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________________ पाठ २१ : कुशल पत्र १. वसन्तपुर नगर में न्यायप्रिय लोगों में मौरव का स्थानरूप, अच्छे व्यवहार वाला नयसार नामक नगर-सेठ रहता था। २-३. एक बार 'मेरे कुटुम्ब के पद के लिए उपयुक्त (पुत्र) कौन होगा।' इस चिन्ता से वह सेठ (अपने) तीनों पुत्रों की परीक्षा के लिए अपने स्वजन-बन्धुओं को और प्रमुख नागरिक जनों को (अपने) घर में निमन्त्रण देकर (तथा) विधिपूर्वक भोजन कराकर उनके समक्ष कहता है ४. 'मेरे इन तीनों पुत्रों में कुटुम्ब-पद के लिए योग्य कौन है?' (उसके द्वारा) ऐसा कहने पर उन्होंने कहा- 'तुम ही विशेष रूप से जानते हो- कौन योग्य है ।' ५. 'यदि ऐसा है तो आपके समक्ष ही मैं (इनकी) परीक्षा करता हूँ।' ऐसा कहकर नागरिकों के समक्ष (उसने) उन तीनों पुत्रों को बुलवाया। ६. प्रत्येक प्रत्येक (पुत्र) को सोने की लाख मुद्राएँ देकर व्यापार (करने) के लिए इनको उनके ही समक्ष विदेशों में भेज दिया। ७-८. तब उन पुत्रों में से एक पुत्र के द्वारा विचार किया गया- 'हमारे यह पिता धर्मप्रिय, अच्छा आचरण करने वाले और प्रायः दूरदर्शी हैं । प्राण-त्याग होने पर भी हमारे ऊपर कभी भी विपरीत नहीं सोचते हैं। अतः निश्चित ही यह (व्यापार को भेजना) किसी भी कारण (उद्देश्य) से होना चाहिए।' ६.. इस प्रकार सोचकर उस (पुत्र) के द्वारा अपनी बुद्धि से किसी प्रकार से वैसा व्यापार किया गया कि जिससे वर्ष के अन्त में वह (मूल पूजी) बढ़ा कर एक करोड़ कर ली गयी। १०. दूसरे पुत्र के द्वारा यह सोचा गया कि 'मेरे पिता का पर्याप्त धन है । इसलिए कष्टों के जाल में (व्यापार में) अपने को व्यर्थ ही क्यों डालू?' १६४ प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003806
Book TitlePrakrit Kavya Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages204
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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