________________
जाण असमेहि विहिया जाअइ णिन्दा समा सलाहा वि । रिणन्दा वि तेहिं विहिमा रण तारण मण्णे किलामेइ ॥६॥ बहनो सामण्णा-मइत्तणेण ताणं परिग्गहे लोगो। कामं गया पसिद्धि सामण्ण-कई अप्रोच्चेअ ।।७।। हरइ अणू वि पर-गुणो गरुअम्मि वि णिग्र-गुरणे ण संतोसो । सीलस्स विवेअस्स अ सारमियं एत्तिनं चेअ॥८।। इअरे वि फुरन्ति मुणा गुरूण पडमं कउत्तमासंगा। अग्गे सेलग्ग-गमा इंदु-मऊहा इव महीए · in णिवाडताण सिवं सप्रलं चित्र सिवरें तहा ताण । रिणव्वडइ कि पि जह ते वि अप्परमा विम्हअमुवेन्ति ॥१०॥ माहप्पे गुरप-कज्जम्मि अगुण-कज्जे णिबद्ध-माहप्पा । विवरीनं उत्पत्ति गुणाण इच्छन्ति कावुरिसा ।।११।। जह जह बग्घन्ति गुणा जह जह दोसा अ संपइ फलन्ति । अगुणायरेण तह-तह गुण-सुण्णं होहिइ जय पि ।।१२।। साहीण-सज्जणा वि हु गीअ-पसंगे रमन्ति काउरिसा। सा इर लीला जं काम-धारणं सुलह-रअरपारण ॥१३॥ ववहोरेच्चित्र छायं रिणएह लोअस्स किं व हिएण । तेउग्गमो मरगीण वि जो बाहिं सो ण भंगम्मि ॥१४॥'
000
* 'वाक्पतिराज की लोकानुभूति' -सं०- डॉ. कमलचन्द सोगाणी (की पाण्डुलिपि)
एवं 'गउडवहो' -सं0- प्रो० एन० जी० सूरु, से उद्ध त । गाथानुक्रम-१/६२, २/६३, ३/६४, ४/६८, ५/७०, ८/७३, ६/७५, १०/७६, ११/७७, १२/७५, ४१/८६४, ४५/६०२, ५८/६१७ एवं ८४/६६३ ।
प्राकृत काव्य-मंजरी
१२१
Jain Educationa international
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org