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पाठ १६ : माणुसस्स कयग्घआ
पाठ-परिचय :
प्राकृत भाषा के काव्य-ग्रन्थों में मुख्य कथा के साथ अन्य कथाएँ एवं दृष्टान्त भी पर्याप्त मात्रा में प्राप्त होते हैं । ये दृष्टान्त शिक्षापरक एवं प्रेरणादायक होते हैं । इन छोटी कथाओं से मानव-जीवन के स्वभाव को भी समझने में मदद मिलती है । 'मुणिपतिचरित' नामक ग्रन्थ में भी इसी प्रकार की १६ छोटी कथाएँ मिलती हैं । उसी में से यह 'मनुष्य की कृतघ्नता' कथा का चयन किया गया है ।
'मुणिपतिचरित' नाम की ३-४ रचनाओं का उल्लेख मिलता है । आठवीं शताब्दी के आचार्य हरिभद्रसूरि ने मुणिपतिचरित की रचना की थी, किन्तु वह ग्रन्थ आज उपलब्ध नही है । ८-९ वीं शताब्दी के एक कवि की रचना 'मुणिपतिचरित' उपलब्ध है, किन्तु उसके कर्त्ता का नाम अज्ञात है । सं० १९७२ में मानदेवसूरि ने और सं० १२७४ में द्वितीय हरिभद्रसूरि ने 'मुणिपतिचरित' ग्रन्थों की रचना की है | अज्ञात कवि के 'मुणिपतिचरित' का सम्पादन आर० विलियम्स ने किया है । उसमें १६ कथाएँ हैं । कथाएँ प्रायः संवादशैली में हैं ।
प्रस्तुत पाठ में एक बन्दरिया और एक लकड़हारे राहगीर मनुष्य के स्वभाव का चित्रण है । बन्दरिया अपनी शरण में आये हुए मनुष्य की शेर से रक्षा करती है। उसके लिए शेर से विरोध लेती है । किन्तु वही मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए बन्दरिया को शेर का भोजन बनाने के लिए तैयार हो जाता है । इस पर बन्दरिया उस कृतघ्न मनुष्य को धिक्कारती है ।
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एगो वट्टइ पुरिसो कट्ठनिमित्तं तु सो गयो अडविं । तेण य दिट्ठो सीहो तस्स भएरणं दुमे चडिओ ||१||
तुगे तम्मि दुमम्मि अहिरूढं वानरं विलोइत्ता । भयपेरन्तयगत्तो चितइ उभयन्तरे पडिप्रो IIRII.
सो एस वग्घदुत्तsि - नाम्रो जाश्रो महं तम्रो भरिणो । वानरियाए 'पुत्तय ! मा भीयसु मा य कंपेसु ॥३॥
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य-मंजरी
प्राकृत काव्य
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