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पाठ १२ : सिक्खा-विवेओ
पाठ-परिचय :
प्राकृत साहित्य कथा साहित्य के लिए प्रसिद्ध है। विभिन्न जीवन-मूल्यों की शिक्षा प्रदान करने के लिए हजारों कथाएँ प्राकृत भाषा में लिखी गयी हैं। कुछ कथाएँ स्वतन्त्र ग्रन्थों के रूप में हैं तथा कुछ कथाएँ फुटकर रूप से कही-सुनी गयी हैं । ऐसी प्राकृत कथाओं का संग्रह प्राकृत कथाकोशों में किया गया है। पाख्यानमरिण कोश इसी प्रकार का प्राकृत कथाओं का एक संग्रहग्रन्थ है। परम्परा से प्रचलित कई कथाओं को इसमें प्राकृत पद्य में लिख दिया गया है ।
आख्यानमणिकोश के मूल रचयिता नेमिचन्दसूरि हैं। इन्होंने मूल में कुल ५२ गाथाएँ लिखी थीं, जिनपर उनके शिष्य आम्रदेवसूरि ने ई० सन् ११३४ के लगभग प्राकृत पद्य में टीका लिखी। इस. टीका में कुल १४६ कथाएँ (आख्यान) हैं। इन कथाओं में नैतिक आचरण का पालन करने वाले स्त्री-पुरुषों की कथाएँ हैं। दान, करुणा, अहिंसा, बुद्धि-चातुर्य, साहस, पुरुषार्थ आदि विषयों का इन कथाओं में वर्णन है । उन्हीं में से यह दो शिष्यों की कथा यहाँ प्रस्तुत है।
कम्मि तहाविहरूयम्मि सन्निवेसम्मि सुत्थवासम्मि । कस्स वि य सिद्धनामस्स नंदणा दोन्नि जणय-पिया ॥१॥ ते कि पि तेण सुत्ताई पाढिया परमिमो विचितेइ । जह किं निमित्तमिमे जाणन्ति तो भवे लट्ठ ॥२॥ तो नेमित्तियसत्थन्न यस्स कस्स वि समप्पिया पिउणा । सिक्खन्ति नवरमेगस्स सिक्खियं परिणमइ सम्मं ॥३॥ बीयस्स पुणो न तहा अविणयभावा अहन्नदिवसम्मि । कट्ठाणमाणपत्थं पट्टविया ते अरन्नम्मि ॥४॥ • जंतेहिं तेहिं मग्गे दिवाणि पयाणि हत्थिरूयस्स । एगेण भणियमेसो भायर! हत्थी गो पेच्छ ॥५।।
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प्राकृत काव्य-मंजरी
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