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नियम : कृदन्त नियम १७ : क्रिया से सम्बन्ध कृदन्त रूप बनाने के लिए क्रिया में तु तुण, य आदि
आठ प्रत्यय लगते हैं। यहाँ केवल तूरण (ऊण) प्रत्यय लगाकर प्रयोग दिखाया गया है । ऊण प्रत्यय लगाने के पूर्व अकारान्त क्रिया के प्रको इ हो जाता है। जैसे :
पढ+इ+ऊण=पढिऊण, दा+ऊण =दाऊरण, हो+ऊण =होऊण । नियम १८ : हेत्वर्थ कृदन्त बनाने के लिए क्रिया में तुं (5) प्रत्यय जुड़ जाता है
एवं अकारान्त क्रियाओं के अ को इ हो जाता है । जैसे :
पढ+इ+ उं=पढिउं; दाउ, होउ। नियम १६ : वर्तमानकालिक कृदन्त मूल क्रिया में न्त, मारण प्रत्यय जुड़ने पर बनते हैं ।
उसके बाद लिंग के प्रत्यय जुड़ते हैं। जैसे :(क) पढ+न्त=पढन्त+ओ= पढन्तो, ई=पढन्ती, =पढन्त ।
(ख) पढ+माण =पढमारण+ओ=पढमाणो, पढमारणी, पढमाणं । नियम २० : भूतकालिक कृदन्त के रूप मूल क्रिया में अप्रत्यय जुड़ने पर तथा क्रिया
के प्रको विकल्प से इ होने पर बनते हैं। जैसे :(क) पढ+इ+अ पढि = पढ़ा हुआ।।
(ख) संतुट्ट+अ संतुट्ट = संतुष्ट हुआ (इ न होने पर)। नियम २१ : भविष्यकालिक कृदन्त के रूप मूल क्रिया के प्रको इ होने पर स्संत प्रत्यय
लगने पर बनते हैं। जैसे :
पड+इ+स्संत = पढिस्संत । नियम २२ : योग्यता-सूचक कृदन्त (विधि) मूल क्रिया में अपीन एवं अन्य प्रत्यय
लगने पर बनते हैं। जैसे :(क) कह+अरणीअ=कहणीन। (ख) अव्व प्रत्यय लगाने पर तथा क्रिया के म को ए होने पर । जैसे
मुण+ए+अव्व =मुणेअव्व ।
(ग) इनका प्रयोग चाहिए अर्थ में भी होता है। नियम २३ : वर्तमान, भूत, भविष्य एवं योग्यता-सूचक कृदन्तों का प्रयोग विशेषण
के रूप में भी होता है, तब विशेष्य के अनुसार उनके रूप बनते हैं ।
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प्राकृत काव्य-मंजरी
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