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उन्होंने इस काव्य में यशोवर्मा के द्वारा गौड़देश (मगध) के किसी रोजा के वध किये जाने का वर्णन किया है। इसीलिए इसका नाम 'गउडवध' रखा है । इस दृष्टि से यह एक ऐतिहासिक काव्य भी है।
'गउडवहो' में प्रारम्भ में विभिन्न देवी-देवताओं को ६१ गाथाओं से नमस्कार किया गया है और इसके बाद ६८ गाथा तक वाक्पतिराज ने महाकवियों और उनके काव्य के स्वरूप पर प्रकाश डाला है। इस प्रसंग में उन्होंने प्राकृत भाषा और प्राकृत काव्य के महत्त्व को भी स्पष्ट किया है।
इसके बाद कवि ने महाकाव्य के नायक यशोवर्मा के जीवन का वर्णन किया है । प्रसंग के अनुसार इस काव्य में प्रकृति-चित्रण, विजय-यात्रा का वर्णन तथा वस्तुवर्णन आदि किये गये हैं। इन वर्णनों से ज्ञात होता है कि कवि ने लोक को बहुत सूक्ष्मता से देखा था। अतः उनकी अनुभूतियां व्यापक थीं। ग्रन्थ में अनेक अलंकारों का प्रयोग किया गया है। श्यामल शरीर वाले कृष्ण पीताम्बर पहिने हुए दिन और रात्रि के मिलन-स्थल सायंकाल के समान प्रतीत होते हैं, इस दृश्य को कवि ने इस प्रकार कहा है
तं णमह पीय-वसरणं जो वहइ सहाव-सामलं-च्छायं । दिप्रस-रिणसा-लय-रिणग्गम-विहाय-सबलं पिव सरीरं ।।
लीलावईकहा :- लगभग ६ वीं शताब्दी में महाकवि कोऊहल ने 'लीलावईकहा' नामक महाकाव्य की रचना की है । यह प्राकृत का महाकाव्य एवं कथा-ग्रन्थ दोनों है। इस ग्रन्थ में प्रतिष्ठान नगर के राजा सातवाहन एवं सिंहलद्वीप की राजकुमारी लीलावई के प्रेम की कथा वर्णित है। बीच में कई अवान्तर कथाएँ हैं। इस महाकाव्य से ज्ञात होता है कि प्रेमीप्रेमिकाएँ अपने प्रेम में दृढ़ होते थे और हर तरह की परीक्षाओं में खरे
प्राकृत काव्य-मंजरी
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