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________________ पाठ 20 : सिक्खानीई पाठ-परिचय : प्राकृत आगम-ग्रन्थों में से विनोबा जी की प्रेरणा से श्री जिनेन्द्रवर्णी ने ७५६ गाथाओं का एक संकलन तैयार किया। समाज ने उसे 'समणसुत्त' नाम से स्वीकृत किया है। यह समणसुत्त गीता, धम्मपद, बाइबिल, कुरान आदि ग्रन्थों जैसा आध्यात्मिक ग्रन्थ है। उसमें जीवन के उत्थान के लिए कई शिक्षा-सूत्र भी उपलब्ध हैं। समणसुत्त की सौ गाथाओं को चुनकर दर्शन के प्रोफेसर एवं प्राकृत के अध्येता डॉ. कमलचन्द सोगाणी ने समणसुत्त-चयनिका नामक पुस्तक तैयार की है। उसी में से कुछ गाथाएँ यहाँ प्रस्तुत की गर्य है । उनमें आचार्य-स्वरूप, आदर,अप्रमाद जागरूकता, सरलता, सत्य. समन्वय इत्यादि से सम्बन्धित शिक्षा-नीतियाँ कही गयी हैं। जह दीवा दीवसमं, पइप्पए सो य दिप्पए दीवो। दीवसमा आयरिया, दिप्पंति परं च दीवन्ति ।।१।। जस्स गुरुम्मि न भत्ती, न य बहुमाणो न गउरवं न भयं । न वि लज्जा न वि नेहो, गुरुकुलवासेण किं तस्स ॥२॥ विवत्ती अविणीअस्स, संपत्ती विणीअस्स य ।। जस्सेयं दुहनो नायं, सिक्खं से अभिगच्छइ ॥३।। अह पंचहिं ठाणेहिं. जेहिं सिक्खा न लब्भई । थम्भा कोहा पमाएणं, रोगेणालस्सएण ॥४॥ नालस्सेण समं सुक्खं, न विज्जा सह निद्दया। न वेरग्गं ममत्तेण, नारंभेण दयालुया ॥५॥ जागरह नरा! णिच्चं, जागरमाणस्स वड्ढते बुद्धी। जो सुवति । सो धन्नो, जो जग्गति सो सया धन्नो ॥६॥ ८० प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003806
Book TitlePrakrit Kavya Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages204
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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