्वारा दुर्गम वट नामक मण्डल (प्रदेश) में आतंक उत्पन्न करा दिया गया था । १८. तथा जिसके द्वारा श्रेष्ठ इच्छुओं ( ईख) के पत्तों से आच्छादित यह भूमि नीलकमलों से सुगन्धित और माकन्द एवं मधूक वृक्षों से रमणीक कर दी गयो थी । ११- २० वि० सं० १८ चैत्र शुक्ला द्वितीया बुधवार को हस्त नक्षत्र में श्री कक्कुक ने अपनी कीर्ति की वृद्धि के लिए रोहन्सकूप नामक ग्राम में महाजनों, विप्र, व्यापारियों आदि सामान्य जनों से व्याप्त बाजार स्थापित किया । प्राकृत काव्य - मंजरी Jain Educationa International 000 For Personal and Private Use Only १८५ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १८६ अपठित प्राकृत गाथाएँ १. वीरभडपसंसा रिगव्वुब्भइ सोडीरं प्रप्पsिहत्थलहुश्रो हसिज्जइ पहरो । वड्ढइवेराबंधो . असंधिज्जन्ति साहसेसु समत्था || १॥ रंग पडई पडिए वि सिरे मूलविहिन पि न भिज्जइ हि दुष्परिइयं ण लग्गइ लाविज्जन्तं पि पडिभडारण रणभ । f प्रवीणा किज्जइ सुमरिज्जइ संसए वि सामिप्रसुक रंग गरिगज्जइ विरिणवा दट्ठ वि भत्रम्मि संभरिज्जइ लज्जा ॥३॥ सीडोरेण पप्रावो छात्रा पहरेहिं विक्कमेहिं परिश्रणो । arrer श्रहमाणो रक्खिज्जइ अ गरुप्रो सरीरेण जसो ||४॥ भिज्जइ उरो रंग हिमश्रं गिरिंगा भज्जइ रहो ण उरंग उच्छाहो । छिज्जन्ति सिंररिहाना तुरंगा उरंग रणदोहला सुहडारणं ॥५॥ । || २ || देइ रसं रिउपहरों वहइ धुरं विक्कमस्स वेराबंधो । वाड्ढमरणरहसो 'दप्पं वड्ढइ ग्रामो इभारो ||६|| साहेइ रिउ व जसं रण सहइ आरिअं व कालक्खेवं । लहइ सुहं मिव णासं जीनं मुइ समुहं पहरणं व भडो ||७|| Jain Educationa International j धारेन्ति जसस्स धुरं एन्तं रंग सहन्ति विक्कमस्स परिहवं । रोस्स करेति धिई मारणं वड्ढेन्ति साहसस्स समत्था ||* 7 1 रावणवहो (सेतुबन्ध) - प्रवरसेन, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, १९३५ से उद्धृत । गाथानुक्रम आश्वास १३ की गाथा सं० १२, १३, १६, ३५, ३६, ४१, ४२ एवं ४६ । For Personal and Private Use Only 1 प्राकृत काव्य-मंजरी Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. अणहिलवाडयपुर-वण्णणं अत्थि मही-महिलाए मुहं महंतं मयंक-पडिबिम्बं । जंबुद्दीव-छलेण नहलच्छिं दठ्ठ मुन्नमियं ॥१॥ तुगो नासा-वंसो व्व सोहए तियस-पव्वरो जत्थ । सीया-सीयोयाओ दीहा दिट्ठीओ व सहन्ति ॥२॥ तत्थारोविय-गुण-धरणु-निभं नलाडं व भारहं अत्थि । जत्थ विरायइ विउलो वेयड्ढो रयय-पट्टो व्व ॥३॥ जं गंग-सिंधु-सरिया-मुत्तिय-सरियाहि संगयं सहइ । तीर-वण-पन्ति-कुन्तल-कुलाव-रेहन्त-पेरन्तं ॥४॥ तत्थत्थि तिलय-तुल्लं अणहिलवाडय-पुरं घण-सुवण्णं । पेरन्त-मुत्तयावलिसमो सहइ जत्थ सिय-सालो ॥५॥ गरुषो गुज्जर-देसो नगरागर-गाम-गोउलाइण्णो । । सुर-लोय-रिद्धि-मय-विजय-पंडिओ मंडिओ जेण ॥६॥ जम्मि निरंतर-सुर-भवण-पडिम-ण्हवणंबु-पूर-सित्त व्व । सहला मणोरह-दुमा धम्मिय-लोयस्स जायन्ति ॥७॥ अब्भंलिह-सुर-मंदिर-सिर-विलसिर-कणय-केयरण-भुएहि । नच्चइ व जत्थ लच्छी सुट्ठाण-निवेस-हरिस-वसा ॥८॥ जम्मि महापुरिसाणं धरण-दाणं निरुवमं निएऊरण । अजहत्थ-नाममो लज्जिो व्व दूरं गमो धणयो ।।६।।* कुमारपालप्रतिबोध (सोमप्रभाचार्य) - प्र० सेन्ट्रल लायब्ररी, बड़ौदा, १९२०, से उद्घ त । गाथानुक्रम-सर्ग-१ गाथा ३२, ३३, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ४० एवं ४२ । प्राकृत काव्य-मंजरी १८७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. गोविया-विलावो अहो समाप्रणिय कण्ण-दूसहं पवास-वत्तं पदएस-केउणो। गलुग्गलंतस्सु-जलुक्खदक्खरं विनोअ-भीमा विलवन्ति गोविया ॥१॥ अमुद्धअंदम्मि व संभु-मत्थए अकोत्थुहम्मि विव विण्ड-वच्छए। अणंदए णंद-घरम्मि का सिरि हा हा हंत वगं व अंगणा ॥२॥ अरणनणाहा अवि हा विहानणे घिणं विणा झत्ति गए विदालुणे । तहिं जणे लग्गइ संपनं पि जं तमम्मकाणं खु मणं विरिणदिनं ॥३॥ किमेत्थ अम्हे कुणिमो गुणुत्तरे जणे पिणद्ध जुवईण माणसं । ण तीरए चारु-पसूण-सोरहे महीरहे भिंगउलं च कड्ढिउं ।।४॥ पहाण-पाणाणि खुणो जणहणो स जेण दूरं गमियो दुरप्पणा । कअंत-दूओ च्चिन सो समागो ण कंस-दूरो त्ति मुणेह गोविया ॥५॥ गयो स कालो गम-गामिणी-प्रणा मणोरहाणं कुणिमो तिलंजलि । सुहस्स सव्वस्स वि मूल-कालणं जणो गो जं जण-लोअणंजणो ॥६॥ इअ-प्पलावं पिन-विप्पवास-प्पग्राम-सोपाउरमंगणा-अरणं । मुउंद-वाग्राउ स गंदिणी-सुप्रो समागो जंपइ कि पि सारं ॥७॥ अहीरमाहीर-रिणअंबिरणी-प्रणा मुहा खु तुम्हे विलवेह वीहलं । कहं णु वो मुचइ चंचलेक्खरणा खरणं पि सो तुम्ह वसंवो हरी ॥८॥ उसम्मि संमज्जइ सामरम्मि जो स साप्रमुम्मज्जइ किं ण चंदमो। अलं विसाएण विलासिणीण वो गमस्स पच्चाप्रमणं ण दुल्लहं ॥६॥ • कंसवहो (रामपाणिवाद) सं० - ए० एन० उपाध्ये, से उद्ध त । गाथानुक्रम-सर्ग १ गाथा ३५, ३६, ३७, ३८, ३६, ५१, ५५, ५६ एवं ५८ । १८८ प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ ग्रन्थ-सूची १. हेमशब्दानुशासन : आचार्य हेमचन्द्र, बाम्बे संस्कृत एण्ड प्राकृत सीरीज ६०, १६३६ । २. प्राकृतमार्गोपदेशिका : पं० बेचरदास दोशी, दिल्ली ३. पाइयसद्दमहाण्णव : प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, वाराणसी,१९६३ ४. प्राकृत भाषा एवं : डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री, तारा पब्लिकेशन वाराणसी, साहित्य का आलोचना- १९६६ त्मक इतिहास ५. पाख्यानमणिकोश : सं० - मुनि श्री पुण्यविजय, प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, वाराणसी, १९६२ ६. अभयक्खायं : सं०- डॉ० के० आर० चन्द्रा, सरस्वती पुस्तक भण्डार अहमदाबाद ७. वज्जलग्गं : सं० - प्रो० एम० वी० पटवर्धन, प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद १९६६ ८. कुम्मापुत्तचरियं : सं० - के० बी० अभ्यंकर ६. मुणिपइचरियं : सं० - आर० विलियम्स, रॉयल एशियातिक सोसायटी लन्दन, १९५६ १०.