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महाकाव्य के क्षेत्र में अपनी अमिट छाप छोड़ते हैं। उनकी काव्यात्मकता और प्रौढ़ता के कारण उन्हें प्राकृत के शास्त्रीय महाकाव्य कहा जा सकता है। इस रसमयता के कारण वे प्राकृत के अन्य कथा एवं चरित ग्रन्थों से अपना भिन्न स्थान रखते हैं। ऐसे प्राकृत के उत्कृष्ट महाकाव्य हैं :- (१) सेतुबन्ध, (२) गउडवहो, (३) लीलावईकहा एवं,(४) द्वयाश्रयकाव्य । प्राकृत के ये चारों महाकाव्य ईसा की ४-५ वीं शताब्दी से १२ वीं शताब्दी तक को प्राकृत कविता का प्रतिनिधित्व करते हैं।
सेतुबन्ध (रावणवहो) :- प्राकृत का यह प्रथम शास्त्रीय महाकाव्य है। इसमें राम कथा के एक अंश को प्रौढ़ काव्यात्मक शैली में महाकवि प्रवरसेन ने प्रस्तुत किया है । वाल्मीकि रामायण के युद्धकाण्ड की कथावस्तु सेतुबन्ध के कथानक का प्राधार है। इस महाकाव्य में मुख्य रूप से दो घटनाएँ हैं :सेतुबन्ध और रावण वध । अतः इन दोनों प्रसुख घटनाओं के आधार पर इसका नाम 'सेतुबन्ध' अथवा 'रावणवहो' प्रचलित हुआ है। टीकाकार रामदास भूपति ने इसे 'रामसेतु' भी कहा है। महाकवि ने सेतु-रचना के वर्णन में ही अधिक उत्साह दिखाया है। अत: 'सेतुबन्ध इसका सार्थक नाम है। 'रावणवध' को इस काव्य का फल कहा जा सकता है।
सेतुबन्ध महाकाव्य में कुल १२६१ गाथाएँ प्राप्त होती हैं, जो १५ आश्वासों में विभक्त हैं । इसकी भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है। आश्वासों के अन्त में 'पवरसेण विरइए' पद प्राप्त होता है । अतः इसके रचयिता महा कवि प्रवरसेन हैं।
गउडवहो :- प्राकृत के महाकाव्यों में 'गउडवहो' का महत्त्वपूर्ण स्थान है । लगभग ई० सन् ७६० में महाकवि वाक्पतिराज ने गउडवहो की रचना की थी। वाकपतिराज कन्नौज के राजा यशोवर्मा के आश्रय में रहते थे ।
प्राकृत काव्य-मंजरी
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