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पाठ २० ; शिक्षा-नोति*
१. जैसे एक दीपक से सैकड़ों दीपक जलते हैं और वह दीपक ( भी ) जलता है ( वैसे ही ) दीपक के समान आचार्य (स्वयं ज्ञान से ) प्रकाशित होते हैं तथा दूसरे को प्रकाशित करते हैं ।
२. जिस की गुरु में भक्ति नहीं ( है ) तथा ( जिसका गुरु के प्रति ) अतिशय आदर नहीं ( है, और ) गौरव - भाव नहीं ( है ) तथा ( जिसको गुरु से ) भय नहीं ( है ), और प्रेम नहीं है, उसका गुरु के सान्निध्य में रहने से क्या लाभ ?
३. अविनीत के अनर्थ ( होता है)
और विनीत के समृद्धि ( होती है ), जिसके द्वारा यह दोनों प्रकार से जाना हुआ ( है ), वह विनय को ग्रहण करता है ।
४.
५.
अच्छा तो जिन ( इन ) पाँच अहंकार से, क्रोध से, प्रमाद से,
आलस्य के साथ सुख नहीं ( रहता है), निद्रा के साथ विद्या ( संभव ) नहीं (होती है), आसक्ति के साथ वैराग्य ( घटित ) नहीं ( होता है, तथा ) जीवहिंसा के साथ दयालुता नहीं ( ठहरती है) ।
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कारणों से शिक्षा प्राप्त नहीं की जाती है। रोग से तथा आलस्य से ।
६. हे मनुष्यो ! तुम (सब) निरन्तर जागो ( कर्तव्यों के प्रति सजग रहो ), जागते हुए (व्यक्ति) की प्रतिभा बढ़ती है, जो (व्यक्ति) सोता है ( कर्त्तव्य के प्रति उदासीन है) वह सुखी नहीं होता है, जो सदा जागता है, वह सुखी होता है ।
७. थोड़ा-सा ऋण, थोड़ा-सा घाव, थोड़ी-सी अग्नि और थोड़ी-सी कषाय ( दुष्प्रवृत्ति भी ) तुम्हारे द्वारा विश्वास किये जाने योग्य नहीं है, क्योंकि थोड़ासा भी वह बहुत ही होता है ।
यह अनुवाद 'समरणसुत्तं - चयनिका ' डॉ० कमलचन्द सोगाणी की पुस्तक ( पाण्डुलिपि) से लिया गया है । यह पुस्तक शीघ्र ही प्रकाश्य है ।
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प्राकृत काव्य - मंजरी
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