________________
संजाओ वीसत्थो सीहो चिठेइ रुक्खमूलम्मि । जाया रयणी तत्तो निद्दायइ वणयरो सो य ॥४॥ भणियो य वानरीए मह उच्छंगे सिरं करेऊणं । सुयसु इमें तेण कषं सीहो तं वानरि भणइ ॥५॥ गाढं छुहारो हैं मुयसु इमं माण सं अहं तुज्झ । होहामि य वरमित्तं कयावि तुह उवयरिस्सामि ॥६॥ किं तुह एयस्स कुमारण सस्स रक्खा इह कयग्घस्स ।। भणियं च वानरीए नाहं सरणागयं देमि ।।८॥ पडिलोमाणि बहूणि भरिपऊरण ठिो हरी वि निविण्णो। पडिबुद्धो य चरणयरो जंपइ अंबे! तुमं सुयसु ।।८।। तस्सुच्छंगे काऊरण सा सिरं वानरी वि य पसुत्ता। सीहो जंपइ मारण स! मम एयं वानरं देहि ॥६॥ भक्खित्ता अहमेयं वच्चीहामि तवावि होइ पहो । मण एणं अक्खित्ता उ कडीमो वानरी तेरणं ॥१०॥ सा डालाए लग्गा छेयत्तणनो तमो भणइ सा उ । धी! धी! माण सभावस्स तुज्झ माण सकयग्घस्स ॥११॥ तेण पहेण महंतो सत्थो चलिमो तस्स सद्देणं । तत्तो य अइक्कंतो हरी गो वरण्यरो गेहे ॥१२॥*
०००
' 'मुणिपतिचरित'-सं• - आर० विलियम्स, एसियाटिक सोसायटी लन्दन, १९५६ पृ० १२४, गाथानुक्रम ११४४-५५ एवं 'प्राकृत गद्य-पद्य संग्रह', सं० - डॉ० के. आर० चन्द्रा, नवीन शाह, पाठ ११ से उद्ध त ।
कृत काव्य-मंजरी
६५
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org