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है। अत: इस काव्य में शृगारिकता अधिक है। राजशेखर की कर्पूरमंजरी एवं अन्य काव्यों का भी इस पर प्रभाव परिलक्षित होता है । प्रबन्धकाव्य की दृष्टि से यह काव्य उपयुक्त है। इसकी कथावस्तु सरस है ।
___ कुम्मापुत्तचरियं :- प्राकृत के चरित ग्रन्थों में कुछ ऐसे काव्य हैं, जिन्हें कथानक की दृष्टि से खण्डकाव्य कहा जा सकता है। कुम्मापुत्तचरियं इसी प्रकार का खण्डकाव्य है। लगभग १६ वीं शताब्दी में जिनमाणिक्य के शिष्य अनंतहंस ने इस ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ में कुल १६८ गाथाएँ प्राप्त हैं । कुम्मापुत्तचरियं में राजा महेन्द्रसिंह और उनकी रानी कूर्मा के पुत्र धर्मदेव के जीवन की कथा वणित है। प्रारम्भ में दुर्लभकुमार नामक राजपुत्र को भद्रमुखी नामक यक्षिणी अपने महल में ले जाती है, और बाद में एक महात्मा के द्वारा उस कुमार के पूर्व-जन्म का वृतान्त कहा जाता है ।
इस ग्रन्थ में दान, शोल, तप और भाव-शुद्धि के महत्त्व को प्रतिपादित किया गया है। इसी प्रसंग में कई छोटे-छोटे उदाहरण भी प्रस्तुत किए गये हैं। मनुष्य-जन्म की सार्थकता बतलाते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार असावधानी से हाथ में रखा हुआ रत्न समुद्र में गिर जाने पर फिर नहीं मिलता है, उसी प्रकार व्यर्थ के कामों में मनुष्य-जन्म को व्यतीत कर देने पर अच्छे कार्य करने के लिए दुबारा मनुष्य-जन्म नहीं मिलता है । इस ग्रन्थ की भाषा बहुत सरल है, और संवाद-शैली में कथा को आगे बढ़ाया गया है।
महाकाव्य :
महाकाव्य में जीवन की सम्पूर्णता को विभिन्न आयामों द्वारा उद्घाटित किया जाता है। प्राकृत में रसात्मक महाकाव्य कम ही लिखे गये हैं। किन्तु जो महाकाव्य उपलब्ध हैं, वे अपनी विशेषताओं के कारण
प्राकृत काव्य-मंजरी
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