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दिलवर दिण्णाणुज्जं जेरण जरण य रंजिऊरण सयलं पि । रिणमच्छरे जरिणश्रं दुट्ठारण वि दंडरिट्ठवरणं ||११||
धरिद्ध समिद्धारण वि पउराणं निप्रकरस्स अब्भहि । लक्ख सयं च सरिसन्तरणं च तह जेरण दिट्ठाई ॥ १२ ॥
रणव- जोव्वरण - रूपसाहिए। सिंगार-गुण-गरुक्केण । रिगज्जमलज्ज जेरण जणे णेय संचरियं ||१३||
जरणवय
बालाग गुरु तरुरणारण सही तह गयवयाण तरण व्व । इय सुचरिएहि णिच्चं जेण जणो पालिओ सव्वो ।। १४ ।।
जेरण
णमंतेरण सया सम्माणं गुणथुई कुरते | जंपते य ललिश्रं दिण्णं परणईण धरण - निवहं ||१५||
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मरु- माउ-वल्ल-तमणी - परिका-मज्ज-गुज्जरत्तासु जणि जेन जगाणं सच्चरित्रगुणेहि अणुराहो ॥१६॥
गहिऊण गोहरणाई गिरिम्मि जालाउलाओ पल्ली । जणि जेण विसमे वऊरणारणय - मंडले पयडं ॥ १७ ॥
मायन्द-महुविन्देहिं । भूमिकया जेरण 112=11
वरिस-ससु प्रणवसुं अट्ठारसमग्गलेसु चेतम्मि | क्खते विहुहत्थे बुहवारे धवल बीए 112811 सिरि कक्कुरण हट्ट महाजणं विप्प रोहिंसक गा रिवेसि
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लुप्पलदलगन्धा रम्मा वरइच्छु पण्णच्छण्ण एसा
प्राकृत काव्य - मंजरी
पयइ वरिण बहुलं । कित्ति - विड्डी
* 'जर्नल ऑफ द रायल एशियाटिक सोसाइटी' (१८६५) - मुंशी देवीप्रसाद, पृष्ठ ५१३ एवं 'प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास' - डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री, से उद्धृत ।
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