प्राकृत गद्य-पद्य-संग्रह : प्र० - गुजरातराज्य शाला पाठ्यपुस्तक मण्डल, भाग-११ अहमदाबाद, १९७६ ११. सुरसुन्दरीचरियं : सं० - 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डॉ के० सी० सोगाणी (पाण्डुलिपि), १९८२ लोकानुभूति २२. रावणवहो : सं० - पं० शिवदत्त, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, १९३५ २३. कुमारपालप्रतिबोध : प्र0 - सेन्ट्रल लायब्रेरी, बड़ौदा, १९२० । २४. कंसवहो : सं० - डॉc ए० एन० उपाध्ये, मोतीलाल बनारसी . दास, दिल्ली, १९६६ बल्ला, १९६६ १६० प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर अद्यावधि प्रकाशित ग्रन्थ १. कल्पसूत्र सचित्र : (मूल, हिन्दी एवं अंग्रेजी अनुवाद तथा २००-०० ३६ बहुरंगी चित्रों सहित) सम्पादक एवं हिन्दी अनुवादक: महोपाध्याय विनयसागर; अंग्रेजी अनुवादक: डॉ० मुकुन्द लाठ २. राजस्थान का जैन : (राजस्थानी विद्वानों द्वारा रचित प्राकृत, ३०-०० सहित्य संस्कृत, अपभ्रश, राजस्थानी, हिन्दी भाषा के ग्रन्थों पर विविध विद्वानों के वैशिष्ट्य .. पूर्ण एवं सारगर्भित ३६ लेखों का संग्रह) ३. प्राकृत स्वयं-शिक्षक : ले० - डॉ० प्रेमसुमन जैन १५-०० ४. आगम-तीर्थ : (आगमिक प्राकृत गाथाओं का हिन्दी ' . १०-०० पद्यानुवाद) अनु० - डॉ० हरिराम प्राचार्य ५. स्मरण-कला : (अवधान कला सम्बन्धित पं० धीरजलाल १५-०० टो० शाह लिखित गुजराती पुस्तक - का हिन्दी अनुवाद) अनु०- मोहन मुनि शार्दूल ६. जैनागम दिग्दर्शन : (४५ जैनागमों का संक्षिप्त परिचय) सजिल्द २०-०० ले० - डॉ० मुनि श्री नगराज सामान्य १६-०० २७. जैन कहानियाँ : ले०- उपाध्याय महेन्द्र मुनि ४-०० ८. जाति-स्मरण ज्ञान : ले०- उपाध्याय महेन्द्र मुनि ३-०० ६. हाफ ए टैल : (कवि बनारसीदास रचित स्वात्मकथा १५०-०० (अर्धकथानक) अर्धकथानक का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद, आलोचनात्मक अध्ययन एवं रेखा चित्रों सहित) सम्पादक एवं अनुवादकः डॉ. मुकुन्द लाठ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. गणधराद ५०-०० : (पं० दलसुखभाई मालवरिया लिखित गुजराती गणधरवाद का हिन्दी अनुवाद) अनु० प्रो० पृथ्वीराज जैन सम्पादक महोपाध्याय विनयसागर ७०-०० ११. जैन इन्सक्रिप्सन ऑफ : (राजस्थान के प्राचीन ऐतिहासिक एवं राजस्थान वैशिष्ट्य पूर्ण जैन शिलालेखों, मूर्तिलेखों का परिचयात्मक वर्णन) रामवल्लभ सोमानी १५-०० १२. एग्जेक्ट सायन्स फ्रोम : प्रो० लक्ष्मीचन्द जैन जैन सोर्सेज पार्ट। बेसिक मेथेमेटिक्स १३. प्राकृत काव्य-मंजरी : ग. प्रेमसुमन जैन १६-०० २०.०० १४. महावीर का जीवन : प्राचार्य काका कालेलकर सन्देश-युग के सन्दर्भ में १५. जैन पोलिटिकल थोट : डॉ0 जी0 सी0 पाण्डे १६. स्टडोज ऑफ जैनिज्मः डॉ0 टी0 जी0 कलघटगी २५-०० ३५-०० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JUT Bu yo e u uw Jan Educationa International For Personal and Private Use Only wwwrong