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________________ पाठ 30 : कवि-अणुभूई पाठ-परिचय : प्राकृत के महाकाव्यों में गउडवहो का प्रमुख स्थान है। महाकवि वाक्पतिराज ने ई० सन् ७६० के लगभग इस महाकाव्य की रचना की थी। इसे ऐतिहासिक काव्य भी कहा जाता है। इस काव्य में यशोवर्मा की विजय के वर्णन के अतिरिक्त जीवन के अन्य पक्षों का भी वर्णन है । गउडवहो में प्राप्त वाक्पतिराज की लोक-अनुभूतियों को प्रोफेसर डॉ० कमलचन्द सोगाणी ने अपनी पुस्तक वाक्पतिराज की लोकानुभूति में संग्रहीत किया है । उन्हीं गाथाओं में से इस पाठ की गाथाएँ चयनित की गयी हैं । - इन गाथाओं में कहा गया है कि कवि की वाणी में सभी तत्त्व विद्यमान हैं । उसी से वह गौरव प्राप्त करता है। काव्यतत्त्व के रसिक को सुख-दुख बराबर होते हैं । निन्दा और प्रशंसा में वह विचलित नहीं होता। दूसरों के गुणों को ग्रहण करना और उनके कल्याण में प्रवृत्त होना ही जीवन की सार्थकता है। मनुष्य का व्यवहार उसके गुणों को प्रगट करने वाला होता है, इत्यादि। इह ते जन्ति कइणो जग्रमिणमो जाण सप्रल-परिणामं । वापासु ठिग्रं दीसइ अामोअ-घणं व तुच्छं व ।।१।। रिणअाएच्चिन वाआए अत्तणो गारवं णिवेसन्ता। जे एन्ति पसंसंच्चिा जन्ति इह ते महा-कइणो ।।२।। दोग्गच्चम्मि वि सोक्खाई ताण विहवे वि होन्ति दुक्खाई। कव्व-परमत्थ-रसिप्राइं जाण जाअन्ति हिअाइं ।।३।। सोहेइ सुहावेइ अ उवहुज्जन्तो लवो वि लच्छीए । देवी सरस्सई उण असमग्गा कि पि विणडेइ ।।४।। लग्गिहिइ ण वा सुप्रणे वयरिणज्जं दुज्जणेहि भण्णंतं । ताण पुण तं सुअगाववाअ-दोसेण संघडइ ॥५॥ १२० प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003806
Book TitlePrakrit Kavya Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages204
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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