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१३. जिस नगर में घरों की दीवारों पर रखी हुई मणियों की किरणों से हमेशा
अंधकार नष्ट हो जाने पर लोग बीती हुई रात्रि को नहीं जानते थे ।
१४. जिस नगर की सुन्दरता को देखने के लिए आये हुए देवता कौतूहल से आकर्षित
मनवाले होकर निनिमेष (पलकों को न झुकाने वाले) नयनों वाले हो गए।
१५. धवल-गृहों के शिखरों पर लगी हुई पवन से प्रेरित पताकाएँ मानों सूर्य के सारथी
को अत्यन्त ऊँचे जाने के लिए संकेत करती हैं।
१६. जिस नगर में पाद-प्रहार नाट्यभूमि में, दण्ड ध्वज-पताकाओं में और शीर्ष
छेदन ज्वार आदि धान्य में ही दिखायी देता है। (अर्थात् किसी व्यक्ति को लात मारने, दण्ड देने, सिर काटने आदि को सजा नहीं दी जाती थी)।
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पाठ १८: समुद्र-गमन १. इसके बाद किसी एक समय में रात्रि व्यतीत होने पर समुद्रदत्त विचार करता
है-- 'जो पिता के द्वारा कमाई हुई लक्ष्मी का उपभोग करता है वह अधम (निम्न) चरित्र वाला है।
२. उसके बढ़ने से क्या, बुद्धि से अथवा उसके गुण-समूह से क्या (लाभ) ?, जो
कमाने में समर्थ होता हुआ भी पिता के द्वारा अर्जित धन को खाता है।
३. हाथ जोड़े हुए वह (समुद्र दत्त) माता एवं पिता के चरणों में नमनकर निवेदन
करता है- 'मैं जल-मार्ग से बहुत-सा धन कमाकर आऊँगा।'
४. वे भी कहते हैं- 'हे पुत्र! हमारे घर में भी विपुल लक्ष्मी है । अतः हे पुत्र! तुम
प्रतिदिन अपनी इच्छा से इसको ही भोगो।
५. तुम सैकड़ों उपायों से प्राप्त एक मात्र ही हमारे पुत्र हो। सुखों से पालन किये
गये तुम्हारे जैसों के लिए समुद्र-मार्ग किला (कठिन) है।'
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प्राकृत काव्य-मंजरी
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