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बल-दप्प-गव्वियारण श्रभिट्ट पर मरणं
भरिय बाहुबलिरणा चक्कहरो कि वहेरण लोयस्स । दोहं पि होउ जुज्भं दिट्ठिी-मुट्ठीहि रणमज्झे ।। ६ ।।
उभयबलाणं रसन्ततूरा 1 नच्चन्त- कबन्ध-पेच्छरणयं
एवं च भरियमेत्ते दिट्ठीजुज्भं तो समभडियं । भग्गो य चक्पस पढमं च निज्जित्रो भरहो ||७|
रवि भुयासु लग्गा एक्केक्कं कढिरा-दीप- माहप्पा | 'चल-चलरण- पीरण- पेल्ला - करयल-परिहत्थ विच्छोहा 1150 अद्ध-तडिजोत्तबन्धरण-प्रवहत्युव्वत्त-करण निम्म विया 1 जुज्झन्ति सवडहुता अभग्ग मारव महापुरिसा ॥६॥
एवं भरहनरिन्दो निश्रो भुयविक्कमेण संगामे । तो मुयइ चक्करयणं तस्स वहत्थं परम- रुट्ठो ॥१०॥
विरिणवायरण असमत्थं गन्तुरण सुदरिसरणं पडिनियां 1 भुयबल - परक्कमस्स चि संवेगो सक्खणुप्पो ३।११।३
।।५।।
जंपइ अहो अकज्जं जं जाणन्ता वि विसयलोभिल्ला || पुरिसा कसायवसगा करेति एक्क्कमचिरोहं ॥ १२ ॥
छारस्स कए नासन्ति चन्दणं तह मणुय भोग- मूढा नरा वि
प्राकृत काव्य - मंजरी
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* 'पउमचरियं' - सं०- डॉ० हर्मन जैकोबी, मुनि पुण्यविजय से उद्धत । गाथानुक्रम
उद्देश्य ४ एवं गाथा नं० ३८ से ५० ।
मोत्तियं च दोरस्थे । नासन्ति देविड्ढि ||१३|| *
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