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चंदन तरु ब्व सुयरणा फलरहिया जइ वि निम्मिया विहिणा। तह वि कुरणन्ति परत्थं निययसरीरेण लोयस्स ॥६॥
कत्तो उग्गमइ रई कत्तो वियसन्ति पंकयवणाई । सुयणाण जए नेहो न चलइ दूरट्ठियाणं वि ॥७॥
फलसंपत्तीए समोरणयाइं तुगाई फलविपत्तीए । हिययाइं सुपुरिसारणं महातरूणं व सिहराइं ॥८॥ हियए जानो तत्थेव वढियो नेय पयडियो लोए। ववसायपायवो सुपुरिसारण लक्खिज्जइ फलेहिं ।।६।।
होन्ति परकज्जरिणरया नियकज्जपरंमुहा फुडं सुयणा । चन्दो धवलेइ महिं न कलंकं अत्तणो फुसइ ।।१०॥ सच्चुच्चरणा पडिवन्नपालणा गरुयभारणिव्वहणा । धीरा पसन्नवयरणा सुयणा चिरजीवरणा होन्तु ॥११॥
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. 'वज्जालग्गं' - सं० प्रो० एम० वी० पटवर्धन से उद्धत । गाथ. नुक्रम- ३३, ३६, '३७, ४२, ४७, ४८, ८० ११४, ११५, ४८.३, ४८.४ ।
प्राकृत काव्य-मंजरी
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