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पाठ १५ : सहलं मणजम्म पाठ-परिचय :
प्राकृत भाषा में ऐसे व्यक्तियों के जीवन-चरितों का वर्णन हुआ है, जिन्होंने अच्छे कार्यों के द्वारा अपने जीवन को श्रेष्ठ बनाया है। ऐसे काव्यों को चरितकाव्या कहा गया है। प्राकृत में लगभग तीसरी-चौथी शताब्दी में विमलसूरि ने 'पउमचरियं' नामक प्रथम चरितकाव्य लिखा, जिसमें मर्यादापुरुषोत्तम रामचन्द्र के जीवन का वर्णन है। इसके बाद कई चरितकाव्य लिखे गये हैं। लगभग १६ वीं शताब्दी में अनन्तहंस ने कुम्मापुतचरियं नामक ग्रन्थ लिखा है। इस चरितकाव्य में राजा महेन्द्र सिंह और रानी कूर्मा के पुत्र धर्मदेव के पूर्वजन्मों एवं वर्तमान जन्म की कथा वरिणत
धर्मदेव को एक साधु पुरुष मनुष्य-जन्म का महत्व बतलाता है। वह कहता है कि मनुष्य-जन्म अन्य पशु, पक्षी आदि के जन्म से कई अर्यों में श्रेष्ठ है। अतः इस मनष्य जन्म में आकर अच्छे कार्य करना चाहिए। इस जन्म को व्यर्थ के कार्यों में गंवाना ठीक नहीं है। इस बात की पुष्टि के लिए, करिणकपुत्र का उदाहरण दिया गया है।
कोई वरिणकपुत्र बड़ी कठिनाई और परिश्रम के बाद एक चिंतामणिरत्न को विदेश में जाकर प्राप्त करता है । यह रत्न मनवांछित फल को देने वाला है। जब वह वणि कुपुत्र जहाज से समुद्र पार कर रहा था तब रात्रि में चन्द्रमा के प्रकाश और रत्न के प्रकाश की वह तुलना करने लगता है। इसके लिए वह हाथ में रत्न को लेकर देख रहा था कि रत्न फिसलकर समुद्र में गिर गया और बहुत खोजने पर फिर नहीं मिला । इसी प्रकार मनुष्य-जन्म को यदि अच्छे कार्यों से सफल नहीं किया सो वह भी व्यर्थ चला जाता है।
एगम्मि नयरपवरे अस्थि कलाकुसलवारिणो को वि। रयणपरिक्खागंथं गुरूण पासम्मि अब्भसइ ॥१॥ अह अन्नया विचित इ सो वणिो किमवरेहि रयणेहि । चिंतामणी मणीणं सिरोमणी चिंतिपत्थकरो ॥२॥
प्राकृत काव्य-मंजरी
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