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________________ ११. यदि सब कुछ ही मौज (खर्च) करलू तो वहाँ जाकर कैसे मुँह दिखाऊँगा ? इसलिए मूलधन को सुरक्षित रखकर शेष ( मुनाफा आदि) को खा डालता हूँ । अधिक क्या सोचना ? ' १२. तीसरे अयोग्य पुत्र के द्वारा अपने मन में विचार किया गया कि - 'करोड़ों का स्वामी मेरा पिता बुढ़ापे के दोषों से युक्त हो गया है । जैसे कि - १३. बुढ़ापे में मनुष्यों के प्रायः तृष्णा, लज्जा का नाश, भय की बहुलता. विपरीत बोलना आदि दोष उत्पन्न हो जाते हैं । १४. अन्यथा वैभव ( सम्पन्न ) होते हुए ( हमारे पिता ) हम लोगों को विदेश में क्यों भेजते ?' ऐसा सोचकर वर्ष के अन्त तक ( उसने ) सब धन खा डाला (खर्च कर दिया ) । १५-१६. अपने निश्चित समय पर सभी ( स्वजन) और वे वणिक् - पुत्र एकत्र हुए । फिर से उसी प्रकार सेठ के द्वारा भोजन आदि को कराकर स्वजन आदि के सामने प्रथम पुत्र को कुटुम्ब - पद पर दूसरे (पुत्र) को तीसरे (पुत्र) को खेती आदि कार्यों में लगा दिया गया । भाण्डार - पद पर और पाठ २२ : साहसी प्रगडदत्त १. किसी एक दिन घोड़े पर चढ़ा हुआ वह राजपुत्र ( अगडदत्त ) बाहर के मार्ग से जा रहा था। तभी नगर में कोलाहल हो गया । २. समुद्र की तरह क्या चला ? अथवा क्या भयंकर अग्नि जल उठी ? क्या शत्रु की सेना आ गयी ? अथवा क्या बिजली का दण्ड (वज्रपात ) गिर पड़ा है ? 000 ३. इसी बीच में अचानक आश्चर्य मन वाले कुमार के द्वारा सांकल सहित खम्भे को उखाड़कर आता हुआ पागल मद हाथी देखा गया । प्राकृत काव्य - मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only १६५ www.jainelibrary.org
SR No.003806
Book TitlePrakrit Kavya Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages204
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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