________________
तह पंडु-पउम-संडोह-मंडियाणेय-गुरुतर-सरेहि सोवाण-पंति-सुगमावयार-वावी-सहस्सेहिं
॥७॥ वर-तिय-चउक्क-चच्चर-आरामुज्जारण-दीहियाईहिं । देवाणमवि कुणतं पए पए चित्त-संहरणं ॥८॥ सयलन्नपुर-पहाणं नयरं सिरिहत्थिरणारं नाम।। नयर-गुणेहुववेयं संकासं अमर-नयरस्स ॥६।। जत्थ य निवसइ लोपो पियंवो धम्म-करण-तल्लिच्छो । दक्खिन्न-चाय-भोगेहिं संगो तह कला-कुसलो ।।१०।। जत्थ य पुरम्मि निच्चं इनो तो बहु-पोयण-परेण । भमिर-जण-समुदएणं दुस्संचाराप्रो रत्थाओ ॥११।। जत्थ य कोडि-पडाया-पच्छाइय सयल-गयण-मग्गम्मि । लोप्रो गिम्हदिरणेसु वि रविकरतावं न याणेइ ।।१२।। जत्थ य पुरम्मि पुरिसा घर-भित्ति-निहित्त-मणि-मऊहेहिं । निच्चं हयंधयारे गयं पि राइं न याणन्ति ॥१३॥ रम्मत्तणो जस्स य पलोयरत्थं व आगया देवा । कोउगवक्खित्तमणा अणमिस-नयत्तणंपत्ता ॥१४।। धवलहर-सिसर-विरइय-पवण-पहल्लंत-वेजयन्तीम्रो । सन्नन्ति व रविणो सारहिस्स अइउच्च-गमणट्ठा ।।१५।। जत्थ य पुरम्मि दीसइ पाय-पहारो उ रंग-भूमीसु । दंडो उ धय-वडाणं सीसच्छेप्रो जुयारीण ।।१६।।*
000 "सुरसुन्दरीचरिय'-सं०-मुनि श्री राजविजय, बनारस, १६१६ से उद्ध त । गाथानुक्रम प्रथम परिच्छेद, गाथा ५५ से ७१ ।
कृत काव्य-मंजरी
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org